हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले (तात्कालीन पंजाब) की हमीरपुर तहसील से संबंध रखने वाले प्रसिद्ध क्रान्तिकारी यशपाल उन दिनों आजादी की जंग में अपना सर्वस्व न्यौछावर किए हुए थे और भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद के संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ (एच एस आर ए) में सक्रिय थे। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त केन्द्रीय असेंबली में बम फेंकने के बाद आत्मसमर्पण कर चुके थे। जबकि चंद्रशेखर आज़ाद, भगवतीचरण बोहरा और यशपाल सरीखे दल के अन्य साथी ब्रिटिश हुकूमत को सशस्त्र क्रान्ति से चोट पहुंचाने के लिए अपनी गतिविधियों में जुटे हुए थे। इसी दौरान यशपाल की मुलाकात बाबा सावरकर से हुई। सावरकर बन्धुओं के साम्प्रदायिक विचारों के प्रति क्रान्तिकारियों का क्या नजरिया था इसका खूबसूरत वर्णन यशपाल की लिखी पुस्तक सिंहावलोकन में मिलता है। आज के समय में जब साम्प्रदायिक वैमनस्य देश को अस्थिर करने की साजिशें रच रहा हैं। ऐसे में यशपाल व अन्य क्रान्तिकारियों का साम्प्रदायिकता पर दृष्टिकोण विशेष रूप से प्रासांगिक हो जाता है।
सिंहावलोकन पुस्तक के भाग दो का अंश-
बाबा सावरकर और जिन्ना साहब
उन दिनों प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बैरिस्टर सावरकर के बड़े भाई बाबा दिल्ली आकर ‘वीर अर्जुन’ पत्र के कार्यालय में ठहरे हुए थे। एक समय सावरकर बन्धु देश की स्वतंत्रता के लिए क्रान्ति के आन्दोलन के नेता ही नहीं बल्कि प्रवर्तक थे, परन्तु जिस समय की चर्चा कर रहा हूँ, उन दिनों उनका कार्य-क्षेत्र हिन्दू महासभा बन चुका था। वे हिन्दू महासभा के काम के प्रसंग में ही दिल्ली आए थे। लड़कपन में सावरकर बन्धुओं के कार्य और साहित्य का प्रभाव मुझ पर कितना गहरा था, अनुमान कर सकने के लिए एक ही बात काफी है कि पचीस वर्ष पूर्व पढ़ी उनकी लिखी पुस्तक ‘अन्दमान की गूँज’ के अनेक भावपूर्ण वाक्य मुझे आज भी याद आते रहते हैं। हम लोगों को सावरकर बन्धुओं के प्रति इतनी श्रद्धा थी कि उनका दर्शन कर लेने का अवसर चूकना न चाहते थे।
सावरकर हिन्दू महासभा का कार्य अपना चुके थे, परन्तु हमें विश्वास था कि हमारे उद्देश्य में उनसे सहायता अवश्य मिलेगी। मैं और भगवती भाई एक साथ उनसे मिलने गए। साधारणतः मुझे किसी भी महापुरूष के चरण छूने की इच्छा नहीं होती। गांधी जी से भेंट होने पर भी मुझे ऐसी इच्छा नहीं हुई, परन्तु याद है कि हम दोनों ने ही बाबा के चरण छूकर अभिवादन किया था और निःशंक अपना वास्तविक परिचय देकर अपने उद्देशय में सहायता माँगी थी। बाबा ने हमें निराश भी नहीं किया। उन्होंने हम लोगों को कुछ दिन बाद, उनके दक्षिण में रहने पर वहाँ मिलने का परामर्श दिया।
बाबा के परामर्श के अनुसार मैं बम्बई गया। सावरकर बन्धुओं में सबसे बड़े भाई बाबा अकोला में रहते थे। सावरकर बन्धुओं के राजनैतिक कार्यक्रम का नेतृत्व वे ही कर रहे थे। बाबा ने बहुत वत्सल भाव से मेरा स्वागत किया। घर की महिला प्रति दो-ढाई घंटे के बाद काँसे या पीतल की कटोरी में रक्खे वैसे ही गिलास में उनके लिए चाय ले आती थी। बाबा कटोरी-गिलास मेरी ओर बढ़ा देते। इस चाय का स्वाद चाय का न था। पूछने पर बाबा ने स्वीकार किया- यह चाय तुलसी की पत्ती और अदरक की है, चाय पत्ती की नहीं। मेरा अनुमान था कि बाबा जुकाम के उपचार के लिए ऐसी चाय पी रहे हैं, परन्तु उन्होंने बताया- वे सदा वैसी ही चाय पीते थे और वही गुणकारी भी होती है।
कुछ संकोच से पूछा- “गुण और उपयोगिता के विचार से ही आप ऐसी चाय पीते हैं या चाय को विदेशी मानकर भी उसके प्रति विरक्त्ति है?” बाबा ने निस्संकोच स्वीकार किया- चाय से विरक्त्ति का एक कारण उसका विदेश रिवाज होना भी है। दोपहर के समय नवयुवक शिष्यों की एक मंडली उन्हें किसी फुटबाल मैच के बारे में बातें सुना रही थी। फुटबाल, क्रिकेट, हाकी आदि खेलों को हम लोगों ने अंग्रेजों से सीखा है इसलिए इन खेलों के प्रसंग में अंग्रेजी पारिभाषिक शब्दों- सेंटर फारवर्ड, बैक, हाफबैक, गोल, आउट, पेनाल्टी आदि-आदि का ही उपयोग भी होता रहता है। लेकिन यह लोग इन शब्दों से परहेज कर, इनके संस्कृत पर्यायवाची ही उपयोग कर रहे थे। बाबा की निष्ठा और उनके त्याग के प्रति अत्यन्त श्रद्धा होने पर भी उनके सांस्कृतिक दृष्टिकोण में मुझे अपने विचार से व्यावहारिकता और संतुलन का अभाव जान पड़ा।
एकान्त पाते ही शस्त्रों, धन और सम्बन्धों के लिए सहायता का अनुरोध उनसे किया। दिल्ली में हुई बातचीत के आधार पर बाबा मेरे आने का कारण जानते ही थे। मेरे अनुरोध से असम्मति प्रकट न कर उन्होंने अपने कार्यक्रम या दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए समझाया, “विदेशी दासता से राष्ट्र को मुक्त करना हमारा उद्देश्य है। राष्ट्र को मुक्ति का उद्देश्य अपनी राष्ट्रीयता की उन्नति और रक्षा करना ही है। अंग्रेजी शासन के अतिरिक्त देश में दूसरा भी एक हमारा राष्ट्रीय शत्रु है जो हमारी राष्ट्रीय एकता का विरोधी है और अंग्रेजों के पक्ष में होकर हमारे स्वतंत्रता के प्रयत्नों को विफल कर देता है। यह मुसलमानों की अपने आपको देश के हिन्दू जन समुदाय और देश की परम्परागत संस्कृति से पृथक समझने की भावना। प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति ही उसका प्राण और शक्ति होती है। सांस्कृतिक एकता ही राष्ट्रीय एकता का आधार होती है। विदेशी दासता के विरूद्ध हम अपनी सांस्कृतिक एकता और शक्ति के बल से ही लड़कर स्वतंत्र हो सकते हैं। हमें पहले सांस्कृतिक शक्ति और एकता स्थापित करने के लिए इसके विरोधी शत्रुओं से स्वतंत्र होना है। इसके बिना अंग्रेजों से लड़ना ऐसा ही है जैसे दासता के वृक्ष की जड़ को छोड़कर पतों को छाँटते रहना। हमें तुम्हारे उद्देश्य से पूरी सहानुभूति है, परन्तु सहयोग तो तभी हो सकता है जब कार्यक्रम में एकता है।
मेरे मौन को बाबा ने सम्भवतः सम्मति का ही संकेत समझा। वे बोले, “ इस समय राष्ट्र के लिए सबसे अधिक घातक है जिन्ना (स्व. मुहम्मद अली जिन्ना) के नेतृत्व में मुसलमानों की भारतीय राष्ट्रीयता का विरोध करना तथा राष्ट्र में दूसरा राष्ट्र बनाने की नीति। जिन्ना इस नीति के प्रतीक और प्रतिनिधि हैं। यदि आप लोग इस व्यक्ति को समाप्त कर देने की जिम्मेदारी लें तो स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा दूर करने का प्रयत्न होगा। इसके लिए हम पचास हजार रूपये तक का प्रबन्ध करने की जिम्मेदारी ले सकते हैं।
मैंने विनीत मुस्कराहट से बाबा के प्रस्ताव के प्रति असमर्थता प्रकट कर दी। मिस्टर जिन्ना की राजनीति से हमें सहानुभूति नहीं विरोध ही था, परन्तु साम्प्रदायिक मतभेद से हत्या करना हम लोग देशहित या सर्वसाधारण जनता के हित और एकता के विरूद्ध समझते थे। मुझे ऐसा विचार स्वयं अन्ध साम्प्रदायिकता ही जँची।
मैं उस दिन संध्या दिल्ली लौटने के लिए तैयार हो गया। मेरे चलने पर बाबा बोले, “ तुम इतनी दूर से आये हो, जल्दी में एक ही चीज तुम्हें दे सकता हूँ।“ उन्होंने हाथ भर लम्बा एक पिस्तौल निकाला। हथियार की गढ़न और रूप देखकर मैं समझ गया कि देहाती लोहार की बनायी चीज है। इसमें कारतूस के बजाय नाली के छेद में, गज की सहायता से बारूद और गोली-गट्टा भरना पड़ता होगा। फिर भी बाबा की ओर देखकर पूछा, “ इसके कारतूस?”
“यही तो इसकी विशेषता है।“ मुस्कराते हुए बाबा ने समझाया, “कारतूसों के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। इसे जब चाहे भरा जा सकता है।“ बाबा को धन्यावाद देकर वह बोझ उठाने से इन्कार कर दिया और अपनी कमर से ‘कोल्ट’ पिस्तौल निकालकर दिखाया कि हमें तो ऐसी चीजों की आवश्यकता है जिन्हें सुविधा से शरीर पर छिपाया जा सके। " जैसी तुम्हारी इच्छा।" कुछ निराश से बाबा बोले, "पर ऐसी विदेशी चीजें कितनी मात्रा में जुटायी जा सकेंगी?"
मिस्टर जिन्ना के सम्बन्ध में बाबा का प्रस्ताव ऐसी मामूली बात नहीं थी कि एक बार मुस्कराकर या उस पर त्योरियाँ चढ़ाकर टाल दिया जाता। यह सम्पूर्ण राष्ट्र की राजनीति पर बहुत गहरा प्रभाव डालने वाली बात थी। उसका मतलब शायद सैंकड़ों-हजारों हिन्दू-मुसलमानों का पारस्परिक कत्ल होता। मैं ट्रेन में रात भर इसी बात पर विचार करता रहा। देश की राष्ट्रीय एकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। विशेष चिन्ता की बात यह थी कि हिन्दू-मुसलमान का वैमनस्य बढ़ता ही जा रहा था। मैं और मेरे जैसे लोग जो साम्प्रदायिक दृष्टिकोण छोड़ चुके थे, इस समस्या को केवल मुर्खता ही समझ रहे थे, परन्तु यह समस्या निश्चय ही हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या थी। मुझे यह आवश्यक नहीं जान पड़ रहा था कि धार्मिक विश्वास भेद के कारण वैमनस्य भी अवश्य हो। नौजवान भारत सभा के प्रसंग में मैं कह ही चुका हूँ कि हम लोग साम्प्रदायिक वैमनस्य को मिटाने के लिए लाहौर में मुसलमानों और हिन्दुओं की सभी जातियों के संयुक्त भोजों का आयोजन किया करते थे।
एक समय था जब मुसलमान हिन्दू से छूत नहीं मानते थे या घृणा नहीं करते थे। हिन्दुओं की घृणा से अपने आत्माभिमान की रक्षा करने के लिए मुसलमानों ने भी बदले में हिन्दुओं से घृणा करना आवश्यक समझा। हिन्दू-मुसलमानों की इस आपसी घृणा में पहल हिन्दू ने की। हिन्दू-मुसलमान के आपसी द्वेष की जिम्मेवारी जिन्ना या मुस्लिम-लीग पर है या हिन्दू के ऊंचे वर्ण के समझे जाने वाले लोगों पर? हिन्दू केवल विधर्मी मुसलमान से ही घृणा नहीं करते, वे अपने सहधर्मी अधिकांश हिन्दुओं को भी अछूत मानकर उनसे घृणा करते हैं। हिन्दू समाज में ऊंचे वर्ण के लोगों की अपेक्षा अछूत समझे जाने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। हिन्दुओं की इस छुआछूत (अस्पृश्यता) में हिन्दू धार्मिक दर्शन या आध्यात्मिक सिद्धान्त काम नहीं करते। यह हिन्दू समाज की सामन्तवादी आर्थिक पद्धति या वर्ण-व्यवस्था का अंग है। हिन्दू समाज या भारतीय समाज के निर्वाह के ढंग के बदल जाने या आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन आ जाने से छुआछूत की व्यवस्था स्वयं ही शिथिल होती जा रही है, परन्तु लोप होने से पूर्व देश की बहुत हानी भी कर रही है।
हिन्दुत्व का धार्मिक दर्शन अध्यात्मवाद जीव मात्र में, मनुष्य और कुत्ते तक में एक ही आत्मा और समान जीव होने की बात कहता है, परन्तु इस समाज की नैतिकता ने ऊंचे वर्णों के शासन में बँधे समाज को वर्ण-व्यवस्था या अस्पृश्यता के चौखटों में जकड़कर अपने शासन को मजबूत बनाये रखने में कसर नहीं छोड़ी। इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि हिन्दू समाज में अस्पृश्यता और साधनहीनता या गरीबी साथ-साथ रही है। अस्पृश्यता अथवा वर्ण की हीनता साधनहीनों को शिक्षा और आर्थिक उन्नति का अवसर न देने की व्यवस्था (कानून) का ही नाम था। अर्थ की प्राप्ति और स्वामित्व के अवसर और अधिकारों को अपनी श्रेणी तक सीमित रखने के लिए ऊँचे वर्ण के लोग अपने मुख से प्राणिमात्र की समानता के ज्ञान की बात तो कहते थे, परन्तु यह ज्ञान शुद्र के कानों तक जाने देना अनुचित और पाप समझते थे। शुद्र या अछूत के कान में ज्ञान पहुंच जाने पर उन्होंने ज्ञान की बात कहने वाले ब्राह्मण की जीभ काट लेने का नियम नहीं, शुद्र के कान में गला हुआ सीसा डालकर उसे समाप्त कर देने का विधान बनाया था। अस्पृश्यता का आधार साम्प्रदायिक या धार्मिक विश्वास नहीं बल्कि श्रेणियों का आर्थिक विभाजन ही था। इस देश में अस्पृश्यता मुसलमानों के आने से पूर्व मौजूद थी और सम्पूर्ण शोषित वर्ग अपनी आर्थिक विवशता के अनुपात में अस्पृश्य था। जिस वर्ग को जितना अप्रिय और कठिन कार्य करना पड़ता था, वह वर्ग उतना ही अधिक हीन और अस्पृश्य समझा जाता था। हिन्दू समाज की अस्पृश्यता सामन्ती युग की क्रुर, शोषक व्यवस्था ही है, जिसमें आर्थिक अवसर और अधिकारों को वंश क्रम में बाँध दिया गया था।
हिन्दुओं से मुसलमानों के विरोध, वैमनस्य और प्रतिद्वन्द्विता का व्यावहारिक रूप भी मुख्यतः आर्थिक संघर्ष रहा है। अंग्रेजी सरकार के शासनकाल में इस संघर्ष का क्षेत्र नौकरियों और व्यवसाय के लिए अवसर की माँग थी। मुझे याद है कि बचपन में हमने दफ्तरों, सरकारी नौकरियों और व्यवसाय के क्षेत्र में ऊँचे वर्ग के हिन्दुओं की ही प्रधानता देखी थी। इसका कारण था इन वर्णों की बेहतर आर्थिक अवस्था और उनके लिए शिक्षा का परम्परागत अवसर। भारत के दस करोड़ मुसलमान विदेश से नहीं आये हैं। वे इसी देश के वासी और हिन्दू समाज का अंग हैं जिन्हें हिन्दू समाज की आर्थिक व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था) ने अवसरहीन और विवश बनाये रखने के लिए अछूत और दलित बना दिया था। इस व्यवस्था का प्रयोजन अधिकांश श्रमिक वर्ग को मानवी अधिकारों से वंचित रखकर, अवसर और साधनों की मालिक श्रेणी के उपयोग के लिए पशु बनाये रखना ही था। इस्लाम ने इन्हें अछूत अवस्था से उठाकर मानवी समता की भावना दी जिसे हिन्दू वर्ण-व्यवस्था ने स्वीकर न किया बल्कि मुसलमान-मात्र को ही अछूत बना दिया। हिन्दू वर्ण-व्यवस्था से पीड़ित और शोषित भारत का साधनहीन समाज ही आज इस्लाम और ईसाइयत के दायरों में है। हिन्दुओं के प्रति उनकी प्रतिद्वन्द्विता की जड़ जीवन के लिए अधिकार और अवसर की माँग में ही है। जिस आर्थिक व्यवस्था ने धर्म के नाम पर इस शोषित वर्ग के प्रति हिंसा, अन्याय और अत्याचार किया है, उसके प्रति शोषित वर्गों की घृणा ‘हिंसा’ नहीं बल्कि ‘प्रतिहिंसा’ ही है।
यह ठीक है कि जिन्ना साहब और उनके आन्दोलन को चलाने वाले मुस्लिम पूँजीपति और सामन्ती लोगों को साधनहीन नहीं समझा जा सकता था। वह लोग साधन-सम्पन्न हिन्दुओं से होड़ में अपने सम्प्रदाय की जनशक्ति का लाभ उठा रहे थे। साधन-सम्पन्न और साधनहीन लोगों का संघर्ष श्रेणी संघर्ष के रूप में ही होना चाहिये था। इस संघर्ष को साम्प्रदायिक रूप दे देने की जिम्मेवारी ऊँचे वर्ण के हिन्दुओं की स्वार्थपरता में ही रही है। ऊँचे वर्ण के हिन्दुओं के आर्थिक एकाधिकार के प्रति शिकायत केवल उसके साम्प्रदायिक प्रतिद्वन्दी मुसलमानों को ही नहीं, शनैः-शनैः यह प्रतिद्वन्द्विता सभी बहुसंख्यक हिन्दू शोषित वर्गों में भी फैलती जा रही है। बीस वर्ष पूर्व अधिकारों और शिक्षा के अवसरों के लिए जैसे आन्दोलन मुसलमान उठाते थे, वही आज हिन्दू कहे जाने वाले परिगणित श्रेणियों के शोषित लोग भी उठा रहे हैं। देश में एकता स्थापित करने का मार्ग क्या इस सबका दमन कर देना है? और क्या भारतीय संस्कृति का अर्थ वर्णाश्रम की पुनःस्थापना ही है? क्या वह आज मानव न्याय माना जा सकता है? क्या सभी के लिए बटन सुगम हो जाने पर भी मिर्जई में तनियाँ लगाये रहने के आग्रह से ही हम भी भारतीय संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं? अलबता तनियों को बटनों से अधिक सुविधाजनक मान लिया जाये तो दूसरी बात है।
साम्प्रदायिक विश्वासों का प्रभाव समाज की संस्कृति पर जरूर पड़ता है, परन्तु उससे अधिक सम्प्रदाय के आधार पर समाज विशेष की संस्कृति और परिस्थितियों का पड़ता है। उत्तर प्रदेश, बंगाल और अफगानिस्तान के मुसलमानों के और भारत, बर्मा और जापान के बौद्धों का आचार और व्यवहार एक से नहीं हैं। इसके विपरीत किसी भी देश के एक ही गाँव के परम्परागत निवासियों की संस्कृति और भाषा एक सी ही होती है।
बाबा सावरकर या प्राचीन आर्य संस्कृति की पुनः स्थापना के समर्थक लोगों को आधुनिक भारतीय संस्कृति पर केवल मुस्लिम प्रभाव से ही आपत्ति नहीं, वे पश्चिम की औद्य़ोगिक सभ्यता के प्रभाव से भी खिन्न हैं। खिन्नता प्रकट करते हुए उसे अजाने में स्वीकार भी करते जा रहे हैं। संस्कृति को भौगोलिक सीमाओं से बाँधकर रखना असम्भव है और भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु का प्रभाव हमारे जीवन निर्वाह के ढंग पर अनिवार्य है।
समाज के जीवन निर्वाह का ढंग ही उसकी संस्कृति है। जैसे भौगोलिक स्थितियों का प्रभाव हमारे जीवन निर्वाह के ढंग पर पड़ता है, वैसे ही मनुष्य द्वारा आविष्कृत पैदावार और निर्वाह के साधनों का प्रभाव भी समाज के जीवन निर्वाह के ढंग और संस्कृति पर पड़ता है। औद्योगिक संस्कृति द्वारा उत्पन्न भौतिक साधनों को अपनाना जरूरी है तो उस संस्कृति के दूसरे प्रभाव भी हमारे जीवन निर्वाह के ढंग पर पड़े बिना न रह सकेंगे। हम यदि विरचिस के साथ चमरौधा जूता पहनने की जिद्द करेंगे तो ऐसी जिद्द केवल विरूपता और उलझन ही पैदा करेगी। पुरातन भारतीय संस्कृति में औद्योगिकरण और उसके प्रभावों का संतुलन और सामंजस्य करने से ही हमारी आधुनिक भारतीय संस्कृति का रूप निश्चित होगा।
दिल्ली लौटकर मैंने भगवती भाई और आज़ाद को बाबा सावरकर से भेंट के लिए यात्रा का परिणाम सुनाया। जिन्ना साहब के सम्बन्ध में बाबा का प्रस्ताव सुनकर आज़ाद झुंझला उठे- यह लोग क्या हमें पेशेवर हत्यारा समझते हैं। बाद में हम लोग हाथ भर लम्बे देशी पिस्तौल की बात यादकर खूब हँसते रहे। यह बात केवल हँसी की ही नहीं थी। उस देशी पिस्तौल के प्रति बाबा के अनुराग, उनके विचार में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग का प्रतीक था। अपने विश्वास के प्रति बाबा की निष्ठा और त्याग के सम्बन्ध में सन्देह का अवसर कतई नहीं था, परन्तु सावरकर बन्धुओं और हम लोगों के राष्ट्रीय दृष्टिकोण में उतना ही अन्तर आ चुका था जितना कि देहाती लोहार के बनाये, गज से भरे जाने वाले पिस्तौल में और मैगजीन में एक साथ आठ गोली भरकर चलाये जाने वाले पिस्तौल में होता है।
सावरकर बन्धुओं ने विदेशी दासता विरोधी राष्ट्रीयता की भावना को हिन्दू संस्कृति की रक्षा की जिस नींव पर खड़ा किया था, वे अब भी उसी पर बैठे हुए थे। केवल सावरकर बन्धु ही नहीं, सशस्त्र क्रान्ति की चेष्टा के प्रारम्भिक युग में दूसरे नवयुवक भी विदेश दासता-विरोधी राष्ट्रीयता को अपने साम्प्रदायिक और धार्मिक विश्वासों से अनुप्राणित कर रहे थे। खुदीराम बोस और कन्हाईलाल दत फाँसी के तख्ते पर चढ़ते समय भारत माता और माता राधा के चरणों को एक साथ मानकर दोनों पर बलिदान होने का विश्वास लिए थे। यही बात अंग्रेजों के विरूद्ध ‘कूका विद्रोह’ या ‘वहाबी बगावत’ करने वाले सिख और मुस्लिम क्रान्तिकारियों में भी थी। हि.स.प्र.स. के लोग अपने अग्रगामी विदेशी सरकार विरोधी क्रान्ति की चेष्टा करने वालों का गौरव और उनके प्रति कृतज्ञता स्वीकार करके भी साम्प्रदायिकता और राष्ट्रीयता को अलग-अलग समझकर, साम्प्रदायिक दृष्टिकोण छोड़ चुके थे। इसका कारण था, इस बीच भारतीय विचारधारा का पश्चिमी औद्योगिक और अधिक विकसित विचारधार के निकट सम्पर्क में आ जाना और हमारा आयरलैंड, इटली, टर्की के विकास और 1917 की सोवियत समाजवादी क्रान्ति से प्रभावित हो जाना।
हम लोग सामप्रदायिक आदर्शवाद की जगह मार्क्सवादी वैज्ञानिक भौतिक दर्शन की ओर आकर्षित हो चुके थे। इसलिए हम लोगों में से किसी को जेल की कोठरी या फाँसी के तख्ते पर ‘राम नाम’ की सहायता की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। भगतसिंह ने फाँसी के तख्ते से भी ‘इंन्कलाब जिन्दाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के ही नारे लगाये, जो नितान्त भौतिक लक्ष्य हैं। वैज्ञानिक भौतिकवादी दर्शन से आत्मविश्वास का बल पा लेने का सबसे अच्छा उदाहरण मैंने मणीन्द्रनाथ बनर्जी की मृत्यु के समय फतेहगढ़ जेल में देखा।
1934 के जून महीने में फतेहगढ़ जेल में सी क्लास के क्रान्तिकारी रमेश गुप्त के साथ जेल अफसरों के दुर्व्यवहार का समाचार मिलने पर हम लोगों ने विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी थी। जेल की बी क्लास बैरक में काकोरी षडयंत्र के मन्मथनाथ गुप्त, बनारस गोली काण्ड के मणीन्द्रनाथ बनर्जी और मैं ही थे। मणी बनर्जी का स्वास्थय पन्द्रह दिन के निरन्तर अनशन से बहुत बिगड़ गया। हृदय रोग ने भीषण रूप ले लिया। हाथ-पांव सूज गए, आँखों से दिखायी न दे रहा था। स्वास लेने में बहुत कष्ट हो रहा था। मणी के यह अवस्था देखकर हम दोनों का हृदय दहल गया था। मन्मथ ने प्रार्थना के ढंग से हाथ जोड़कर द्रवित स्वर में मणी को सुनाकर कहा, “ मैं अपनी तार्किक प्रवृति के कारण नास्तिक हूँ। मुझे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं है, परन्तु जो लोग ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं, वे उसे सर्वशक्तिमान और चामत्कारिक शक्ति सम्पन्न मानते हैं। सम्भव है, मेरा तर्क गल्त रहा हो इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि यदि सचमुच भगवान का कोई अस्तित्व है तो वह इस समय तुम्हारा दुख दूर करें। मैं उनमें विश्वास कर लेने के लिए तैयार हूं।“
मणी खिन्नता से बोला, “ डैम योर गॉड एण्ड डैम हिज मर्सी ( भाड़ में जाये तुम्हारा भगवान और भाड़ में जाये उसकी दया) लोग बकते हैं कि अन्तिम समय भगवान दिखायी देता है। मुझे तो कुछ दिखायी नहीं दे रहा। मेरे अन्तिम श्वासों के समय मेरा मस्तिष्क धुंधला मत करो। मुझे कायर और कातर बनाने की चेष्टा मत करो। एक जबर्दस्त हिचकी उसे आयी और उसका शरीर निष्प्राण होकर ढीला पड़ गया। हि.स.प्र.स. के लोगों के उदाहरण स्वरूप मणी की मृत्यु एक दृष्टान्त है। ऐसा ही व्यवहार मृत्यु के समय भगवती भाई का भी था। यह बात प्रसंग आने पर ही कहूँगा।
साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में अपने साथियों के विचारों या व्यवहार के सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त है कि हम लोग हिन्दू-मुसलमान का भेद स्वीकार नहीं करते थे। भैया आज़ाद ब्राह्मण सन्तान थे। दल में उनका एक उपनाम ‘पंडित जी’ भी था। आवश्यकता पड़ने पर पूजा-आचमन का अनुष्ठान वे बहुत शुद्धता और पूर्णता से निभा सकते थे, परन्तु उन्हें जनेऊ, पूजा और संध्या से चिढ़ हो गयी थी। इसे वे आत्मविश्वास की कमी और बुद्धि की परवशता और कुछ अवस्थाओं में ढोंग भी समझते थे। पूजा संध्या करने वाले व्यक्ति की ईमानदारी में उन्हें संदेह ही रहता था। भगवती भाई पूजा-पाठ से चिढ़ते तो नहीं थे, लेकिन ऐसी चर्चा को व्यर्थ समझते थे। मांस न आज़ाद खाते थे न भगवती भाई, परन्तु मांस और सब्जी एक साथ मिलाकर पकाने से मांस को छोड़कर सब्जी मजे में खा लेते थे।
प्रस्तुति- समीर कश्यप
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