Sunday, 13 June 2021

दर्शन दिग्दर्शन के संक्षिप्त नोट्स---समीर कश्यप

 

राहुल सांकृत्यायन की श्रेष्ठ कृति दर्शन-दिग्दर्शन का अध्ययन पूरा हुआ। दर्शन जैसे विषय पर मेरे जीवन में पढ़ी गई शायद यह पहली पुस्तक है। पुस्तक ने यूनान, इस्लामिक तथा भारत के सभी दार्शनिकों का पहली बार परिचित करवाया। बहुत सुंदर पुस्तक है और विषय से सांगोपांग परिचित करवाने में सक्षम है। पुस्तक में यूनान के थेल्, पिथागोर, हेराक्लितु (भौतिकवादी), सुक्रात, देमोक्रितु (भौतिकवादी), अफलातूँ, अरस्तू, एपीकुरू (भौतिकवादी) आदि सहित तमाम दार्शनिकों के बारे में पता चलता है और उनके विचारों से अवगत होते हैं। ईरान के मानी और मज़दक के बारे में मालूम होता है तो यह जानकारी भी होती है कि 500 ई. में ईसाइयों द्वारा दर्शन पढ़ना निषिद्ध कर दिया गया था। इस्लामिक दर्शन में मुहम्मद पैगंबर से लेकर खलीफाओं, इब्न-मैमून, अश्अरी, किन्दी, फाराबी, फिर्दोसी, मस्कविया, सीना, ग़ज़ाली, वाजा, तुफैल, रोश्द जैसे अनेकों दार्शनिकों के बारे में जानकारियां मिलती है। मध्यकाल के यूरोपीय दार्शनिक राजर बैकन, टामस् अक्विना, फ़्रेडरिक राजा, ल्युनार्दो-द-विन्ची आदि के विचारों के बारे में पता चलता है। आधुनिक काल में बेकन, हॉब्स, द-कार्त, स्पिनोज़ा, लॉक, बर्कले, वोल्टेर, ह्यूम, रूसो, हेलवेशियो, कान्ट, दोल्बाख़, हेगेल, शोपनहार, फ्वेरबाख, मार्क्स, स्पेन्सर, एन्गेल्स, निट्ज़्शे, लेनिन और बर्टरंड रसल आदि के विचार समझने का मौका मिलता है। दर्शन के क्षेत्र में राहुल भारतीय दार्शनिकों की शुरूआत 1000 ई.पू. में वामदेव से करते हैं। इसके बाद प्रवाहण जैवलि और उद्दालक आरूणी 700 ई.पू., याज्ञवल्कय 650 ई.पू. और चार्वाक 600ई.पू. में होते हैं। हालांकि यूनान के दार्शनिकों का कालक्रम थेल् (640-550 ई.पू.) से शुरू होता है। 600 ई.पू. में कृश सांकृत्य, 500 ई.पू. में बर्धमान महाबीर, पूर्ण काश्यप, बुद्ध, भौतिकवादी दार्शनिक अजित केशकम्बल, संजय, गोशाल जैसे दार्शनिक होते हैं। 400 ई. पू. में कपिल और पाणिनि का समय हैं। मौर्य वंश के साम्राज्य के लंबे अरसे बाद भारत में 150 ई.पू. में नागसेन और इसी समय पतंजलि वैयाकरण की रचना होती है। ईसवी सन् के बाद भारत में 100 ई. में विज्ञानवाद का प्रवेश होता है। इसी ईसवी में वैभाषिक होते हैं तो 150 ई. में कणाद सामने आते हैं। इसके करीब 25 वर्ष बाद ही बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का शुन्यवाद दर्शन सामने आता है। 250 ई. अक्षपाद होते हैं तो 250 ई. पतंजलि (योग) सामने आता है। 300 ईं. मे वादरायण का वेदान्त सुत्र तथा इसी दौरान जैमिनि की मीमांसा व सौत्रान्त्रिक भी अस्तित्व में आते हैं। समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल के दौरान 400 ई. में बौधायन, उपवर्ष और वात्स्यायन होते हैं। जबकि बौध धर्म में 350 ई. में असंग और 400 ई. में वसुबंधु और जैमिनी के भाष्य के टीकाकार शबर, प्रशस्तवाद, और कवि कालिदास इसी समय में होते हैं। इसके बाद 425 ई. में बौध दार्शनिक दिग्नाग और 476 ई. में ज्योतिषी आर्यभट्ट होते हैं। 500 ई. में उद्योतकर का समय है और इसी समय में गौडपाद हुए हैं। उनसे करीब 50 साल बाद कुमारिल भट्ट दर्शन के क्षेत्र में सामने आते हैं। 600 ईं. में हर्षबर्धन का शासन काल आता है। इसी समय भारतीय दर्शन का काण्ट कहे जाने वाले बौध दार्शनिक धर्मकीर्त्ति होते हैं तो वहीं सिद्धसेन (जैन) भी इसी समय होते हैं। फिर 700-750 ई. के बीच प्रज्ञाकर-गुप्त, धर्मोत्तर, ज्ञानश्री और अकलंकदेव (जैन) का समयकाल है। 800-900 ई. के बीच गोविंदपात, वसुगुप्त (कश्मीर-शैव), शान्तरक्षित, शंकराचार्य, और वाचस्पति मिश्र का समय है। 900-1000 ई. के बीच उदयनाचार्य, जितारि, रत्नकीर्त्ति, जयन्त भट्ट होते हैं। इससे अगली सदी में रत्नाकरशान्ति का समय है। 1100-1200 ई. के दौरान हेमचन्द्र सूरि, जयचंद राजा, श्रीहर्ष, गंगेश और शाक्यश्रीभद्र आते हैं। 17वीं शताब्दी में शाहजहाँ, शिवाजी और औरंगजेब के शासनकाल रहते हैं। 1757 ईं. में क्लाइव लॉयड और 18वीं सदी में ही वार्न हेस्टिंग्स और कार्नवालिस् भी भारत आते हैं। राममोहन राय भी इसी दौरान होते हैं। 19वीं सदी में दयानंद हैं। यह दार्शनिकों का एक कालक्रमानुसार संक्षिप्त विवरण है। पुस्तक का अध्ययन करने के दौरान कुछ उद्धरण और विवरण नोट किए हैं जो आपके साथ शेयर करते हुए निम्नलिखित हैः --वेदोंमें सबसे पुरानी ऋग्वेद मंत्र—संहिता है। ऋग्वेदके मंत्रकर्ता ऋषियों में सबसे पुराने विश्वामित्र, वशिष्ठ, भारद्वाज, गोतम (=दीर्घतमा), अत्रि आदि हैं। इनमें कितने ही विश्वामित्र, वशिष्ठकी भाँति हैं समसामयिक परस्पर, और कुछमें एक दो पीढ़ियोंका अंतर है। अंगिराके पौत्र तथा बृहस्पतिके पुत्र भारद्वाजका समय 1500 ई.पू. है। भारद्वाज उतर-पंचाल (=वर्तमान रूहेलखंड) के राजा दिवोदासके पुरोहित थे। विश्वामित्र दक्षिण-पंचाल (=आगरा कमिश्नरीका अधिक भाग) से संबंद्ध थे। वशिष्ठका संबंध कुरू (=मेरठ और अम्बाला कमिश्नरियोंके अधिक भाग)—राजके पुरोहित थे। सारा ऋग्वेद छै सात पीढ़ियोंके ऋषियोंकी कृति है, जैसा कि बृहस्पतिके इस वंशसे पता लगेगा--- (अंगिरा) बृहस्पति (1520 ई.पू.) भारद्वाज (1500 ई.पू.) (विदथी) नर (1460 ई.पू.) (संकृति 1440 ई.पू.) गौरवीति (1420 ई.पू.) (रन्तिदेव) इनमें बृहस्पति, भारद्वाज, नर और गौरवीति ऋग्वेदके ऋषि हैं। ऋग्वेदका सबसे अधिक भाग इसी समय बना है। ब्राह्मणों और आरण्यकोंके बननेका समय इससे पीछे सातवीं और छठीं सदी ईसा पूर्व तक चला आता है। प्राचीन उपनिषदोंमें सिर्फ़ एक (ईश) मंत्र-संहिता (शुक्ल यजुर्वेद) का भाग (अन्तिम चालीसवाँ) अध्याय है, बाकी सातों ब्राह्मणोंके भाग हैं, या आरण्यकोंके। पृ. 381 --जो झूठ बोलता है, वह जड़से सूख जाता है—प्रश्न उपनिषद --भगवद्गीताने कठ-उपनिषद्से बहुत लिया है, और ‘उपनिषदरूपी गायोंसे कृष्णने अर्जुनके लिए गीतामृत दूधका दोहन किया’ यह कहावत कठके संबंधसे है। पृ. 417 --सयुग्वा (=गाड़ीवाला) रैक्व सयुग्वा रैक्व उपनिषदकालके प्रसिद्ध ही नहीं आरम्भिक ऋषियोंमें मालूम होता है। बैलगाड़ी नाध जहाँ-तहाँ आधे पागलोंकी भाँति घूमते रहना, तथा राजाओं और सम्पति की पर्वाह न करना—एक ये प्रकारके विचारकोंका नमूना पेश करना था। यूनान में दियोजेन (412-322 ई.पू.)—जो कि चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्यारोहणके साल मरा—भी इसी तरहका एक फक्कड़ दार्शनिक हुआ था, अपने स्नान-भाजनमें बैठे रहते उपदेश देना उसका मशहूर है। भारत में इस तरहके फक्कड़—चाहे उनमें विचारोंकी मौलिकता हो या न हो—अभी भी सिद्ध महात्मा समझे जाते हैं। याज्ञवल्कयने जो ब्रहज्ञानीको बालककी भाँति रहनेकी बात कही थी, वह सयुग्वा जैसों हीके आचरणसे आकृष्ट होकर कही मालूम होती है। इतना होते भी सयुग्वा अध्यात्मवादी नहीं ठेठ भातिकवादी दार्शनिक था, वह संसार का मूल उपादान याज्ञवल्कयके समकालीन अनक्सिमनस (590-550 ई.पू.) की भाँति वायुको मानता था। --रैक्वका जीवन और उपदेश—सिर्फ छान्दोग्यमें और उसमें भी सिर्फ एक स्थानपर सयुग्वा रैक्वका जिक्र आया है— “( राजा ) जानश्रुति पौत्रायण श्रद्धासे दान देनेवाला, बहुत दान देने वाला था, उसने सर्वत्र पथिकशालाएं और धर्मशालाएं बनवाई थी। हंस रातको उड़ रहे थे। उस समय एक हंसने दूसरे हंससे कहा---‘जानश्रुति पौत्रायणकी भाँति दिनकी ज्योति (= अग्नि) फैली हुई है, सो जू न जाना, जल न जाना। “उसे दूसरेने उत्तर दिया---‘कम्बर ! तू तो ऐसा कह रहा है, जैसे कि वह सयुग्वा रैक्व है। ‘ ‘कैसा है सयुग्वा रैक्व ? ‘ ‘जैसे विजेताके पास नीचेवाले जाते हैं, इसी तरह प्रजाएं जो कुछ अच्छा कर्म करती हैं वह उस (= रैक्व ) के ही पास चले जाते हैं...।‘ “जानश्रुति पौत्रायणने सुन लिया। उसने बड़े सबेरे उठते ही सचिव से कहा—‘अरे प्रिय ! सयुग्वा रैक्वके बारे में बतलाओ न ? ‘कैसा सयुग्वा रैक्व ?’ ‘जैसे विजेताके पास नीचेवाले जाते हैं...।‘ “ढूँढ़नेके बाद क्षता (सचिव) ने कहा—‘नहीं पा सका। ‘ “ (फिर) जहाँ ब्राहम्णोंको ढूँढ़ा जा सकता है, वहाँ ढूँढ़ो। ‘ “वह शकटके नीचे दाद खुजलाता बैठ हुआ था। सचिव ने उससे पूछा—‘भगवन ! तुम्ही सयुग्वा रैक्व हो ? ‘ ‘मैं ही हूँ रे ! ‘…. “क्षता...लौट गया। तब जानश्रुति पौत्रायण छै सौ गायों, निष्क (=स्वर्ण मुद्रा), खचरी-रथ लेकर गया, और उससे बोला--- ‘रैक्व ! यह छै सौ गायें हैं, यह निष्क है, यह खचरी-रथ है। भगवन ! मुझे उस देवता का उपदेश करो, जिस देवताकी तुम उपासना करते हो ।‘ “रैक्व ने कहा—‘हटा रे ! गायोंके साथ यह सब तेरे ही पास रहे।‘ “तब फिर जानश्रुति पौत्रायण हजार गायें, निष्क, खचरी-रथ और अपनी कन्याको लेकर गया—और उससे बोला—भगवन ! मुझे उपदेश दो।‘ “रैक्व ने कहा...वायु ही मूल (=संवर्ग) है। जब आग ऊपर जाती है वायुमें ही लीन होती है। जब सूर्य अस्त होता है, वायुमें ही लीन होता है। जब चन्द्र अस्त होता है, वायुमेंही लीन होता है। जब पानी सूखता है, वायुमें ही लीन होता है। वायु ही इन सबको समेटता है।–यह देवताओंके बारेमें। अब शरीरमें प्राण मूल है, वह जब सोता है, वाणी प्राण में ही लीन होती है...चक्षु...श्रोत्र...मन प्राणमें ही लीन होता है...। यही दोनों मूल है....देवोंमें वायु, प्राणोंमें प्राण।‘ “--पृ. 479-480. --15वी से 13वी ई. पू—भरद्वाज, वशिष्ट, विश्वामित्र जैसे प्रतिभाशाली वैदिक कवियों का समय फिर छै सदियोंका कर्मकांडी जंगलकी मानसिक निद्रा 7वी, 6वीं, 5वीं सदी में दर्शन की प्रतिभाओं का जागना ईसाकी दूसरी सदीमें, तीन सदियों तक यूनानी दर्शनसे प्रभावित हो, वह नागार्जुनके दर्शनके रूपमें फूट निकलती है। इसके बाद आठवीं और बारहवीं सदीमें सिवाय थोड़ीसी करवट बदलनेके वह अब तक चिरसुप्त है। --हर एक चीज बह रही है, कोई चीज खड़ी नहीं है। उसी नदीमें हम दो बार नहीं उतर सकते, क्योंकि दूसरी बार उतरते वक्त वह दूसरी ही नदी होगी। उसी नदीमें दो बार उतरना असंभव है, क्योंकि नदी लगातार बदल रही है।–हेराक्लितु --विरोधिता (=द्वंद्व) सभी सुखोंकी माँ है।–हेराक्लितु --अनीश्वरवाद—बुद्ध के दर्शनका जो रूप—अनित्य, अनात्म, प्रतीत्य-समुत्पाद—हम देख चुके हैं, उसमें ईश्वर या ब्रह्मकी भी उसी तरह गुंजाइश नहीं है जैसे कि आत्माकी। यह सच है कि बुद्धने ईश्वरवादपर उतनेही अधिक व्याख्यान नहीं दिये हैं, जितने कि अनात्मवादपर। इससे कुछ भारतीय—साधारण ही नहीं लब्धप्रतिष्ठ पश्चमी ढंगके प्रोफेसर—भी यह कहते हैं, कि बुद्धने चुप रहकर इस तरहके बहुतसे उपनिषद्के सिद्धान्तोंकी पूर्ण स्वीकृति दे दी है। ईश्वरका ख्याल जहाँ आता है, उससे विश्वके सृष्टा, भर्ता, हर्ता एक नित्यचेतन व्यक्तिका अर्थ लिया जाता है। बुद्धके प्रतीत्य-समुत्पादमें ऐसे ईश्वरकी गुंजाइश तभी हो सकती है, जब कि सारे “धर्मों “ की भाँति वह भी प्रतीत्य-समुत्पन्न हो। प्रतीत्य-समुत्पन्न होनेपर वह ईश्वर ही नहीं रहेगा। उपनिषदमें हम विश्वका एक कर्ता पाते हैं--- “प्रजापतिने प्रजाकी इच्छासे तप किया।...उसने तप करके जोड़े पैदा किये। “1 “ब्रह्मा...ने कामना की।...तप करके उसने इस सब (= विश्व) को पैदा किया।... “2 1. प्रश्नोपनिषद, 2. तैतिरीय “आत्मा ही पहिले अकेला था।...उसने चाहा—‘लोकोंको सिरजूँ। ‘ उसने इन लोकोंको सिरजा।“1 1. ऐतरेय अब इस सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, आत्मा, ईश्वर, सत्...की बुद्ध क्या गति बनाते हैं, इसे सुन लीजिए। मल्लोंके एक प्रजातंत्र की राजधानी अनुपिया में बुद्ध भार्गव-गोत्र परिव्राजकसे इस बातपर वार्तालाप कर रहे हैं।– “भार्गव ! जो श्रमण-ब्राह्मण, ईश्वर (=इस्सर) या ब्रह्माके कर्तापनके मत (=आचार्यक) को श्रेष्ठ बतलाते हैं, उनके पास जाकर मैं यह पूछता हूँ—‘क्या सचमुच आपलोग ईश्वर...के कर्तापनको श्रेष्ठ बतलाते हैं‘ ? मेरे ऐसा पूछनेपर वे ‘हाँ‘ कहते हैं। उनसे मैं (फिर) पूछता हूँ—‘आपलोग कैसे ईश्वर या ब्रह्माके कर्तापनको श्रेष्ठ बतलाते हैं?’ मेरे ऐसा पूछनेपर...वे मुझसे ही पूछने लगते हैं।...मैं उनको उत्तर देता हूँ—‘...बहुत दिनोंके बीतने पर...इस लोकका प्रलय होता है।...(फिर) बहुत काल बीतनेपर इस लोककी उत्पत्ति होती है। उत्पत्ति होनेपर शुन्य ब्रह्म-विमान (=ब्रह्माका उड़ता फिरता घर) प्रकट होता है। तब (आभास्वर देवलोकका) कोई प्राणी आयुके क्षीण होनेसे या पुण्यके क्षीण होनेसे...उस शून्य ब्रह्म-विमानमें उत्पन्न होता है।...वह वहाँ बहुत दिनोंतक रहता है। बहुत दिनों तक अकेला रहनेके कारण उसका जी ऊब जाता है, और उसे भय मालूम होने लगता है।4—‘अहो दूसरे प्राणी भी यहाँ आवें।‘...दूसरे प्राणी भी आयुके क्षय होनेसे...शुन्य ब्रह्म-विमानमें उत्पन्न होते हैं।...जो प्राणी वहाँ पहिले उत्पन्न होता है, उसके मनमें होता है—‘मैं ब्रह्मा, महा ब्रह्मा, विजेता, अ-विजित, सर्वज्ञ, वशवर्ती, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ठ, स्वामी और भूत तथा भविष्यके प्राणियोंका पिता हूँ। मैंने ही इन प्राणियोंको उत्पन्न किया है।...(क्योंकि) मेरे ही मनमें यह पहिले हुआ था—‘दूसरे भी प्राणी यहाँ आवें।‘ अतः मेरे ही मनसे उत्पन्न होकर ये प्राणी यहाँ आये हैं। और जो प्राणी पीछे उत्पन्न हुए, उनके मनमें भी उत्पन्न होता है ‘यह ब्रह्मा...ईश्वर...कर्ता...है।...सो क्यों ? (इसलिए कि) हम लोगोंने इसको पहिलेहीसे यहाँ विद्यमान पाया, हम लोग (तो) पीछे उत्पन्न हुए।‘ ...दूसरा प्राणी जब उस (देव-) कायाको छोड़कर इस (लोक) में आते हैं।...(जब इनमेंसे कोई) समाधिको प्राप्तकर उससे पूर्वजन्मका स्मरण करता है, उसके आगे नहीं स्मरण करता है। वह कहता है...--’जो वह ब्रह्मा...ईश्वर...कर्ता...है, वह नित्य=ध्रुव है, शाश्वत, निर्विकार और सदाकेलिए वैसा ही रहनेवाला है। और जो हम लोग उस ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न किये गये हैं (वह) अनित्य, अ-ध्रुव, अल्पायु, मरणरशील हैं।‘ इस प्रकार (ही तो) आप लोग ईश्वरका कर्तापन...बतलाते हैं ? वह...कहते हैं--‘...जैसा आयुष्मान गौतम बतलाते हैं, वैसा ही हम लोगोंने (भी) सुना है‘।“ उस वक्तकी—परंपरा, चमत्कार, शब्दकी अंधेरगर्दी प्रमाणमें ईश्वरका यह एक ऐसा बेहतरीन खंडन था, जिसमें एक बड़ा बारीक मज़ाक़ भी शामिल है। 4. बुद्धका यहाँ ब्रह्माके अकेले डरनेसे वृहदारण्यकके इस वाक्य की ओर इशारा है।–“आत्मा ही पहले था।...उसने नजर दौड़ाकर अपनेसे दूसरेको नहीं देखा।...वह भय खाने लगा। इसलिए (आदमी) अकेला भय खाता है...उसने दूसरे (के होने) की इच्छा की...।“ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा (=ईश्वर) का बुद्धने एक जगहपर और सूक्ष्म परिहास किया है। 1.-- 1. केवट्टसुत ...बहुत पहिले...एक भिक्षुके मनमें यह प्रश्न हुआ—‘ये चार महाभूत—पृथ्वी-धातु, जल-धातु, तेज-धातु, वायु-धातु—कहाँ जाकर बिल्कुल निरूद्ध हो जाते हैं ? ‘…उसने...चातुर्महाराजिक देवताओं (के पास) जाकर...(पूछा)...। चातुर्महाराजिक देवताओंने उस भिक्षुसे कहा—‘...हम भी नहीं जानते...हमसे बढ़कर चार महाराजा1 हैं। वे शायद इस जानते हों...। ‘ 1. धृतराष्ट्र, विरूढक, विरूपाक्ष, वैश्रवण (=कुबेर) “...’हमसे भी बढ़कर त्रायस्त्रिंश...याम...सुयाम...तुषित (देवगण)...संतुषितदेव पुत्र...निर्माणरति (देवगण)...सुनिर्मित (देवपुत्र)...परनिर्मितवशवर्ती (देवगण)...वशवर्ती नामक देवपुत्र...ब्रह्मकायिक नामक देवता हैं, वह शायद इस जानते हों‘।...ब्रह्मकायिक देवताओंने उस भिक्षुसे कहा—‘हमसे भी बहुत बढ़ चढ़कर ब्रह्मा हैं,...वह...ईश्वर, कर्ता, निर्माता... और सभी पैदा हुए और होनेवालोंके पिता हैं, शायद वह जानते हों।‘...(भिक्षुके पूछनेपर उन्होंने कहा--) ‘हम नहीं जानते कि ब्रह्मा (=ईश्वर) कहां रहते हैं।‘...इसके बाद शीघ्र ही महाब्रह्मा ( =महान् ईश्वर) भी प्रकट हुआ।...(भिक्षुने) महाब्रह्मासे पूछा—‘ये चार महाभूत...कहाँ जाकर बिल्कुल निरूद्ध ( =विलुप्त ) हो जाते हैं ? ‘...महाब्रह्माने कहा---‘...मैं ब्रह्मा...ईश्वर...पिता हूँ।‘...दूसरी बार भी...महाब्रह्मासे पूछा—‘...मैं तुमसे यह नहीं पूछता, कि तुम ब्रह्मा...ईश्वर...पिता...हो।...मैं तो तुमसे यह पूछता हूं—ये चार महाभूत...कहाँ...बिल्कुल निरूद्ध हो जाते हैं ? ‘…तीसरी बार भी...पूछा—तब महाब्रह्माने उस भिक्षुकी बाँह पकड़, (देवताओंकी सभासे) एक ओर ले जाकर...कहा—‘हे भिक्षु, ये देवता...मुझे ऐसा समझते हैं कि...(मेरे लिए) कुछ अज्ञात...अ-दृष्ट नहीं है...इसीलिए मैंने उन लोगोंके सामने नहीं बतलाया। भिक्षु ! मैं भी नहीं जानता...यह तुम्हारा ही दोष है...कि तुम...(बुद्ध)को छोड़ बाहरमें इस बातकी खोज करते हो।...उन्हीके...पास जाओ,...जैसा...(वह) कहें, वैसा ही समझो।‘ “ स्मरण रखना चाहिए कि आज हिन्दूधर्ममें ईश्वरसे जो अर्थ लिया जाता है, वही अर्थ उस समय ब्रह्मा शब्द देता था। अभी शिव और विष्णुको ब्रह्मासे ऊपर नहीं उठाया गया था। बुद्धकी इस परिहासपूर्ण कहानीका मजा तब आयेगा, यदि आप यहाँ ब्रह्माकी जगह अल्लाह या भगवान, बुद्धकी जगह मार्क्स और भिक्षुकी जगह किसी साधारण मार्क्स-अनुयायीको रखकर इसे दुहराये। हजारों अ-विश्वसनीय चीजोंपर विश्वास करनेवाले अपने समयके अन्ध श्रद्धालुओंको बुद्ध बतलाना चाहते थे, कि तुम्हार ईश्वर नित्य, ध्रुव वगैरह नहीं है, न वह सृष्टिको बनाता बिगाड़ता है, वह भी दूसरे प्राणियोंकी भाँति जन्मने-मरनेवाला है। वह ऐसे अनगिनत देवताओंमें सिर्फ एक देवतामात्र है। बुद्धके ईश्वर (=ब्रह्मा)के पीछे “लाठी“ लेकर पड़नेका एक और उदाहरण लीजिए। अबके बुद्ध स्वयं जाकर “ईश्वर“ को फटकारते हैं---1 1. ब्रह्मनिमन्तिक-सुत “एक समय...वक ब्रह्माको ऐसी बुरी धारणा हुई थी---‘यह (ब्रह्मलोक) नित्य, ध्रुव, शाश्वत, शुद्ध, अ-च्युत, अज, अजर, अमर है, न च्युत होता है, न उपजता है। इससे आगे दूसरा निस्सरण (पहुँचनेका स्थान) नहीं है।‘...तब मैं....ब्रह्मलोकमें प्रकट हुआ। वक ब्रह्माने दूरसे ही मुझे आते देखा। देखकर मुझसे कहा—‘आओ मार्ष ! (मित्र !) स्वागत मार्ष ! चिरकाल के बाद मार्ष ! (आपका) यहाँ आना हुआ। मार्ष ! यह (ब्रह्मलोक) नित्य, ध्रुव, शाश्वत, ....अजर....अमर....है....।‘...ऐसा कहनेपर मैंने कहा---‘अविद्यामें पड़ा है, अहो ! वक ब्रह्मा, अविद्यामें पड़ा है, अहो ! वक ब्रह्मा, जो कि अनित्यको नित्य कहता है, अशाश्वतको शाश्वत...।‘...ऐसा कहने पर...वक ब्रह्माने...कहा—‘मार्ष ! मैं नित्यको ही नित्य कहता हूँ...।‘...मैंने कहा--....’...ब्रह्मा !....(दूसरे लोकसे) च्युग होकर तू यहाँ उत्पन्न हुआ।‘…..। ब्राह्मण अन्धेके पीछे चलनेवाले अन्धोंकी भाँति बिन जाने देखे ईश्वर (ब्रह्मा) और उसके लोकपर विश्वास रखते हैं, इस भावको समझाते हुए एक जगह और बुद्धने कहा है--- वाशिष्ट ब्राह्मणने बुद्धसे कहा—‘हे गौतम ! मार्ग-अमार्गके संबंधमें ऐतरेय ब्राह्मण, छन्दोग ब्राह्मण छन्दावा ब्राह्मण, .... नाना मार्ग बतलाते हैं, तो बी वह ब्रह्माकी सलोकताको पहुँचाते हैं। जैसे ....ग्राम या कस्बेके पास बहुतसे, नाना मार्ग होते हैं, तो भी वे सभी ग्राममें ही जानेवाले होते हैं।‘ …. ‘वाशिष्ट ! ….त्रैविद्य ब्राह्मणोंमें एक ब्राह्मण भी नहीं, जिसने ब्रह्माको अपनी आँखसे देखा हो...एक आचार्य....एक आचार्य-प्राचार्य....सातवीं पीढ़ी तकका आचार्य भी नहीं। ....ब्राह्मणोंके पूर्वज, ऋषि2 मंत्रोंके कर्ता, मंत्रोंके प्रवक्ता....अष्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अंगिरा, भरद्वाज, वशिष्ट, कश्यप, भृगु—में क्या कोई है, ....जिसने ब्रह्माको अपनी आँखोंसे देखा हो।...’जिसको न जानते हैं, न देखते हैं उसकी सलोकताकेलिए मार्ग उपदेश करते हैं।‘ ....वाशिष्ट ! (यह तो वैसे ही हुआ), जैसे अन्धोंकी पाँति एक दूसरेसे जुड़ी हो, पहिलेवाला भी नहीं देखता, बीचवाला भी नहीं देखता, पीछेवाला भी नहीं देखता। ....” ‘ --मन अन्नमय है।...खाये हुए अन्नका जो सूक्ष्मांश ऊपर जाता है, वही मन है।–याज्ञवल्क्यके गुरू उद्दालक आरूणि छान्दोग्य-उपनिषद, 6। 6 । 1-5 --बुद्धके प्रतीत्य-समुत्पाद (क्षणिकवाद) को देखनेपर जहां तत्काल प्रभु-वर्ग भयभीत हो उठता, वहाँ, प्रतिसंधि और कर्मका सिद्धान्त उन्हें बिलकुल निश्चिंत कर देता था। यही वजह थी जो कि बुद्धके झंडेके नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं, सम्राटों, सेठ-साहूकारोंको आते देखते हैं, और भारतसे बाहर—लंका, चीन, जापान, तिब्बतमें तो उनके धर्मको फैलानेमें राजा सबसे पहिले आगे बढ़े। --नागार्जुनके माध्यमिक(=शून्य) वादके समर्थनमें प्रज्ञापारमिताएं तथा दूसरे सूत्र रचे गये, किन्तु नागार्जुनको अपने दर्शनकी पुष्टिके लिए इनकी ज़रूरत न थी, उन्होंने तो अपने दर्शनको प्रतीत्य-समुत्पाद (-विच्छिन्न=प्रवाहरूपेण उत्पत्ति) पर आधारित किया था। --वाद-अलंकार—वाद में भूषण रूप है वक्ता की निम्न पाँच योग्यताएं---(1) स्व-पर-समयज्ञता—अपने और पराये मतोंकी अभिज्ञता। (2) वाककर्म-संपन्नता—बोलने में निपुणता जोकि अग्राम्य, लघु (=सुबोध), ओजस्वी, संबद्ध (=परस्पर अ-विरोधी और अशिथिल) और सु-अर्थ शब्दों के प्रयोगको कहते हैं। (3) वैशारद्य—सभा में अदीनता, निर्भीकता, न-पीला मुख होने, गद्गद स्वर न होने, अदीन वचन होनेको कहते हैं। (4) स्थैर्य—काल लेकर जल्दी किये बिना बोलना। (5) दाक्षिण्य—मित्रकी भाँति पर-चितके अनुकूल बात करनेका ढंग। वाद-निग्रह—वाद में पकडा जाना, जिससे कि वादी पराजित हो जाता है। ये तीन हैं—कथा त्याग, कथा-माद (=इधर-उधर की बातें करने लगना) और कथा-दोष। बेठीक बोलना, अ-परिमित बोलना, अनर्थवाली बात बोलना, बेसमय बोलना, अ-स्थिर, अ-दीप्त और अ-संबद्ध बोलना ये कथा-दोष हैं। वाद-निःसरण—गुण-दोष, कौशल्य (=निपुणता) और सभा की परीणा करके वादको न करना वाद-निःसरण है। वादेबहुकर बातें—ये हैं वादकी उपयोगी बातें स्व-पर-मत-अभिज्ञता, वैशारद्य और प्रतिभान्विता --ईश्वरादिकर्तृत्ववाद—इसके अनुसार पुरूष जो कुछ भी संवेदन (=अनुभव) करता है, वह सभी ईश्वरके करनेके कारण होता है। मनुष्य शुभ करना चाहता है, पाप कर बैठता है; स्वर्गलोकमें जाने की कामना करता है, नरकमें चला जाता है; सुख भोगनेकी इच्छा रखते दुःख ही भोगता है। चूँकि ऐसा देखा जाता है, इससे जान पड़ता है कि भावोंका कोई कर्ता, सृष्टा, निर्माता, पितासा ईश्वर है। खंडन—ईश्वरमें जगत् बनानेकी शक्ति (जीवोंके) कर्मके कारण है, या बिना कारण ही ? कर्मके कारण (=हेतु) होनेसे सहेतुक है ही, फिर ईश्वरका क्या काम ? यदि कर्मके कारण नहीं, अतएव अहेतुक है, तब भी ठीक नहीं ? यदि अन्तर्भूत नहीं है, तो (जगत् से) मुक्त (या दूर) जगत् सृजता है, यह भी ठीक नहीं। फिर प्रश्न है—वह जगत् को सप्रयोजन सृजता है या निष्प्रयोजन ? यदि सप्रयोजन तो उस प्रयोजनके प्रति अनीश्वर (=बेबस) है फिर जगदीश्वर कैसे ? यदि निष्प्रयोजन सृजता है, तो यह भी ठीक नहीं ( यह तो मूर्ख चेष्टित होगा)। इसी तरह, यदि ईश्वरहेतुक सृष्टि होती है, तो जब ईश्वर है तब सृष्टि, जब सृष्टि है तब ईश्वर और यह ठीक नहीं ; (क्योंकि दोनों तब अनादि होंगे)। ईश्वर-इच्छाके कारण सृष्टि है, इसमें भी वही दोष है। इस प्रकार सामर्थ्य, जगत् में, अन्तर्भूत-अन्नतर्भूत होने, सप्रयोजन-निष्प्रयोजन, और हेतु होनेकी बात लेकर विचार करनेसे पता लगा कि सृष्टिकर्ता ईश्वर मानना बिल्कुल अयुक्त है। अग्रवाद—ब्राह्मण ही अग्र (=उच्च श्रेष्ठ) वर्ण है, दूसरे वर्ण हीन हैं, ब्राह्मण शुक्ल वर्ण है, दूसरे वर्ण कृष्ण हैं, ब्राह्मण शुद्ध होते हैं, अब्राह्मण नहीं, ब्राह्मण ब्रह्माके औरस पुत्र मुखसे उत्पन्न ब्रह्मज, ब्रह्म-निर्गत, ब्रह्म-पार्षद हैं। खंडन—ब्राह्मण भी दूसरे वर्णोंकी भांति प्रत्यक्ष मातृ-योनिसे उत्पन्न हुए देखे जाते हैं, (फिर ब्रह्माका औरस पुत्र कहना ठीक नहीं), अतः “ब्राह्मण अग्रवर्ण है“ कहना ठीक नहीं। क्या योनिसे उत्पन्न होनेके ही कारण ब्राह्मण को अग्र मानते हो, या उसमें विद्या और सदाचारकी भी ज़रूरत समझते हो ? यदि योनिसे ही मानते हो, तो यज्ञमें श्रुत-प्रधान, शील-प्रधान ब्राह्मणके लेनेकी बात क्यों करते हो ? यदि श्रुत (=विद्या) और शील (=सदाचार) को मानते हो, तो “ब्राह्मण अग्र वर्ण है“ कहना ठीक नहीं। कौतुकमंगलवाद—सूर्य-ग्रहण, चन्द्र-ग्रहण, ग्रहों-नक्षत्रोंकी विशेष स्थितिसे आदमीके मनोरथोंकी सिद्धि या असिद्धि होती है। इसलिए ऐसा विश्वास रखनेवाले (=कौतुकमंगलवादी) लोग सूर्य आदिकी पूजा करते हैं, होम, जप, तर्पण, कुम्भ, बेल (=विल्व), शंख आदि चढ़ाते हैं, जैसा कि जोतिसी (=गाणितिक) करते हैं। खंडन—आप सूर्य-चन्द्र-ग्रहण आदिके कारण पुरूषकी सम्पति-विपत्ति को मानते हैं या उसके अपने शुभ-अशुभ कर्मसे ? यदि ग्रहण आदिसे तो शुभ-अशुभ कर्म फज़ूल, यदि शुभ-अशुभ कर्मसे तो ग्रहणसे कहना ठीक नहीं। --वादन्यायमें आचार्य धर्मकीर्तिने अक्षपाद के अठारह निग्रहस्थानोंकी भारी भरकम सूचीको फज़ूल बतलाकर, उसे आधे श्लोकमें कह दिया है— “निग्रह (=पराजय) स्थान है (वादके लिए) अ-साधन, बातका कथन और (प्रतिवादीके) दोषका न पकड़ना।“ --धर्मकीर्ति की परमार्थ सत् की व्याख्या अफलातूँ और उपनिषदके दर्शनकार क्षण-क्षण परिवर्तनशील जगत् और उसके पदार्थोंके पीछे एक अपरिवर्तनशील तत्वको परमार्थ सत् मानते हैं, किन्तु बौद्ध दर्शनको ऐसे इन्द्रिय और बुद्धिकी गतिसे परे किसी तत्त्वको माननेकी ज़रूरत न थीष इसलिए धर्मकीर्त्तिने परमार्थ सत् की व्याख्य करते हुए कहा— “अर्थवाली क्रियामें जो समर्थ है, वही यहाँ परमार्थ सत् है, इसके विरूद्ध जो (अर्थक्रियामें असमर्थ) है, वह संवृति (=फर्ज़ी) सत् है।“ घड़ा, कपड़ा, परमार्थ सत् है, क्योंकि वह अर्थक्रिया-समर्थ है, उनसे जल-आनयन या सर्दी-गर्मीका निवारण हो सकता है; किन्तु घड़ापन, कपड़ापन जो सामान्य (=जाति) माने जाते हैं, वह संवृति (=काल्पनिक या फ़र्ज़ी) सत् है। क्योंकि उनसे अर्थक्रिया नहीं हो सकती। इस तरह व्यक्ति और उनका नानापन ही परमार्थसत् है। “(वस्तुतः सारे) भाव (=पदार्थ) स्वयं भेद (=भिन्नता) रखनेवाले हैं, किन्तु उसी संवृति (=कल्पना) से जब उनके नानापन (=अलग-अलग घड़ों) को ढाँक दिया जाता है, तो वह किसी (घड़ापन) रूपसे अभिन्नसे मालूम होने लगते हैं।“ नित्यवादका खंडन—अनित्यवाद (= क्षणिकवाद) का घोर पक्षपाती होनेसे बौद्धदर्शन नित्यवादका जबर्दस्त विरोधी है। भारत के बाकी सारे ही दार्शनिक किसी-न-किसी रूपमें नित्यवादको मानते हैं, जैन और मीमांसक जैसे आत्मवादी ही नहीं चार्वाक जैसे भौतिकवादी भी भूत के सूक्ष्मतम अवयवको क्षणिक (=अनित्य) कहनेके लिए तैयार नहीं थे, जैसे कि पिछली सदी तकके यूरोपके यान्त्रिक भौतिकवादी विश्वकी मूल ईटों—परमाणुओं—को क्षणिक कहने के लिए तैयार न थे। दिग्नाग कहते हैं—“कारण (स्वयं) विकारको प्राप्त होकर ही दूसरी (चीज) का कारण हो सकता है।“ धर्मकीर्त्तिने कहा—“जिसके होनेके बाद जिस (वस्तु) का जन्म होता है, अथवा (जिसके) विकारयुक्त होनेपर (दूसरी वस्तु) में विकार होता है, उसे उस (पीछेवाली वस्तु) का कारण कहते हैं।“ इस प्रकार कारण वही हो सकता है, जिसमें विकार हो सकता है। “नित्य (वस्तु) में यह (बात) नहीं हो सकती, अतः ईश्वर आदि (जो नित्य पदार्थ) हैं, उनसे (कोई वस्तु) उत्पन्न नहीं हो सकती।“ “जिसे अनित्य नहीं कहा जा सकता, वह किसी (चीज) का हेतु नहीं हो सकता। (नित्यवादी) विद्वान् उसी (स्वरूप) को नित्य कहते हैं जो स्वभाव (=स्वरूप) विनष्ट नहीं होता।“ धर्मकीर्त्ति परमार्थ-सत् उसी वस्तुको मानते हैं, जो कि अर्थवाली (=सार्थक) क्रिया (करने) में समर्थ हो। नित्यमें विकारका सर्वथा अभाव होनेसे क्रिया हो ही नहीं सकती। आत्मा, ईश्वर, इन्द्रिय आदिसे अगोचर है, साथ ही वह नित्य होनेके कारण निष्क्रिय भी हैं; इतनेपर भी उनके अस्तित्वकी घोषणा करना यह साहस मात्र है। मीमांसाका खंडन--- मीमांसाका कहना है कि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाण सामने उपस्थित पदार्थ भी वस्तुतः क्या है इसे नहीं बतला सकते, और परलोक, स्वर्ग, नर्क, आत्मा आदि जो पदार्थ इन्द्रिय-अगोचर है, उनका ज्ञान करानेमें तो वे बिल्कुल असमर्थ हैं; इसलिए उनका सबसे ज्यादा जोर शब्द-प्रमाण—वेद—पर है, जिसे कि वह अ-पौरूष किसी पुरूष (=मनुष्य, देवता या ईश्वर) द्वारा नहीं बनाया अर्थात् अकृत सनातन मानते हैं। बौद्ध प्रत्यक्ष, तथा अंशतः प्रत्यक्ष अर्थात् अनुमानके सिवा किसी तीसरे प्रमाणको नहीं मानते, और प्रत्यक्ष-अनुमानकी कसौटीपर कसनेसे वेद उसके हिंसामय यज्ञ—कर्मकांड आदि ही नहीं बहुतसी दूसरी गप्पें और पुरोहितोंकी दक्षिणाके लोभसे बनाई बातें गलत साबित होतीं; ऐसी अवस्थामें सभी धर्मानुयायियोंकी भाँति वैदिक पुरोहितोंके लिए मीमांसा जैसे शास्त्रकी रचना करके शब्दप्रमाणको ही सर्वश्रेष्ठ प्रमाण सिद्ध करना ज़रूरी था। बुद्धसे लेकर नागार्जुन तक ब्राह्मण-पुरोहितोंके जबर्दस्त हथियार वेदके कर्मकांड और ज्ञानकांडपर भारी प्रहार हो रहा था। युक्तिके सहारे ज्ञानकांडके बचानेकी कोशिश अक्षपाद और उनके भाष्यकार वात्स्यायनने की, जिनपर दिग्नागके कर्कश तर्क-शरोंका प्रहार हुआ, जिससे बचानेकी कोशिश पाशुपताचार्य उद्योतकर भारद्वाज (500 ई.) ने की, किन्तु धर्मकीर्त्तिने उद्योतकरकी ऐसी गति बनाई कि वाचस्पति मिश्रको “उद्योतकरकी बूढ़ी गायोंके उद्धार“ के लिए कमर बाँधनी पड़ी। किन्तु युक्तिवादियों (=तार्किकों) की सहायतासे वैदिक ज्ञान—और कर्म-कांडके ठीकेदारोंका काम नहीं चल सकता था, इसलिए वादरायणको ज्ञानकांड (=बह्मवाद) और जैमिनिको कर्मकांडपर कलम उठानी पड़ी। उनके भाष्यकार शबर असंगके विज्ञानवादसे परिचित थे। दिग्नागने अक्षपाद और वात्स्यायनकी भाँति शबर और जैमिनिपर भी जबर्दस्त चोट की; जिसपर नैयायिक उद्योतकरकी भाँति मीमांसक कुमारिल भट्ट मैदान में आए। धर्मकीर्त्ति उद्योतकरपर जिस तरह प्रहार करते हैं, उससे भी निष्ठुर प्रहार उनका कुमारिलपर है। वेद-प्रमाण के अतिरिक्त मीमांसक प्रत्यभिज्ञाको भी एक जबर्दस्त प्रमाण मानते हैं। धर्मकीर्त्ति ने इन दोनों का खंडन किया है। “वेद (=ग्रंथ) की प्रमाणता, किसी (ईश्वर) का (सृष्टि-)कर्तापन (=कर्तृवाद), स्नान (करने) में धर्म (होने) की इच्छा रखना, जातिवाद (=छोटी बड़ी जाति-पाँत) का घमंड, और पाप दूर करनेके लिए (शरीरको) सन्ताप देना (=उपवास तथा शारीरिक तपस्याएं करना) – ये पाँच हैं अकल-मारे (लोगों)की मूर्खता (=जड़ता) की निशानियाँ। “1.--धर्मकीर्त्ति 1. प्रमाणवार्त्तिक-स्ववृति 1। 342 --गज़ाली (1059-1111 ई.) की बच्चों के निर्माण संबंधी आचार व्याख्या बच्चे में जैसे ही विवेचनाशक्ति प्रकट होने लगे, उसी वक्तसे उसकी देखभाल रखनी चाहिए। बच्चेको सबसे पहिले खानेकी इच्छा होती है, इसलिए शिक्षाका आरंभ यहींसे करना चाहिए। उसको सिखलाना चाहिए कि खाने से पहले बिसमिल्ला पढ़ लिया करे। दस्तरखानपर जो खाना सामने और समीप हो, उसीकी ओर हाथ बढ़ाए, साथ खानेवालोंसे आगे बढनेकी कोशिश न करे, खाने या खानवालोंकी तरफ नज़र न जमाए। जल्द जल्द न खाए। कौरको अच्छी तरह चबाए। हाथ और कपड़ोंको खानेमें लसरने न दे। उसको समझा दिया जाये कि ज्यादा खाना बुरा है। कम खाना, मामूली खाने पर सन्तोष करने, (अपना खाना) दूसरोंको खिला देनेकी बडाईको उसके मनमें बिठला देना चाहिए। (बच्चोंको) सफेद कपडा पहननेका शौक दिलाया जाये, और समझाया जाये कि रंगीन, रेशमी, जर्दोज़ी कपड़े पहनना औरतों और हिजड़ोंका काम है। जो लडके इस तरहके कपड़ोंको पहिना करते हैं, उनके संगसे बचाया जाय। आरामतलबी और नाज-सुकुमारतासे घृणा दिलाई जाये। जब बच्चा कोई अच्छा काम करे, तो प्रशंसा करके उसके दिलको बढ़ाया जाये, और उसे भेंट-इनाम दिया जाये। यदि बुरी बात करते देखा जाये तो चेतावनी देनी चाहिए, जिसमें बुरे कामोंके करने में दिलेर न हो जाये।...किन्तु बार-बार लजवाना नहीं चाहिए...बार-बार कहने से बात का असर कम हो जाता है। (और उसे सिखलाना चाहिए कि) दिन को सोना नहीं चाहिए। बिछौना बहुत सजा तथा ज्यादा नरम नहीं होना चाहिए...हर रोज कुछ न कुछ पैदल चलना और कसरत करनी चाहिए, जिसमें कि दिल में अकर्मण्यता और सुस्ती न आने पावे। हाथ-पांव खुले न रखे, बहुत जल्द-जल्द न चले, धन-दौलत, कपडा, खाना, कलम-दावात किसी चीजपर अभिमान न प्रकट करे...। सभा में थूकना, जम्हाई-अँगड़ाई लेना, लोगों की तरफ पीठ करके बैठना, पाँव पर पाँव रखना, ठोड़ीके नीचे हथेली रखकर बैठना—इन बातों से मना करना चाहिए। कसम खानेसे--चाहे वह सच्ची भी हो--रोकना चाहिए। बात खुद न शुरू करनी चाहिए, कोई पूछे तो जवाब दे।...पाठशाला से जब पढ़कर निकले तो उसे मौका देना चाहिए कि कोई खेल खेले, क्योंकि हर वक्त पढ़ने-लिखने में लगे रहनेसे दिल बुझ जाता है, समझ मन्द हो जाती है, तबियत उचट जाती है। यह शिक्षाएं मस्कवियाने अपने तहज़ीबुल-इखलाक़में यूनानी ग्रन्थों से लेकर दी हैं। पृ. 157-158. --दार्शनिकोंका असली मज़हब है विश्वके अस्तित्वका अध्ययन, क्योंकि ईश्वरकी सर्वश्रेष्ठ उपासना यही हो सकती है, कि उसकी सृष्टि—कारीगरी—का वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जाये, यह ईश्वरके परिचय करने जैसा है। यही एक कर्म है, जिससे ईश्वर खुश होता है। सबसे बुरा कर्म वे करते हैं, जो कि ईश्वरकी बहुत ही श्रेष्ठ उपासना करनेवालेको काफिर कहते, तथा परेशान करते हैं।–इब्न रोश्द --विरोध वह शक्ति है, जो कि चीजोंको चालित करती है—हेगेल --जिसके बारेमें वह महसूस करता है, वह मानव स्वभाव क्या है, अथवा मनुष्यकी खास मानवता, उसकी विशेषता क्या है? बुद्धि, इच्छा, स्नेह।–फायरबाख --किसी मनुष्यके जैसे विचार, जैसी प्रवृतियाँ होती हैं, वैसा ही उसका ईश्वर होता है, जितने मूल्यका मनुष्य होता है, उतनी ही उसका ईश्वर होता है, उससे अधिक नहीं। ईश्वर-संबंधी चेतना (=चिन्तन) आत्म (अपनी)-चेतना है, ईश्वर-संबंधी ज्ञान (उसका) आत्म (=अपना)-ज्ञान है। उसके ईश्वरसे तू उस मनुष्यको जानता है, और उस मनुष्यसे उसके ईश्वरको, दोनों (मनुष्य और उसका ईश्वर) एक हैं।–फायरबाख ...sameermandi.blogspot.com

मंडी में बनाया जाए आधुनिक पुस्तकालयः शहीद भगत सिंह विचार मंच

मंडी। प्रदेश की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी मंडी में आधुनिक और बेहतरीन पुस्तकालय के निर्माण की मांग की गई है। इस संदर्भ में शहर की संस्...