Thursday, 19 April 2018

आरक्षणः पक्ष, विपक्ष और तीसरा पक्ष का पाठ




हाल ही में आरक्षण के सवाल पर ‘आरक्षणः पक्ष, विपक्ष और तीसरा पक्ष’ पुस्तिका पढ़ी। पुस्तिका के कुछ अंश आपके साथ सांझा करना चाहता हुं।
- देश का बुर्जुआ सत्ताधारी वर्ग जब नौकरियों या उच्च शिक्षा में आरक्षण का लुकमा फेंकते हैं तो पहले से नौकरियों पर आश्रित, मध्यवर्गीय, सवर्ण जातियों के छात्रों और बेरोज़गार युवाओं को लगता है कि आरक्षण की बैसाखी के सहारे दलित और पिछड़ी जातियाँ उनके रोज़गार के रहे-सहे अवसरों को भी छीन रही है। वे इस ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं देख पाते कि वास्तव में रोज़गार के अवसर ही इतने कम हो गये हैं कि यदि आरक्षण को एकदम समाप्त कर दिया जाये तब भी सवर्ण जाति के सभी बेरोज़गारों को रोज़गार नहीं मिल पायेगा। इसी तरह दलित और पिछड़ी जाति के युवा यह नहीं देख पाते कि यदि आरक्षण के प्रतिशत को कुछ और बढ़ा दिया जाये और यदि वह ईमानदार और प्रभावी तरीके से लागू कर दिया जाये, तब भी दलित और पिछड़ी जातियों के पचास प्रतिशत बेरोज़गार युवाओं को भी रोज़गार नसीब न हो सकेगा। उनके लिए रोज़गार के जो थोड़े से नये अवसर उपलब्ध होंगे, उनका भी लाभ मुख्यतः मध्यवर्गीय बन चुके दलितों और आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पिछड़ी जातियों के लोगों की एक अत्यन्त छोटी सी आबादी के खाते में ही चला जायेगा और गाँवों-शहरों में सर्वहारा-अर्द्धसर्वहार का जीवन बताने वाली बहुसंख्यक आबादी को इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा।
आरक्षण के विरोधियों से
- आरक्षण विरोधियों का चिन्ता भरा तर्क होता है कि आरक्षण से योग्यता नजरअंदाज हो जाती है। लेकिन उनकी यह चिन्ता एन.आर.आई. कोटे के तहत और कैपिटेशन के आधार पर होने वाले प्रवेश को लेकर नहीं होती और न ही वह इस तरह की अयोग्यता का कभी विरोध करते हैं। क्या अनिवासी भारतीयों और दस-दस लाख रूपये तक कैपिटेशन फीस देकर एडमिशन फीस दे सकने लेने वाले धन्ना सेठों की सभी औलादें प्रतिभाशाली ही पैदा होती हैं। इन संस्थानों में दाख़िले के लिए धनिकों की जमात अपने कुलदीपकों की कोचिंग पर लाखों रूपये ख़र्च कर देती हैं। यदि आप इंसाफ़पसंद हैं और योग्यता को लेकर चिन्तित हैं तो फिर आपने कभी सरकार से इस तरह की माँग क्यों नहीं की कि वह या तो ऐसे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों पर रोक लगाकर सभी अभ्यर्थी छात्रों के लिए निःशुल्क या सस्ती कोचिंग की समान व्यवस्था लागू करे या फिर दलितों, अन्य पिछड़ी जातियों और वंचित तबकों के लिए अलग से निःशुल्क कोचिंग का प्रावधान करे ताकि कोई योग्य व्यक्ति महज़ आर्थिक-सामाजिक कारणों से इन संस्थानों से वंचित न रह जाये। शिक्षा मात्र व्यापार या पैसे का खेल होकर रह गयी है। लाख योग्यता हो, पैसे और पहुँच के अभाव में आगे बढ़ पाने की रही-सही सम्भावनाएँ भी लगातार सिकुड़ती जा रही हैं।
- प्रतिवर्ष हज़ारों डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक इस देश की आम जनता के खून-पसीने से अर्जित संसाधनों से डिग्रियाँ हासिल करने के बाद, ज़्यादा से ज़्यादा पैसा पीटने के लिए अमेरिका और यूरोप की राह पकड़ लेते हैं। क्या आपने इस प्रवृति का और इसे बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियों का कभी विरोध किया? जबकि इन्हें डिग्रियाँ दिलाने में अस्सी फीसदी से अधिक ख़र्च सरकारी होता है, जो आम जनता से परोक्ष करों के रूप में वसूली गयी धनराशि से आता है।
आरक्षण के समर्थकों से
- भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की नंगी, क्रूर और वीभत्स सच्चाई के मद्देनज़र, यदि भावुकतापुर्ण ढंग से उद्विग्नचित होकर सोचा जाये तो दलितों और पिछड़ों के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का फार्मूला न्यायसंगत प्रतीत होता है। लेकिन गहराई से देखने पर यह सपष्ट हो जाता है कि दलितों और पिछड़ी जातियों की वास्तिवक सामाजिक-आर्थिक स्थिति में, वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के फ़्रेमवर्क के भीतर, आरक्षण या ऐसे किसी भी प्रावधान से कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है। आरक्षण का मूल मन्तव्य सदियों से वंचित-उत्पीड़ित लोगों के आक्रोश की ज्वाला को भड़क उठने से रोकने के लिए उस पर पानी के छींटे मारना मात्र है। शोषित-उत्पीड़ित दलितों और पिछड़ी जातियों के आक्रोश को व्यवस्था-विरोधी विस्फोट के रूप में फूट पड़ने से रोकने के लिए आरक्षण का हथकण्डा एक सेफ़्टीवॉल्व का काम करता है।
- दलितों के लिए शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में लागू आरक्षण से मात्र इतना फ़र्क़ पड़ा है कि उनके बीचे से एक अत्यन्त छोटा, सुविधाजीवी मध्य वर्ग पैदा हुआ है जो गाँवों और शहरों में निकृत्षटतम कोटि के उजरती गुलामों का जीवन बिताने वाले दलितों से अपने को पूरी तरह काट चुका है। चूँकि उसे भी ऊंची जातियों के हमपेशा लोगों के बीच तरह-तरह से, प्रत्यक्ष-परोक्ष सामाजिक अपमान का सामना करना पड़ता है, इसलिए वह दलितवादी राजनीति के पक्षधर, प्रवक्ता और सिद्धान्तकार की भूमिका बढ़-चढ़कर निभाता है, जिसका चरित्र तमाम गरमागरम बातों के बावजूद, निहायत सुधारवादी है और जो व्यापक दलित आबादी की भावनाओं को भुनाकर मात्र अपना वोट बैंक मज़बूत करने का काम किया करता है। ये पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही सुधार की गुंजाइश के लिए लड़ते हैं, चाहे उनके तेवर जितने भी तीखे हों। नंगी सच्चाई यह है कि भारत में जब तक पूँजीवाद रहेगा, तब तक उजरती गुलामी रहेगी और दलितों का (और पिछड़ों का भी) बहुलांश तब तक इन्हीं उजरती ग़ुलामों की क़तारों में शामिल रहेगा। जातिगत आधार पर क़ायम पार्थक्य और शोषण-उत्पीड़न का आधार पहले सामन्तवाद था और आज पूँजीवाद है। इसे समाप्त करने के लिए पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के अतिरिक्त और कोई भी बुनियादी उपाय नहीं है।
- यदि आरक्षण ही समस्या का समाधान होता तो पंजाब में 37 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 30,000, हरियाणा में 47 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 10,000, हिमाचल प्रदेश में 47 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 6000, बिहार में 50 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 62,500, राजस्थान में 49 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 41,565 और मध्यप्रदेश में 50 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 11,500 पद खाली नहीं पड़े रहते। अनुमानतः देश भर में एक लाख ऐसी सरकारी नौकरियाँ हैं जो आरक्षण के तहत ख़ाली हैं। सच्चाई यह है कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों व अन्य पिछड़ी जातियों की बहुसंख्यक आम आबादी की ऐसी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति ही नहीं है कि वह इन नौकरियों के लिए आवेदन कर सके। जो आरक्षित सीटें भरती हैं, वे उनके खाते में ही चली जाती हैं जो पहले से ही मध्य वर्ग में शामिल हो चुके हैं। शैक्षणिक स्थिति में परिवर्तन की रफ़्तार यह है कि आज़ादी के 59 साल बाद भी 79.88 प्रतिशत अनुसूचित जाति के छात्र स्कूली पढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं। उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित 50 प्रतिशत सीटें खाली रह जाती हैं और आरक्षण के अन्तर्गत दाख़िला लेने वाले 25 प्रतिशत छात्र बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। आरक्षण के समर्थक इन्हीं आँकडों के आधार पर कहेंगे कि इसीलिए आरक्षण को अभी लम्बे समय तक जारी रहना चाहिए और इसके दायरे को भी विस्तारित किया जाना चाहिए। लेकिन हमारा कहना यह है कि इस रफ़्तार से ही यदि आरक्षण का प्रभाव पड़ता रहा तब तो एक शताब्दी बाद भी स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आयेगा। और इससे भी अहम बात यह है कि उदारीकरण-निजीकरण के इस रोज़गारविहीन विकास के दौर में जब सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियाँ लगातार कम होती जा रही हैं तो ऐसी स्थिति में आरक्षित नौकरियों का प्रतिशत यदि कुछ बढ़ भी जाये तो आम दलित और पिछड़ों की जीवन स्थितियों में भला इससे क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है?
हमारा पक्ष
- आरक्षण चाहे लागू हो या न लागू हो, दलितों और पिछड़ी जाति के ग़रीबों की स्थिति में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। जाति-प्रश्न के समाधान की दिशा में यह एक छोटा-सा भी क़दम नहीं हैं। आरक्षण का शिगूफ़ा उछालकर शासक वर्ग बहुसंख्यक शोषित-वंचित-उत्पीड़ित आबादी को जातिगत आधार पर विभाजित कर देता है और उस लड़ाई के संगठित होने की प्रक्रिया को भी बाधित कर देता है, जो हमारे समाज के तमाम बुनियादी प्रश्नों के साथ ही जाति-प्रश्न के समाधान की प्रक्रिया को भी आगे बढ़ायेगी और अंजाम तक पहुँचायेगी। आरक्षण का लक्ष्य राहत या सुधार नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए एक लुकमा फेंककर जनता को जातिगत आधार पर बाँटना है। इसका समर्थन या विरोध करने वाले जाने-अनजाने एक ही साज़िश का शिकार बन जाते हैं।
- इसलिए, हमारा पक्ष यह है कि हम आरक्षण का न तो समर्थन करते हैं, न ही विरोध। हम इस मुद्दे पर जनता के बँट जाने की स्थिति को ही एक कुचक्र मानते हैं और इसका विरोध करते हैं। शिक्षा और नौकरी में किसी प्रकार का आरक्षण नहीं बल्कि छात्र-युवा आन्दोलन की आज एक ही केन्द्रीय माँग हो सकती है- ‘सभी के लिए समान और निःशुल्क शिक्षा तथा काम करने योग्य हर व्यक्ति के लिए रोजगार’। शिक्षा और रोजगार हम सरकार की ज़िम्मेदारी मानते हैं और जिस व्यवस्था में यह सम्भव न हो सके, उसे उखाड़ फेंकना हम आम जनता के बहादुर बेटे-बेटियों का बुनियादी कर्तव्य मानते हैं। निश्चय ही, इस माँग के लिए लड़ते हुए बीच की कुछ मंज़िलें हो सकती हैं, जब तात्कालिक तौर पर सीटें बढ़ाने, फीसें घटाने या बेरोज़गारी भत्ता जैसी किसी माँग के लिए लड़ा जा सकता है, लेकिन इन माँगों की श्रेणी में भी आज आरक्षण को शामिल नहीं किया जा सकता, खासकर तब जबकि विगत आधी सदी का अनुभव हमारे सामने है।
- साथ ही, क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन का यह अनिवार्य दायित्व है कि वह जातिगत भेदभाव, पार्थक्य और दलित उत्पीड़न के विरूद्ध लगातार प्रचार और आन्दोलन की कार्यवाई चलाये। जाति-विरोधी आन्दोलन को सामाजिक-सांस्कृतिक स्तरों पर लगातार चलाते हुए इसे स्त्री मुक्ति के प्रशन से भी जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि जाति-आधारित पार्थक्य व उत्पीड़न, लैंगिक आधार पर क़ायम स्त्रियों के पार्थक्य व उत्पीड़न से जुड़ा हुआ है। स्त्रियों की सामाजिक मुक्ति के साथ ही जाति के भीतर तय करके होने वाले विवाहों की रूढ़ि भी कमज़ोर पड़ेगी, युवा स्त्रियाँ विवाह के मामले में चयन की आज़ादी के लिए संघर्ष करेंगी और ऐसी स्थिति में लाज़िमी तौर पर अन्तरजातीय, अन्तरधार्मिक विवाहों का भी चलन बढ़ेगा। इस रूझान के संकेत पहले भी महानगरीय जीवन में देखने को मिलते थे, जो अब पूँजीवादी विकास के साथ ही आम प्रवृति बनती जा रही है। जाति-विभेद की दीवारों को ढहाने के लिए छात्र-युवा आन्दोलन को एक सामाजिक आन्दोलन के रूप में इस प्रवृति को बढ़ावा देना चाहिए।
- ‘सबके लिए समान एवं निःशुल्क शिक्षा और सबके लिए रोज़गार के समान अवसर’ का नारा जातिगत बँटवारे को समाप्त कर आम जनता के सभी बेटे-बेटियों को एक जुझारू संघर्ष के झण्डे तले एकजुट कर देगा और साथ ही, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन को व्यापक मेहनतकश जनता के साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी संघर्ष की धारा के साथ भी जोड़ देगा। इस एकजुटता के बाद ही इस व्यवस्था का ध्वंस करने और ऐसी नयी व्यवस्था का निर्माण करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्ग काबिज़ हो सकेंगे और फ़ैसले की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में आ सकेगी।
- रियायतखोरी और पैबन्दसाज़ी की मानसिकता से मुक्त होकर दलित-मुक्ति के प्रश्न और समूची जाति समस्या पर इस पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं का अतिक्रमण करके सोचने पर ही इनके निर्णायक और अन्तिम समाधान की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। दलितों के लिए राहत के चन्द टुकड़े जुटाने के बजाय, उनमें से कुछ को सफ़ेदपोश बनाकर शेष को झूठी उम्मीद के सहारे लटकाये रहने के बजाय, ज़रूरत इस बात की है कि दलित-मुक्ति की आमूलगामी परियोजना जनमुक्ति की किसी व्यापक क्रान्तिकारी परियोजना के एक अंग के रूप में ही सम्भव हो सकती है।
- भारत की कुल आबादी के करीब 30 प्रतिशत दलित हैं और इनमें से 90 प्रतिशत ग्रामीण और शहरी सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा की क़तारों में शामिल हैं। इनमें यदि पिछड़ी जाति के ग़रीबों और जनजातियों को भी जोड़ दें तो यह कुल आबादी की आधी से भी अधिक हो जायेगी। भारत में समाजवाद के लिए संघर्ष तभी आगे बढ़ सकता है, जब आबादी का यह हिस्सा सम्पूर्ण जनता की मुक्ति और स्वतन्त्रता-समानता की वास्तविक स्थापना की परियोजना के रूप में उसे अंगीकार करे। दूसरी ओर, समाजवादी क्रान्ति की परियोजना से जुड़े बिना दलित-मुक्ति का प्रश्न और जाति-विभेद का सम्पूर्ण प्रश्न भी असमाधेय बना रहेगा तथा समाजवाद क्रान्ति को जीवन के हर क्षेत्र में दीर्घावधि तक लगातार चलाये बिना समाज को उस मुक़ाम तक पहुँचाया ही नहीं जा सकता जब जाति, धर्म या लिंग के आधार पर किसी भी तरह की असमानता या उत्पीड़न बचा ही नहीं रह जायेगा।
इस पुस्तिका का प्रकाशन राहुल फ़ाउण्डेशन, 69, बाबा का पुरवा, पेपरमिल रोड, निशातगंज, लखनऊ-226006 ने किया है और आह्वान कैम्पस टाइम्स के सम्पादक मण्डल ने सम्पादन किया है।
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Tuesday, 17 April 2018

वी. आई. लेनिन की पुस्तक साम्राज्यवाद का पाठ



बीसवीं सदी के महान क्रान्तिकारी चिंतक वी.आई. लेनिन द्वारा लिखी गई यह पुस्तक इस सदी की सर्वाधिक महत्वपुर्ण पुस्तकों में है। इस पुस्तक का महत्व इसमें दिए गए आंकड़ों में नहीं निहित है, इसका महत्व इस वजह से भी नहीं है कि इसमें साम्राज्यवाद और विश्वयुद्ध की व्याख्या की गई है। वास्तव में इसका महत्व इस बात में है कि मार्क्सवाद की पुनर्रचना के लिए इसमें सुदृढ़ ढांचा मुहैया कराया गया है जो बीसवीं सदी के बाकी समय में क्रान्तिकारी व्यवहार का मूल आधार बना है।
इस संस्करण की भूमिका प्रसिद्ध मार्क्सवादी अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने लिखी है। इसमें लेनिन की इस पुस्तक को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखने की उन्होने कोशीश की है। बीसवीं सदी में क्रान्तिकारी आचरण पर इसके प्रभाव की उन्होंने व्याख्या भी की है और इस को लेकर जो बहस होती रही है, उसमें लेनिन का यह सिद्धांत कहां खड़ा है, इसकी भी उन्होंने व्याख्या की है।
पुस्तक के दसवें अध्याय ‘इतिहास में साम्राज्यवाद की जगह’ में से कुछ अंश उदधृत करना चाहता हुँ...
- साम्राज्यवाद का आर्थिक सारतत्व है एकाधिकारी पूंजीवाद। यह तथ्य खुद ही इतिहास में साम्राज्यवाद की जगह तय कर देता है। मुक्त प्रतियोगिता की सरज़मीं पर और मुक्त प्रतियोगिता से ही उभरने वाला एकाधिकार पूंजीवादी व्यवस्था से एक ऊंची सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में संक्रमण का सूचक है। एकाधिकार के चार मुख्य रूप हैं यानि एकाधिकारी पूंजीवाद चार मुख्य रूपों में प्रकट होता है। ये चारों इस जमाने की चारित्रिक विशेषताएं हैं और हमें उन पर खास तौर पर गौर करना चाहिए।
- पहली बात है कि एकाधिकार की परिघटना उत्पादन के संकेंद्रण की एक बहुत ऊंची अवस्था में उभरी। यह अवस्था है पूंजीपतियों के एकाधिकारी संघों, कार्टेलों, सिंडिकेटों और ट्रस्टों के गठन की अवस्था। हमने देखा है कि समकालीन आर्थिक जीवन में ये कितनी महत्वपुर्ण भूमिका निभाते हैं। बीसवीं सदी की शुरूआत में उन्नत देशों में एकाधिकारी संघों ने अपना वर्चस्व बखूबी कायम कर लिया था।
- दूसरी बात है कि एकाधिकारी संघों ने कच्चे माल के सबसे महत्वपुर्ण स्त्रोतों और खास तौर पर कोयला और लोहा उद्योग के कच्चे माल के स्त्रोतों पर कब्जे को बढ़ावा दिया है। ये दोनों उद्योग पूंजीवादी समाज के अंतर्गत बुनियादी अहमियत रखते हैं और इन दोनों ही में कार्टेलों का गठन सबसे ज्यादा हुआ है। कच्चे माल के सबसे महत्वपुर्ण स्त्रोतों पर एकाधिकार ने बड़ी पूंजी की ताकत को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है। साथ ही इसने कार्टेलों में संगठित उद्योगों और कार्टेलों के बाहर के उद्योगों के बीच के आपसी तनावों को भी बहुत उग्र बना दिया है।
- तीसरी बात है कि एकाधिकार की परिघटना बैंकों से उभरी है। पहले बिचौलिए का काम करने वाले छोटे-मोटे उपक्रमों से बढ़कर बैंक आज वित्तीय पूंजी के एकाधिकारी बन गए हैं। प्रमुख पूंजीवादी देशों में से हर देश में तीन से पांच सबसे बड़े बैंकों ने उद्योंगों और बैंकों की पूंजी के बीच बड़ा नजदीकी जुड़ाव कायम कर लिया है। उन्होंने अरबों-अरब की रकम पर नियंत्रण कायम कर लिया है। यह रकम संबद्ध देशों की समस्त पूंजी और आमदनी का अधिकांश है। इस एकाधिकार की सबसे ज्वलंत अभिव्यक्ति है वित्तीय अल्पतंत्र। यह वित्तीय अल्पतंत्र आधुनिक बुर्जुआ समाज के तमाम आर्थिक और राजनीतिक संस्थानों पर निर्भरता के संबंधों का एक घना जाल बिछा देती है।
- चौथी बात है कि एकाधिकार की परिघटना उपनिवेशवाद की नीति से उभरी है। उपनिवेशवाद की नीति के अनेक पुराने मकसदों के साथ वित्तीय पूंजी ने एक नया मकसद भी जोड़ दिया है। यह है कच्चे माल के स्त्रोतों पर कब्जा करने के लिए, पूंजी के निर्यात के लिए, मुनाफे के सौदों, रियायतों, एकाधिकारी मुनाफों वगैरह के लिए प्रभाव क्षेत्रों यानि कुल मिलाकर आर्थिक इलाकों पर कब्जे के लिए संघर्ष। मिसाल के तौर पर 1876 में अफ्रीका के कुल क्षेत्रफल का करीब दसवां हिस्सा यूरोप के प्रमुख देशों का उपनिवेश था। लेकिन 1900 तक अफ्रीका के नब्बे फीसदी इलाके पर औपनिवेशक देशों का कब्जा कायम हो गया। इसके साथ ही सारी दुनिया का बंटवारा पूरा हो गया। तब अनिवार्य रूप से उपनिवेशों पर एकाधिकारी मिल्कीयत कायम करने की शुरूआत हुई। फलस्वरूप दुनिया के विभाजन और पुनर्विभाजन के लिए साम्राज्यवादी देशों के बीच खासतौर पर भीषण संघर्ष का जमाना शुरू हुआ। यह तो सामान्यतः एक जानी हुई बात है कि एकाधिकारी पूंजीवाद ने पूंजीवाद के अंतर्विरोध को किस कदर उग्र बना दिया है। इस संदर्भ में मंहगाई और कार्टेलों के अत्याचारों का ही जिक्र करना काफी होगा। पूंजीवाद के अंतर्विरोधों का इस कदर उग्र हो जाना वित्तीय पूंजी की विश्वव्यापी अंतिम विजय के समय से शुरू हुए इतिहास के संक्रमणकालीन युग की सबसे प्रबल चालक शक्ति साबित हुई है।
- एकाधिकार, अल्पाधिकार, स्वतंत्रता हासिल करने के बजाए वर्चस्व कायम करने की कोशिश और गिने-चुने सबसे धनी और ताकतवर देशों द्वारा छोटे या कमजोर देशों की बढ़ती संख्या के शोषण ने साम्राज्यवाद की उन चारित्रिक विशेषताओं को जन्म दिया है जो हमें उसे परजीवी या पराभवी पूंजीवाद कहने पर मजबूर करते हैं। साम्राज्यवाद की एक प्रवृति के रूप में लगानजीवी राजसत्ता यानी सूदखोर राजसत्ता का स्वरूप दिनों दिन उभरता जाता है। इस राजसत्ता के तहत पूंजी के निर्यात से होने वाली आमदनी से बुर्जुआ वर्ग की दौलत बढ़ती रहती है। यह समझना एक भूल होगी कि पूंजीवाद के पराभव की इस प्रवृति का मतलब यह है कि पूंजीवाद का तेज रफ्तार से विकास अब असंभव है। ऐसा नहीं होता। कुल मिला कर पूंजीवाद का विकास पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा तेजी से हो रहा है। लेकिन यह विकास आम तौर पर अधिकाधिक असमान ही होता जा रहा है। साथ ही उसकी यह असमानता खास तौर पर पूंजी के मामले में सबसे धनी देशों के पराभव के रूप में सामने आ रही है।
- यह वित्तीय पूंजी बड़ी असाधारण तेजी के साथ बढ़ी है और आज वह तेजी के साथ उपनिवेशों पर कब्जा करने में लगी है। इसके लिए वह हिंसक तरीकों का भी इस्तेमाल कर रही है। लेकिन वह उपनिवेशों पर कब्जे के लिए अधिक प्रशांत तरीकों का सहारा लेने की इच्छा नहीं रखती तो इसकी वजह ही यही है कि वह खुद भी बड़ी तेज रफ्तार से बढ़ी है। आखिरकार उपनिवेशों को उसे अधिक समृद्ध देशों से छीनना पड़ेगा और यह महज शांतिपूर्ण तरीकों से ही नहीं होगा।
- उद्योग की विभिन्न शाखाओं में से किसी एक शाखा में और विभिन्न देशों से किसी एक देश में पूंजीपतियों को मिलने वाला एकाधिकारी मुनाफा उन्हें इतने आर्थिक साधन मुहैया करवा देता है कि वे मजदूरों के कुछ तबकों को और कुछ समय तक तो मजदूरों की काफी बड़ी अल्पसंख्या को रिश्वत देकर उन्हें अन्य तमाम उद्योगों और देशों के खिलाफ किसी उद्योग विशेष या किसी देश विशेष के बुर्जुआ वर्ग की ओर मिला लें। इस लालसा को और बढ़ाता है दुनिया के बंटवारे के लिए साम्राज्यवादी देशों के बीच विग्रहों का उग्र होना। और इस तरह साम्राज्यवाद और अवसरवाद के बीच एक रिश्ता बन जाता है।
- साम्राज्यवाद के आर्थिक सारतत्व पर इस पुस्तक में जो भी कहा गया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें उसे संक्रमणशील पूंजीवाद या ज्यादा सही होगा कि मरणासन्न पूंजीवाद के रूप में पारिभाषित करना चाहिए।

पुस्तक का प्रकाशन ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, बी-7, सरस्वती कामप्लेक्स, सुभाष चौक, लक्ष्मी नगर, दिल्ली 110092 ने किया है। फोनः 65179059, 22025140.
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Tuesday, 10 April 2018

मुफ्त कानूनी मदद के बारे में जागरूक किए ग्रामीण




मंडी। जिला मुख्यालय के साथ लगती ग्राम पंचायत दुदर भ्रौण में रविवार को जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की ओर से विधिक साक्षरता शिविर का आयोजन किया गया। शिविर की अध्यक्षता प्राधिकरण के सचिव मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी अरविंद कुमार ने की। इस अवसर पर उन्होने जानकारी देते हुए बताया कि विभिन्न राज्यों में लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता देने के लिए अलग-2 नियम बनाए गए हैं। हिमाचल प्रदेश में यह नियम इस तरह से बनाए गए हैं कि इसका फायदा प्रदेश की करीब 95 प्रतिशत जनता उठा सकती है। उन्होने बताया कि प्राधिकरण की ओर से सभी महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जाति व जनजाति, वरिष्ठ नागरिकों, फैक्टरी मजदूरों, अपंगों, आपदा प्रभावितों, गिरफ्तार व्यक्तियों सहित एक लाख रूपये की सालाना आमदनी वाले सभी लोगों को यह सहायता दी जाती है। मुफ्त कानूनी सहायता के तहत लोगों को वकील मुहैया करवाने के अलावा, गवाहों और दस्तावेजों का खर्चा दिया जाता है। यह सहायता प्राप्त करने के लिए न्यायलयों में बनाए गए फ्रंट आफिस में सादे कागज पर आवेदन किया जा सकता है। यह सहायता न केवल केस दायर करने के लिए दी जाती है बल्कि केस का बचाव करने के लिए भी दी जाती है। इसके अलावा उन्होने देश के संविधान, विधिक सेवा प्राधिकरण की विभिन्न योजनाओं तथा रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग होने वाले विभिन्न कानूनों के बारे में प्रकाश डाला। इस मौके पर अधिवक्ता समीर कश्यप ने मनरेगा, सूचना का अधिकार, ग्रामीण संरक्षण एवं सहायता केन्द्र और मध्यस्थता (मिडिएशन) के बारे में बताया। जबकि अधिवक्ता ललित ठाकुर ने मोटर वाहन, घरेलु हिंसा और उपभोक्ता अधिनियम के बारे में जानकारी दी। पंचायत की प्रधान धर्मा देवी ने मुख्य अतिथि सहित विधिक सेवा प्राधिकरण का स्वागत करते हुए शिविर आयोजित करने के लिए धन्यावाद किया। इस अवसर पर पंचायत उपप्रधान विजेन्द्र चंदेल, वार्ड सदस्य, राजेन्द्र, नरेश, पुर्व उपप्रधान रूप सिंह गुलेरिया, नागेन्द्र सिंह पटियाल, ग्राम सुधार सभा छपौण के भगत सिंह गुलेरिया, चेत राम, दुदर और बडोग के महिला मंडल, जिला विधिक प्राधिकरण के ओमप्रकाश, सतीश कुमार, जोगिन्द्र वर्मा सहित करीब दो सौ स्थानीय वासी मौजूद थे।
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Monday, 2 April 2018

एससी/एसटी कानून में बदलाव के विरोध में प्रधानमंत्री को ज्ञापन भेजा






मंडी। शहीद भगत सिंह विचार मंच ने एससी/एसटी कानून 1989 में बदलाव पर रोक लगाने के लिए प्रधानमंत्री को उपायुक्त के माध्यम से ज्ञापन प्रेषित किया है। मंच के अनुसार देशभर में बेहद अरक्षित दलित आबादी पर होने वाले अत्‍याचारों के खिलाफ 1989 में बने इस कानून को 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमजोर करने का फैसला सुनाया गया। कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के बाद अब एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई है और साथ ही अग्रिम जमानत पर रोक भी हटा दी गई है। मंच का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला साफ तौर पर दर्शाता है कि मोदी सरकार द्वारा आंकड़ों की अनदेखी करते हुए कमजोर दलीलें रखी गई हैं। देशभर में एससी/एसटी कानून के तहत वैसे भी वर्तमान में दलित उत्पीडन के मामले की एफआईआर दर्ज कराना सबसे मुश्किल काम होता है। साथ ही पुलिस प्रशासन का रवैया मामले में सजाओं का प्रतिशत काफी कम कर देता है। यह कहना गल्त है कि कानून का दुरूपयोग होता है। कानून में गलत केस दर्ज कराने पर पीड़ित के विरुद्ध आईपीसी की धारा 182 के अंतर्गत केस दर्ज करके दण्डित करने का प्रावधान पहले से ही है। इसी प्रकार अग्रिम जमानत मिलने तथा उच्च अधिकारियों की अनुमति से ही गिरफ्तारी करने का आदेश इस एक्ट के डर को बिलकुल खत्म कर देगा। हम सभी जानते है कि पहले ही इस एक्ट के अंतर्गत सजा मिलने की दर बहुत कम है। इस प्रकार कुल मिला कर एससी/एसटी एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के इरादे से सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गये दिशा निर्देश दलितों की रक्षा की बजाय आरोपी के हित में ही खड़े दिखाई देते हैं जिससे दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही होगी। एससी/एसटी कानून 1989 में बदलाव भी पहले से ही दमन-उत्‍पीड़न झेल रही दलित आबादी को और अंधेरे में धकेलेगा। मंच ने मांग की है कि इस कानून में लाए जा रहे बदलावों पर तुरंत रोक लगाई जाए। प्रतिनिधिमंडल में शहीद भगत सिंह विचार मंच के संयोजक समीर कश्यप, सुशील कुमार, खेम चंद, संजय कुमार, नवीन राणा, हुक्म चंद, अंकुश वालिया, वीरेन्द्र कुमार, अमित शर्मा, भारत भूषण, दुर्गा दास, तरूण दीप, नरेन्द्र कुमार, पंकज शर्मा, विनोद ठाकुर, मनीष कटोच, देवी राम, एस के आर्या, नूर अहमद, देश राज, राजकुमार, संजय, दीपक आजाद, कुमी राम, हेम राज, सूरज कुमार, गोपाल, विजय, हंस राज बैंस, देवराज सहित अन्य स्थानीय वासी मौजूद थे।
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Sunday, 1 April 2018

अंबेडकर और दलित आंदोलन का पाठ


हाल ही में आनंद तेलतुमड़े की लिखी किताब ‘अंबेडकर और दलित आंदोलन’ पढ़ी। यह किताब बाबा साहब अंबेडकर के जीवन के कुछ विशेष पहलुओं पर प्रकाश डालती है। इस पुस्तक में अंबेडकर के व्यक्तित्व के कुछ पक्षों को सामने रखा गया है जिससे उनके व्यक्तित्व को समझने में पाठक को मदद मिल सके। दलित आंदोलन के विभिन्न पक्षों को समग्रता में देखने का आग्रह पुस्तक का लेखक करता है। बिना समग्रता में देखे परखे अंबेडकर का सही मुल्यांकन संभव नहीं है। वह अंबेडकरवादियों के समक्ष व्याप्त संकटों और दलित आंदोलन की निराशा के कारणों को सपष्ट करते हुए भावी चुनौतियों को भी सामने रखते हैं। आनंद तेलतुमड़े दलित आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में राज्य, संविधान, लोकतंत्र, समाजवाद, लैंगिक समानता, मार्क्स और साम्यवाद, क्रान्ति, बौद्ध धर्म, राणनीति और कार्यनीति के पहलू, एक आदर्श की अवधारणा, दलितों के आंदोलन के लिए ‘अंबेडकर, और क्रान्तिकारी विचारक के रूप में’ अंबेडकर, पर विमर्श करते हुए दलितों के मुक्ति संघर्ष के सही रास्ते की तलाश करते हैं। यह पुस्तक समाज में मौजूद अतर्विरोधों को सर्वाधिक पीड़ित के दृष्टिकोण से देखने और उनके समाधान के लिए काम करने, भारत में एक लोकतांत्रिक क्रान्ति के लिए अंबेडकर के काम में प्रयुक्त मौलिक खाके की प्रासांगिकता और वैधता पर जोर देती है। पुस्तक का अनुवाद कृष्ण सिंह ने किया है जबकि इसे ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली ( फोन- 22025140, 65179059) ने प्रकाशित किया है।
आनंद तेलतुमड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, आलोचक और समसामयिक दलित और वामपंथी आंदोलन के विश्लेषक हैं। उनकी ताजा पुस्तकें हैः हिंदुत्व एंड दलितः पर्सपैक्टिव फॉर अंडरस्टैंडिंग कम्युनल प्रैक्सिस (संपादित) और एंटी इंपीरियलिज्म एंड एनहिलेशन ऑफ कास्ट।

अपनी किताब एंटी-इंपीरियलिज्म एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट् में उन्होंने जातियों के उन्मूलन के लिए एक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था। पहला, उन्होने पाया कि औपनिवेशिक दौर से 1960 के दशक तक पूंजीवादी हमले के तहत कर्मकांडी जातियां बहुत हद तक कमजोर हुई हैं और इसलिए एक शास्त्रीय पदानुक्रम में जातियों के बारे में बात करना निरर्थक है। समकालीन जातियों को दलितों और गैर दलितों तक समेट दिया गया है। दूसरा, जाति का अंतर्विरोध ग्रामीण क्षेत्रों में अमीर किसानों के वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा जो अधिकतर दलितों से ताल्लुक रखते हैं के बीच प्रकट होता है। ये अंतर्विरोध मुख्यतः आर्थिक हितों पर आधारित होते हैं लेकिन वे गैर आर्थिक विरोधों (सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक) अंतर्विरोधों के साथ अधिक सपष्ट होते हैं। अमीर किसान अपनी खुद की जाति के लोगों के साथ अपनी जाति के बंधनों का इस्तेमाल करते हैं जो दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच एक जाति संघर्ष में आसानी से बदल सकते हैं। तीसरा, उत्पीड़न के बढ़ते मामलों का कारण दलितों की आंतरिक कमजोरी है (जिसे अंबेडकर द्वारा बहुत पहले 1936 में चिन्हित किया गया था)। राज्य और उसके उपकरणों का धनी किसानों के साथ गठजोड़ दलितों और गैर दलितों के बीच शक्ति की इस विषमता को बढ़ाता है। यह काफी हद तक प्रभावशाली कारक है। चौथा, आमतौर पर समाज के आगे बढ़ते हुए तबकों को राजनीतिक अर्थव्यवस्था के माध्यम से, न कि सांस्कृतिक या नैतिक तरीके से, जाति की बुराई के खिलाफ लोगों को शिक्षित करने का कार्य हाथ में लेना चाहिए। यह उम्मीद की जाती है कि यह अमीर किसानों और उनकी जाति के लोगों, जो दलितों के खिलाफ उनके सैनिक बनने के लिए उनका आदेश मानते हैं, के साथ गठजोड़ को कमजोर करेगा। पांचवां, इसके बावजूद कुछ ऐसे तत्व होंगे जो इन बातों को नहीं समझते और उत्पीड़न में हिस्सा लेते हैं। उनके साथ शारीरिक रूप से निपटे जाने की जरूरत है। यहां वामपंथ के हस्तक्षेप के लिए एक अवसर और साथ ही साथ एक भूमिका सामने आती है। यदि वे दलितों के साथ अपने दल-बल के साथ शामिल होते हैं, यह आसानी से पूरा किया जा सकता है। इस प्रक्रिया का परिणाम यह होगा कि वामपंथ दलितों का विश्वास हासिल कर लेगा और फलस्वरूप जातियों के उन्मूलन की ताकतें मजबूत होंगी। इतना सा काम करिए, और आप खुद को जातियों के उन्मूलन के करीब पाएंगे।
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मंडी में बनाया जाए आधुनिक पुस्तकालयः शहीद भगत सिंह विचार मंच

मंडी। प्रदेश की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी मंडी में आधुनिक और बेहतरीन पुस्तकालय के निर्माण की मांग की गई है। इस संदर्भ में शहर की संस्...