Sunday, 25 February 2018

शिवरात्रि मेले में दी कानूनी सहायता की जानकारी





मंडी। अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव 2018 के दौरान हजारों लोगों को मुफत कानूनी सहायता के बारे में जानकारी दी गई। जिला विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव मुखय न्यायिक दंडाधिकारी अरविंद कुमार ने बताया कि शिवरात्रि महोत्सव के मौके पर पड्डल स्थिल मेला मैदान में कानूनी सेवाओं की जानकारी देने के लिए एक प्रदर्शनी लगाई गई थी। जिसका शुभारंभ जिला एवं सत्र न्यायधीश सी एल कोछड़ ने किया था। इस अवसर पर मंडी न्यायलय के सभी न्यायधीश मौजूद थे। प्रदर्शनी स्थल पर हर रोज विधिक साक्षरता शिविर आयोजित किया गया। जिसमें पैनल अधिवक्ताओं और पैरा लीगल वालंटियर ने लोगों को मुफत कानूनी सहायता के बारे में बताया। उन्होने बताया कि राज्य विधिक प्राधिकरण की ओर से आई मोबाइल वैन में लोक अदालतों का आयोजन किया गया। इसके अलावा वैन के जरिये नजदीकी ग्रामीण क्षेत्रों में भी विधिक जानकारी दी गई और पैंफलेट बांटें गए। प्रदर्शनी स्थल में आयोजित होने वाले विधिक शिविरों में अधिवक्ता समीर कश्यप, निशांत वालिया, सरवण कुमार, विशाल ठाकुर, गीतांजलि शर्मा, चंद्ररेखा, विजय भंडारी, हरित शर्मा, पैरा लीगल वालंटियर भगत राम और दया राम सहित जिला विधिक प्राधिकरण के कर्मी मौजूद रहे।
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Saturday, 17 February 2018

इतिहास के गवाक्षों से मंडी शिवरात्रि और देव परंपरा





मंडी। हर वर्ष मंडी में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव का आगाज़ हो चुका है। महोत्सव का मुख्य आकर्षण मंडी जिला के सराज, चौहार, बदार, सनोर, उत्तरसाल घाटी सहित विभिन्न छोरों से आने वाले सैंकडों देवी-देवताओं का देव समागम होता है। विगत करीब दो सौ सालों से आयोजित होने वाले इस उत्सव में हालांकि बहुत बदलाव आए हैं। लेकिन देव परंपरा का तानाबाना कमोबेश अपने आप को पुनर्उत्पादित करता लगभग वैसा ही चला आ रहा है। दरअसल इस उत्सव के जन्म लेने के दौर की पड़ताल से जाहिर होता है कि वह दौर पहाड़ी रिआसतों के अंतः और आपस में संगठन का दौर था। मंडी रियासत के राजा सूरमा सेन के उतराधिकारी के रूप में ईश्वरी सेन 1788 ए.डी में शासक बने। इस दौर में रियासत के भीतर हो रहे षडयंत्रों के चलते नाबालिग राजा ने कांगड़ा के राजा संसार चंद से सहायता मांगी। लेकिन संसार चंद ने मंडी पर हमला करके इसे लूट लिया और ईश्वरी सेन को बंदी बनाकर सुजानपुर के किले में बंद कर दिया। हालांकि कमलाह का किला जीतने में संसार चंद नाकामयाब रहा। इसके बाद संसार चंद ने बिलासपुर (कहलूर) रियासत पर हमले की तैयारी की तो बिलासपुर के राजा ने नेपाल के गोरखों से संपर्क के लिए उन्हें मदद को बुलाया। जिस पर अमर सिंह थापा के साथ स्थानीय पहाड़ी राजाओं ने संसार चंद को महल मोरियां के युद्ध में हराया और ईश्वरी सेन को उसके कब्जे से छुडाया। करीब 12 साल तक कैद में रहने के बाद राजा के वापिस आने की खुशी में रियासत के सभी क्षेत्रों के देवी देवताओं को मंडी में बुलाकर शिवरात्रि की शुरूआत हुई थी। तब से इस उत्सव की परिपाटी लगातार जारी है। जिला के विभिन्न क्षेत्रों के देवी देवता अपने रथों के साथ ढोल नगाडों के लोमहर्षक स्वरों से गुंजायमान करते हुए मंडी पहुंचते हैं और सबसे पहले मंडी के सबसे अधिपति देवता माधो राव को नमन करते हैं। माधो राव का मंदिर जिस भवन में स्थित है उसे राजा सूरज सेन (1637 ए.डी) ने बनवाया था। सूरज सेन के 18 लड़के थे लेकिन उसके जीवन काल में ही सभी की मृत्यु हो गई और उतराधिकार के लिए उन्होने एक चांदी की प्रतिमा बनवा कर इसे अपना राज्य सौंप दिया। इस प्रतिमा पर संस्कृत में उकेरा गया है कि ‘सूरय सेन, जो धरती का स्वामी है और दुश्मनों का नाशक है, ने यह दोष रहित पवित्र चक्रधारी और सभी देवताओं के गुरू महान माधो राव को भीमा सुनार से वीरवार 15 फाल्गुन 1705 को यानि 1648 ए.डी. में बनवाया है। लगभग इसी समय कुल्लू के राजा जगत सिंह ने भी अपने राज्य को रघुनाथ जी को इसी तरह सौंप दिया था। इन दोनों राज्यों में संभवतया इसी समय वैष्णव धर्म पहली बार राज्य के धर्म के रूप में घोषित हुआ और राज्याश्रय मिलने के कारण प्रभुत्व हासिल करता गया। जबकि इन दोनों ही रियासतों में हमेशा से शक्ति और शाक्त उपासकों का धर्म अस्तित्व में रहा है। मंडी के अधिष्ठाता देवता भूतनाथ हैं जो शैव परंपरा के प्रभुत्वशाली प्रतीक कहे जा सकते हैं। भले ही राज्य अपना राजकीय धर्म कुछ और घोषित कर दे लेकिन रिआया का धर्म उनकी लोक परंपराओं के अनुसार ही चलता है। मंडी की देव परंपरा के बारे में 1920 में प्रकाशित हुए पंजाब गजेटियर मंडी स्टेट में विवरण मिलते हैं। ब्रिटिश अध्येताओं ने मंडी की देव परंपरा को किस तरह से समझा इसे आपके ध्यानार्थ लाना चाहता हूं।

उपरी पहाड़ी क्षेत्र का धर्म
हिमालयन क्षेत्र में धर्म यूं तो एक विस्तृत विषय है लेकिन इसका खाका कुछ मुख्य लक्षणों से दिया जा सकता है। इसमें मुख्य तत्व निःसंदेह कुल देवता या परिवार का देवता है और इसलिए यह दुर्भाग्यपुर्ण है कि देवता का आम अनुवाद जादू-टोले की क्रियाएं करने वाले देवता के रूप में ले लेने से उसके द्वारा पहाड़ों की धार्मिक व्यवस्था में निभायी जाने वाली महत्वपुर्ण भूमिका असपष्ट और धुंधली हो जाती है। यह सही है कि देवता का शाब्दिक अर्थ छोटा भगवान ही है। लेकिन इसका प्रयोग तिरस्कृत अर्थ में जादू टोना के क्रियाकलाप से संबंधित देवता के रूप में नहीं होता। बल्कि यह छोटे देवता जिसका धर्म पैतृक देवता के गिर्द केन्द्रित होता है और वह उन बड़े देवों से भेद करता है जो आम लोगों की रोजमर्रा की पूजा से बहुत दूर कर दिये जा चुके हैं। इन पैतृक देवताओं का क्षेत्राधिकार व्यक्तिगत और भौगोलिक दोनों ही होता है। प्राचीन समय से अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले गांव, गांवों के समुह और घाटी में वह अपने प्रभुत्व और अधिकार का प्रयोग करते हैं। इतना ही नहीं वह अपनी प्रजा के पुरूष उतराधिकारियों पर प्राधिकार का दावा भी करते हैं। देवता लोगों को अपनी प्रजा या रिआया मानता है। इससे उसका भक्तों के साथ के संबंधों का सही अनुमान लगाया जा सकता है। पहले यज्ञोपवीत के समय से ही परिवार का पुरूष सदस्य उनका अनुगामी बन जाता है। जबकि स्त्री उस समुदाय में शादी करने के बाद देवता की प्रजा बन जाती है। वंशानुगत प्रजा के सदस्य का निवास स्थान बदल जाने से भी वह देवता की सेवा से मुक्त नहीं हो सकता। उसे तब भी अपने परिवार के देवता के प्रति अपने कर्तव्य निभाने होते हैं। हालांकि वह नए घर के स्थानीय देवता को भी मान सकता है। देवता के भक्तों का यह दायित्व होता है कि वह अनाज या पैसों से देवता की पूजा के लिए होने वाले खर्चे में अपना योगदान करे। देवता के आदेशों के आज्ञाकारी होने के नाते विशेष मौकों पर परिवार के एक पुरूष सदस्य का उपस्थित होना जरूरी होता है। इसके बदले में उन्हें मंदिर के प्रबंधन के कार्यों के बारे में बोलने का, देवता के पास जाने का और सामुदायिक पर्वों में भाग लेने का हक होता है।
मंडी में स्थानीय देवता कई बार अधिपति देवता के अधीनस्थ होते हैं और वह रियासत कालीन राष्ट्रीय देवता माधो राव की प्रजा समझे जाते हैं। शिव और काली की कृपादृष्टि से यह देवता ताकत अर्जित करते हैं। पराशर और कमरूनाग भी अधिपति देवता की तरह ही हैं। इनके अंतर्गत अनेकों देवता हैं जो उनके प्रतिनिधी देवता समझे जाते हैं। इन प्रतिनिधी देवताओं के पास उनकी प्रजा सामान्य अवसरों पर आती है। लेकिन प्रतिनिधी देवता और उनकी प्रजा अधिपति देवता के पास होने वाले मेलों, त्योहारों में भाग लेती है। पराशर में यज्ञोपवित की रस्म मंदिर में होती है तो वहीं पर उनके प्रतिनिधी देवताओं के मंदिरों में भी यह रस्म आयोजित होती है। अधीनस्थ देवता किसी नए श्रद्धालु को शामिल कर सकता है। नयी प्रतिमा बनाने पर इनमें जीवन डालने के लिए इसे देवता के रथ पर रखा जाता है।
हर देवता के अध्यात्मिक मंत्री – वजीर, द्वार-पाल और कोतवाल आदि होते हैं। इनमें से वजीर की भूमिका कई बार बहुत महत्वपुर्ण होती है। उसके मंदिर में कई बार अधिपति देवता से ज्यादा मन्नतें मांगी जाती हैं और ज्यादा भेंट चढ़ावा चढ़ता है। लोगों के अनुसार इसका कारण यह है कि उनमें यह मान्यता है कि आम कार्यों को करना वजीर का काम है और इन छोटे मोटे कार्यों से अधिपति देवता को छूट दी जाती है।

पारिवारिक देवताओं की प्रकृति
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंडी के अधिकांश ग्रामीण देवता तमाम पश्चिम हिमालय की तरह नाग समूह से संबंध रखते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से नाग कहे जाएं। हालांकि कुछ हैं जिनके नाम से ही उनकी प्रकृति उदघाटित हो जाती है। नाग देवता के लिए नरैण या नारायण नाम का प्रयोग होता है। जबकि इसी संप्रदाय के अन्य देवता हिंदू देवताओं के नाम का छ्द्म वेष धारण किए भी मिल जाते हैं। कई बार उनकी असली पहचान पता करना मुश्किल हो जाता है लेकिन उनसे संबंधित मिथकों से उनके जन्म का रहस्योद्घाटन होता है। प्राचीन समय में भगवान कैसा है और उसका चरित्र क्या है के बारे में जब लोगों को खुले संदेह थे तो एक प्रारंभिक कल्पना थी कि वह नाग के प्रकार का होगा और नाग उपासना उस समय दूर-दूर तक फैली हुई थी। हालांकि नाग उपासना के प्रारंभ होने के बारे में अलग-2 सिद्धांत हैं। लेकिन यह दृढ़तापुर्वक निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिमालय में पुरातन समय से नाग की उपासना नदी के प्रतीक के रूप में और पानी के नियंत्रक के रूप में की जाती रही है। नाग आज भी पहाडों में मौसम के देवता, झरनों, नदियों-नालों, झीलों और जल स्त्रोंतों के सृजक और संरक्षक माने जाते हैं। क्या जीवित नाग की पूजा से नदी का प्रतीक मानने को स्वीकार्यता मिली? इस प्रश्न के संबंध में निश्चित रूप से जवाब नहीं दिया जा सकता। लेकिन यह संभव है कि सरीसृप के स्वभाव ने संप्रदाय के विकास को प्रभावित किया होगा। इसलिए सभी पानी के स्त्रोतों से इसका संबंध अतुलनीय रूप से महत्वपुर्ण लक्षण है। इसके अलावा अन्य विशेषताएं भी हैं जो नाग उपासना को समर्पित की जा सकती हैं।
नाग और लिंग पूजा शिव और काली की उपासना का वर्णन करती है। इनका बहुत अंतरंग संबंध है और कोई कह सकता है कि पैतृक देवता दोनों में से एक या दूसरे सहयोगी की स्थानीय अभिव्यक्ति है। शिव के रूप में जिन्होने शैव शीर्षक धारण कर लिया है उन्हें शुद्ध और साधारण नागों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। जबकि देवियों के संदर्भ में ऐसा नहीं है। हालांकि वह नाग संप्रदाय से संयोजित और घनिष्ठ संबंध में मिलती हैं लेकिन वह अलग देवता के रूप में कल्पना की गई जाहिर होती हैं।
पैतृक देवताओं में से अधिकांश उपरोक्त दोनों समुहों के अंतर्गत आ जाते हैं। हालांकि विभिन्न प्रकृति के अन्य देवता कभी कभार ही सामने आ सकते हैं क्योंकि अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में कुल के देवता के एक विभिन्न श्रेणी के देवता में बदलने के लिए बहुत शक्तिशाली कारण और आधार चाहिए होता है। कई बार यह सिद्धांत प्रतिपादित किया जाता है कि इनमें से अधिकांश देवता हिंदू पौराणिक कथाओं के ऋषि या संत रहे हैं। विसंगतिपुर्ण और असंगत होने के कारण इसे खारिज किया जाना चाहिए।
देवता के प्रतीक
मंदिर में लगभग सभी जगह पत्थर की पिंडी या लिंग होता है जो संभवतया प्राचीन प्रतिमा मानी जाती है। लेकिन अब देवता के मंदिर के बाहर जाने और दिखने वाले प्रतीक के रूप में देवता के रथ का प्रयोग होता है। रथ के दो भाग होते हैं। प्रतिमा और दो लकड़ी के पोल (जिन्हें स्थानीय भाषा में आगलियां) जिस पर प्रतिमा उठायी जाती है। यह पोल अक्सर सिल्वर बर्च (भोजपत्र) की बहुत लचीली लकड़ी से बनाए जाते हैं। मुख्य प्रतिमा सोना, चांदी और तांबा धातु के पंक्तिबद्ध मोहरों से बनी होती है। देवता का रथ अधिकांशतया आदमकद होता है और सामान्य तौर पर देवता का प्रतिनिधित्व करता है। त्योहारों के अवसर पर देवता जब रथ के रूप में सामने आता है तो प्रतिमा को कीमती कपडों, आभूषणों और फूलों से सजाया जाता है। अक्सर रथ के उपर कपडे या याक के बालों की छतरी होती है लेकिन मंडी के कुछ देवी-देवता इससे अलग शैली में होते हैं और उनके रथ की प्रतिमा गोलाकार होने के बजाय तिकोनी या पिरामिडिकल होती है। प्रतिमा के बीच से गुजरे लकडी के पोलों को देवता के प्रमुख श्रद्धालुओं द्वारा कंधे पर उठाया जाता है। रथ को कंधे पर उठाने वाले को उस देवता के समाज के समुह का पुरूष सदस्य होना जरूरी है। रथ को कंधे पर उठाने वाले अक्सर हाथों में बिना उंगलियों के दस्ताने पहनते हैं क्योंकि जब देवता की आत्मा हलचल करती हुई और प्रतिमा को एक ओर से दूसरी ओर को पलटती है उछालती है तो रथ के साथ चलने वाले सहायक इसका संतुलन साधने की कोशीश करते हैं लेकिन अक्सर इससे रथ उठाने वालों के हाथ छिल जाते हैं। हरेक देवता के अपने वाद्य यंत्र होते हैं। ढोल, नगाडे और झांझ बजाने वाले हमेशा तो नहीं पर अक्सर निम्न जाति के होते हैं जबकि करनाल, तुरही बजाने वाले हमेशा कनैत या कृषक ब्राह्मण होते हैं।
देवता की आत्मा की जीवशक्ति का संकेत रथ का कंपन और दोलन है। रथ को उठाने वाले इसके प्रभाव में होते हैं और उनकी हल्की से हरकत रथ को पता लग जाती है और देवता ऊपर-नीचे होकर नाचने लगते हैं दोनों ओर लचकते हुए झूमने लगते हैं और अचानक तेजी से आगे बढ़ते हैं क्योंकि उससे प्रेरणा पाने वाले सेवक अपने ऊपर मजबूत होती आत्मा की ताकत को अनुभव करते हैं। कुछ श्रद्धालु दैविय उत्प्रेरणा के कारण मानो जड़वत हो जाते हैं और कुछ देवता की प्रेरणा के कारण प्रतिमा के सामने कांपने, उछलने और चीखने लग जाते हैं। जब एक से अधिक देवता मौजूद हो तो एक दूसरे को हमेशा सम्मान देते हैं। ऐसे अवसरों में आत्मा विशेष रूप से तीव्र होती है और दोनों देवता खुशी की भावना में एक दूसरे को नमन करते हैं। गांव के त्योहारों में तथा अन्य अवसरों पर देवता और उनके श्रद्धालु इकट्ठा होकर नृत्य करते हैं। रथ और वाद्य यंत्र बजाने वाले बजंतरी बीच में नृत्य करते हैं जबकि गूर या अन्य रथ उठाने वाले अधिकारी की अगुवाई में समुह के सदस्य उनको घेरकर नृत्य करते हैं।

भविष्यवाणियां

देवता का मानवीय माध्यम उसका गूर या भविष्यवक्ता होता है और वह देवता की तरफ से बात करता है। गूर असली ताकत का दावा नहीं करता बल्कि वह अपनी शक्ति पूरी तरह से देवता से प्राप्त करता है। जिसके बगैर उसकी अपनी प्रेरणा कोई मदद नहीं कर सकती। मंडी में उसका कार्य आमतौर पर वंशानुगत होता है लेकिन कई बार अपवाद भी होते हैं। लेकिन सभी मामलों में देवता ही अपने माध्यम का चुनाव करता है। बेटा तब तक उतराधिकारी नहीं बन सकता और जब तक पिता को इस पद से वापिस नहीं बुला लिया जाता और वापिस बुला लेने की इस प्रक्रिया में आमतौर पर कई महीने लग जाते हैं। देवता द्वारा बुलाये जाने की प्रक्रिया में अचानक उस पर अधिपत्य हो जाता है और पहला उद्वेग अक्सर उग्र तरीके का होता है। नया गूर भेड़ या बकरे की बलि देता है और उसका रक्त पीता है जिससे वह देवता के नजदीकी संपर्क में जा सके। उसे देवता की देवदार की लकड़ी से बनी चौकी जो बाधा डालने वाले प्रभावों से अवरोधी का कार्य करती है पर औपचारिक रूप से स्थापित किया जाता है। इस पर बैठकर उसे देवता की जिह्वा से सुंदर वचन कहने की अनुमति मिल जाती है। जहां देवता के गूर का पद वंशानुगत नहीं होता वहां पर देवता द्वारा की जाने वाली भविष्यवाणियों के विभिन्न तरीकों में से किसी तरीके का प्रयोग करके नया गूर चयनित किया जाता है। लेकिन यह कल्पना हमेशा संरक्षित की जाती है कि गूर देवता के द्वारा चुना हुआ वाहक होता है।
अधिकांशतया कनैत ही गूर होते हैं लेकिन ग्रामीण ब्राह्मण भी कई बार इस पद पर चुने जाते हैं और कभी कभार कोली भी चयनित होते हैं। कनैतों के पारिवारिक देवता का गूर कोली होने से देवता की मूल प्रकृति के बारे में निष्कर्ष निकालना न्यायोयित नहीं माना जा सकता। गूर का पद खाली होने के दौरान किसी निम्न जाति के व्यक्ति का अचानक उद्वेग में आना उसकी नियुक्ति के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।
एक वर्ग के रूप में गूर कुछ वर्जनाओं के तहत कार्य करता है। उन्हें पद पर रहने के दौरान अपने बाल नहीं काटने होते हैं। वह चपड़े के जूते नहीं पहन सकते और जमीन पर हल चलाने या खेती-बाड़ी का काम नहीं कर सकते। कुंवारापन या ब्रह्मचर्य सामान्य नियम नहीं है लेकिन देवता से जरूरी परामर्श करने से पहले व्रत और परहेज रखा जाता है। गूर अपनी भविष्यवाणी नंगे सिर देता है और मंडी के कुछ भागों में छाती भी खुली रखी जाती है लेकिन यह रस्में अलग-2 जगह अलग हैं। कुछ गूर भविष्यवाणी करने से पहले अपने आप को लोहे के जंजीरों से पीटते हैं जबकि अन्य लोहे की सलाई को गालों में से गुजारते हैं। भारी जोश और उतेजना के बीच गूर और सामान्य श्रद्धालु आग पर कूदते हैं मशालें छीन लेते हैं। वह अपने आप को देवता का अस्थाई अवतार समझते हैं और उस समय उन्हें देवता ही माना जाता है।
इस तरह की उत्प्रेरणा अचानक उद्वेग से काफी भिन्न है जो कई बार आलौलिककरण का संकेत देता है लेकिन बहुतया यह अप्रसन्नता या दोष व दुश्मनी को इंगित करता है। भूत के अप्रत्याशित प्रकटन के लिए पीडित का ईलाज किया जाता है और अगर यह अनिष्ट करने वाली साबित होती है तो बुरी आत्मा के लिए या तो झाड-फूंक या शांति के लिए प्रयत्न किए जाते हैं।

हिमालय के भविष्यवक्ताओं या गूरों ने शक्ति प्राप्त करने की वह स्थिती हासिल नहीं की है जो उनके कार्यों की प्रकृति को देखते हुए होनी चाहिए। ब्राह्मणों के वर्चस्व से बचाने में पहाड़ी आदमी काफी चालाक और स्वतंत्र हैं और वह अपने ही पुजारियों के हाथ में पड़ना चाहते हैं। गूर का पद लाभकारी नहीं होता और न ही यह अपनी तरह की कठिनाइयों के बगैर होता है। अगर देवता की व्यवस्था प्रजा को संतुष्ट करने में असफल होती है तो इसका दोष देवता को नहीं दिया जा सकता बल्कि यह उसके मानवीय प्रवक्ता का होता है। अगर गूर अपने तौर तरीकों को ठीक नहीं करे तो उसे पद खाली करना होता है। गूर के कपट को जांचने के लिए चालाकी से नियंत्रण रखा जाता है। गूर का कार्य देवता के फैसलों को संप्रेषित करना और संदेश की दैविय उत्पति सुनिश्चित करना है। जबकि कई बार वह संप्रेषित किए जा रहे फैसले की प्रकृति को नजरअंदाज कर देता है। उदाहरणतया, एक आदमी रोग से ग्रस्त हो गया और उसने देवता से इसके कारणों के बारे में परामर्श किया। इस मामले में या तो कोई डायन, चुडैल या बुरी आत्मा हो सकती है या फिर किसी देवता की दुश्मनी। इसलिए वह मिट्टी के तीन एकसमान गेंद बनाता है। पहले में वह डायन या चुडैल के लिए घास का एक टुकडा डालता है। जबकि दूसरे में भूत-प्रेत या बुरी आत्मा के लिए लकडी का टुकडा और तीसरे में देवता के लिए थोडा सा अन्न डाला जाता है। इसके बाद उत्प्रेरण के आवेश में बाहर इंतजार कर रहे गूर को बुलाया जाता है जो अपना हाथ एक गेंद पर रखता है। वह इसके बाद फिर से बाहर चला जाता है और गेंदों को फिर से अलग रूप में पंक्तिबद्ध किया जाता है। अगर एक ही गेंद को तीन बार छुआ जाता है तो इससे मामले की पूरी तरह से पहचान कर ली जाती है। इस तरह की योजनाओं से बहुत निश्चित सीमाएं उस हद तक बांध दी जाती है जिससे व्यवसायिक माध्यम अपने यजमानों को धोखा दे सकें। इसके अलावा देवता तक पहुंच बनाने के सीधे तरीके भी हैं। जैसे कि उदाहरण के लिए पड़ोसी से विवाद हो जाने के मामले में अपनी नीयत जाहिर करने और इसमें अपने लिए कोई वरदान या कसम इच्छित की जाती है।




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Friday, 9 February 2018

एक थी रानी खैरीगढ़ी...




एक थी रानी खैरीगढ़ी उपन्यास का पाठ हाल ही में पूरा हुआ। स्वतंत्रता संघर्ष की एक ऐतिहासिक गाथा के रूप में लेखक गंगा राम राजी ने इस उपन्यास का विन्यास किया है। देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन से पहाड़ भी अनभिज्ञ नहीं थे। बल्कि वह तो देश भर के विभिन्न हिस्सों में चल रहे संग्राम का अभिन्न हिस्सा थे और उन्होने भी अपने स्तर पर सक्रिय भूमिका अदा की थी। उपन्यास के बहाने यह पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम का एक दस्तावेज बनकर भी उभरती है। दरअसल रानी खैरगढ़ी के नाम से लगभग हर मंडी वासी परिचित भली भांती परिचित है। लेकिन किसी ऐतिहासिक पात्र के बारे में लिखने के लिए भारी शोध की जरूरत होती है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि पुस्तक के लेखक ने श्रमसाध्य कार्य करते हुए ऐतिहासिक विवरणों के साथ पात्रों का खूबसूरत प्रयोग किया है। रानी खैरीगढ़ी जिसे मंडी वासी खैरगढ़ी कहते हैं के बहाने इस पुस्तक में मंडी रियासत के इतिहास में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान घटित घटनाओं और आंदोलन में शामिल कान्तिकारियों के बारे में बहुमुल्य जानकारियां मिलती हैं। लेखक ने अपनी शोध दृष्टि के चलते घटनाओं की बाकायदा तिथियां उजागर करते हुए उस समय के दौर को तथ्यात्मक रूप से सामने लाया है। मंडी के राजा विजय सेन के पुत्र भवानी सेन इस रियासत के पहले पढे लिखे राजा थे। रानी खैरगढ़ी जो खैरागढ़ (उतर प्रदेश) से संबंध रखती थी उनकी तीसरी रानी बनी। इस पढी लिखी रानी के मंडी आने पर उन्होने अंग्रेजों व स्थानीय बजीर के शोषण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। सरकाघाट के टिकरी गांव के शोभा राम के बलवे के समय भी उन्होने मंडी के राजा को प्रजा के दुखदर्द की ओर ध्यान देने और शोभाराम से बात करने को कहा था। शोभाराम का 20 हजार लोगों के साथ मंडी आना और वजीर को जेल में डाल देने का घटनाक्रम हो या अन्य कान्तिकारियों सिधु खराडा, हरदेव, हिरदा राम आदि से पुस्तक में पात्रों के रूप में मिलना एक बहुत खूबसूरत अनुभव है। गदर पार्टी के डा. मथुरा सिंह और गदर पार्टी के समाचार पत्रों का वितरण, मंडी के तल्याहड के नजदीक बम बनाना, पंजाब के क्रान्तिकारियों को बम भेजना, नागचला में राजकोष को लूटने की योजना, क्रान्तिकारियों का पकडे जाना, उन्हे सजा होना और रानी को रियासत से निष्कासित करने के घटनाएं मानो सचित्र सामने आ जाती हैं। हाल में पढ़ा गया यह मेरा तीसरा उपन्यास है। इससे पहले चीनी लेखिका यांग मो का तरूणाई का तराना और फ्रांस के लेखक स्तान्धाल का यथार्थवादी उपन्यास सुर्ख और स्याह पढ़ चुका हुं। इन दोनों विश्व साहित्य की कृतियों को पढते हुए मुझे अनुभव हुआ कि उपन्यास लेखक किसी काल विशेष के घटनाक्रम को पात्रों के माध्यम से सामने रखता है। जिसमें उस काल विशेष के दौर का शब्दों के माध्यम से चित्रण किया होता है और इन शब्दों की उष्मा ऐसी होती है कि मानो कोई चलचित्र पन्नों पर चल रहा है। इन दोनों उपन्यासों सहित इस तीसरे उपन्यास मेें भी मुझे उपन्यास लेखन की यह सब विशेषताएं मौजूद मिली। मुझे अनुभव हुआ कि उपन्यास एक ऐसी विधा है कि जब पुस्तक को हाथ में थाम लिया जाए तो पन्ने कहते हैं कि अभी न जाओ छोड़ कर कुछ और पन्ने पढ लो, मतलब पुस्तक को छोडने का मन नहीं करता लेकिन समय की जरूरतों को देखते हुए पुस्तक के पढ़े हुए पन्नों के बीच पेंसिल को छोड कर इसे अपने से दूर हटाना ही पड़ता है। एक थी रानी खैरीगढ़ी के लेखक गंगा राम राजी को मंडी रियासत की ओर से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान के ऐतिहासिक संदर्भों को पुस्तक में समेटते हुए भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए धन्यावाद, आभार, शुक्रिया और सलाम। पुस्तक के सुंदर प्रकाशन के लिए नमन प्रकाशन और पुस्तक को मुझे पढ़ने के लिए सुलभ करवाने हेतु पिता जी श्री दीनू कश्यप का आभार।
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मक्सिम गोर्की के उपन्यास माँ का पाठ




मक्सिम गोर्की के प्रसिद्ध उपन्यास माँ को एक बार फिर से पढ़ा। इससे पहले कालेज के दिनों में माँ को पढ़ा था। पुस्तक का पाठ करते हुए कुछ अंशों ने झकझोरित किया। जिन्हें आपके साथ शेयर कर रहा हूँ।

-हमारे बच्चे दुनिया में आगे बढ़ रहे हैं। वे सारी दुनिया में फैल गए हैं और दुनिया के कोने-कोने से आकर वे एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। जिन लोगों के हृदय सबसे शुद्ध हैं, जिनके मस्तिष्क सबसे श्रेष्ठ हैं वे पाप के ख़िलाफ बढ़ रहे हैं और झूठ को अपने ताकतवर पाँवों तले कुचल रहे हैं। वे नौजवान हैं और स्वस्थ हैं और उनकी सारी शक्ति एक ही लक्ष्य – न्याय – को प्राप्त करने के लिए, व्यय हो रही है। वे मनुष्य के दुख को मिटाने के लिए, इस पृथ्वी पर से विपदा का नाम-निशान मिटा देने के लिए और कुरूपता पर विजय प्राप्त करने के लिए मैदान में उतरे हैं – और विजय उनकी अवश्य होगी। जैसाकि किसी ने कहा है वे एक नया सूर्य उगाने के लिए निकले हैं और वे इस सूर्य को उगाकर रहेंगे। वे टूटे हुए दिलों को जोड़ने के लिए निकले हैं और वे उन्हें जोड़कर रहेंगे।
सच्चाई और न्याय के पथ पर चल रहे हैं, लोगों के हृदय में एक नये प्रेम का संचार कर रहे हैं, उन्हें एक नये स्वर्ग का चित्र दिखा रहे हैं और पृथ्वी को एक नयी ज्योति से आलोकित कर रहे हैं – आत्मा की अखण्ड ज्योति से। इसकी न्यी ज्वाला से एक नये जीवन का उदय हो रहा है, यह जीवन समस्त मानवता के प्रति हमारे बच्चों के प्रेम से उत्पन्न हो रहा है। इस प्रेम की ज्योति को कौन बुझा सकता है? कौन सी शक्ति इसे नष्ट कर सकती है और इसका मुकाबला कर सकती है? इस प्रेम को पृथ्वी ने जन्म दिया है और स्वयं जीवन उसकी विजय के लिए लालायित है – स्वयं जीवन।
- ऐसा मालूम होता है कि जैसे मनुष्य के लिए एक नये ईश्वर का जन्म हुआ हो। हर चीज़ सब के लिए सब एक-दूसरे के सुख-दुख के साझेदार। मैं तो इसे इसी ढंग से समझती हूँ। वास्तव में ही तुम लोग साथी हो, सब एक खून के रिश्ते से बँधे हो, सब एक ही माँ की सन्तान हो और वह माँ है सत्य। पेलागेया निलोवना (माँ)
- हम समाजवादी हैं। इसका मतलब है कि हम निजी सम्पति के ख़िलाफ़ हैं, निजी सम्पति की पद्धति समाज को छिन्न-भिन्न कर देती है, लोगों को एक-दूसरे का दुश्मन बना देती है, लोगों के परस्पर हितों में एक ऐसा द्वेष पैदा कर देती है जिसे मिटाया नहीं जा सकता, इस द्वेष को छुपाने के लिए या न्याय-संगत ठहराने के लिए वह झूठ का सहारा लेती है और झूठ, मक्कारी और घृणा से हर आदमी की आत्मा को दूषित कर देती है। हमारा विश्वास है कि वह समाज, जो इंसान को केवल कुछ दूसरे इंसानों को धनवान बनाने का साधन समझता है, अमानुषिक है और हमारे हितों के विरूद्ध है। हम ऐसे समाज की झूठ और मक्कारी से भरी हुई नैतिक पद्धति को स्वीकार नहीं कर सकते। व्यक्ति के प्रति उसके रवैये में जो बेहयाई और क्रूरता है उसकी हम निन्दा करते हैं। इस समाज ने व्यक्ति पर जो शारीरिक और नैतिक दासता थोप रखी है, हम उनके हर रूप के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते हैं और लड़ेंगे, कुछ लोगों के स्वार्थ और लोभ के हित में इंसानों को कुचलने के जितने साधन हैं हम उन सबके ख़िलाफ़ लड़ेंगे। हम मज़दूर हैं, हम वे लोग हैं जिनकी मेहनत से बच्चों के खिलौनों से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनों तक दुनिया की हर चीज़ तैयार होती है, फिर भी हमें ही अपनी मानवोचित प्रतिष्ठा की रक्षा करने के अधिकार से वंचित रखा जाता है। कोई भी अपने निजी स्वार्थ के लिए हमारा शोषण कर सकता है। इस समय हम कम से कम इतनी आजादी हासिल कर लेना चाहते हैं कि आगे चलकर हम सारी सत्ता अपने हाथों में ले सकें। हमारे नारे बहुत सीधे-सादे हैः निजी सम्पति का नाश हो – उत्पादन के सारे साधन जनता की सम्पति हों – सत्ता जनता के हाथ में हो – हर आदमी को काम करना चाहिए। अब आप समझ गये होंगे कि हम विद्रोही नहीं हैं।
अदालत में पावेल के भाषण का अंश
- परिवार बसा लेने से क्रान्तिकारी की शक्ति निचुड़ जाती है – इससे उसे कोई मदद नहीं मिल सकती। बच्चे, तंगदस्ती, बाल-बच्चों का पेट पालने के लिए काम करने की ज़रूरत। क्रान्तिकारी को अपनी शक्ति बचाकर रखनी चाहिए ताकि ज़्यादा काम कर सके। यह वक़्त का तकाजा है। - हमें हमेशा सबसे आगे चलना चाहिए, क्योंकि हम व मज़दूर हैं जिन्हें इतिहास ने पुरानी दुनिया को बदलकर उसकी जगह एक नयी दुनिया बनाने के लिए चुना है। अगर हम पीछे रह जायें, थककर या अपनी किसी छोटी-सी विजय पर सन्तोष करके बैठे रहें, तो हम एक ऐसे अपराध के दोषी होंगे जो अपने लक्ष्य के साथ विश्वासघात से कम नहीं है। कोई दूसरा ऐसा नहीं है जिसके साथ हम अपने ध्येय को हानि पहुँचाये बिना चल सकें, और हमें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा लक्ष्य कोई छोटी-मोटी जीत नहीं, बल्कि पूर्ण विजय है।
निकोलाई की माँ से बातचीत
- मुमकिन है कि मैं जो कुछ कह रहीं हूँ वह आपको बेवकूफ़ी की बातें मालूम हो रही हों, लेकिन मैं यह यकीन करती हूँ कि ईमानदार लोग अमर होते हैं, मैं समझती हूँ कि जिन लोगों ने मुझे यह शानदार जीवन बिताने का सुख दिया है वे अमर हैं – ऐसा जीवन जो अपनी आश्चर्यजनक जटिलता से, अपने विभिन्न रूपों के वैविध्य से और उन विचारों के विकास से जो मुझे अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं, मुझे रोमाचित कर देता है। शायद हम लोग अपनी भावनाओं को बहुत सम्भालकर रखते हैं। हम लोग अपने विचारों को बहुत ज़्यादा महत्व देते हैं, इसलिए हमारा व्यक्तित्व पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। हम चीज़ों को अनुभव करने के बजाय उनकी मीमांसा करने लगते हैं
साशा का माँ, निकोलाई और सोफिया से वार्तालाप
- नताशा तुम सच कहती हो। माँ ने कुछ सोचते हुए कहा। लोग इस उम्मीद में ज़िन्दा रहते हैं कि आगे चलकर उनका जीवन बेहतर होगा, लेकिन अगर भविष्य के लिए कोई आशा न हो तो फिर किस काम की ऐसी ज़िन्दगी? और माँ ने लड़की का हाथ थपककर कहा, तो अब तुम अकेली रह गयी? बिल्कुल अकेली। नताशा ने लापरवाही से कहा। कोई बात नहीं। माँ ने थोड़ी देर बाद मुस्कराकर कहा। अच्छे लोग ज़्यादा दिन तक अकेले नहीं रहते – कोई न कोई उनके साथ हो ही जाता है।
- यह तो मैंने भी देखा। उक्रइनी ने उचाट स्वर में कहा। शासकों ने लोगों के दिमागों को ज़हरीला बना दिया है। जब जनता जाग उठेगी तब वह हर चीज़ को ढा देगी। उसे तो बस साफ़ ज़मीन चाहिए, अगर वह साफ़ नहीं होगी तो जनता उसे साफ़ कर देगी। वह हर चीज़ को जड़ से उखाड़ फेंकेगी।
- यह है हमारी ज़िन्दगी। देखती हो लोगों को किस तरह एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया गया है? मर्जी न होते हुए भी लोग किसी को मार देते हैं। और जिसे मारते हैं वह कौन होता है? कोई बेचारा मजबूर, जिसे ख़ुद भी हमसे ज़्यादा अधिकार नहीं होते। वह तो हमसे भी ज्यादा अधिकार नहीं होते। वह तो हमसे भी ज़्यादा अभागा होता है, क्योंकि वह बेवकूफ़ भी होता है। पुलिस, राजनीतिक पुलिस और जासूस सब हमारे दुश्मन हैं। लेकिन वे सब हमारे ही लोग हैं, जिनका ख़ून हमारी ही तरह चूस लिया जाता है और जिन्हें हमारी ही तरह तिरस्कार से देखा जाता है। हम सब एक जैसे हैं। लेकिन हमारे मालिकों ने लोगों को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है, उन्हें भय और दुनिया-भर की खुराफात से अन्धा बना दिया है, उनके हाथ-पाँ बाँ दिए हैं, निचोड़-निचोड़कर उनका ख़ून चूस लिया है, और वे उन्हें एक-दूसरे को मारने और कुचल देने पर मजबूर करते हैं। उन्होंने लोगों को बन्दूक, डण्डा और पत्थर बना दिया है, और कहते हैं, यही राज्यसत्ता है...
माँ, यह अपराध है। लाखों लोगों को इस तरह बेरहमी से मार डालना, मनुष्य की आत्मा को कुचल देना...समझ में आता है तुम्हारी? ये लोग आत्मा के हत्यारे हैं। तुम उनमें और हममें अन्तर देखती हो? जब हम किसी को मारते हैं तो वह घृणा, लज्जा और कष्ट की बात होती है – सबसे बढ़कर घृणा की। लेकिन वे पलक झपकाये बिन, बेरहमी के साथ, किसी संकोच के बिना हज़ारों लोगों को जान से मार देते हैं और बिल्कुल सन्तुष्ट रहते हैं. लोगों को इस तरह कुचलकर रख देने का उनके पास बस एक बहाना यह है कि वे अपने सोने-चाँदी, अपनी हुँडियों और उन तमाम मनहूस चीज़ों की रक्षा करना चाहते हैं जिनकी सहायता से वे हमें गुलाम बनाते हैं। ज़रा सोचा – जब वे लोगों को जान से मारते हैं और उनकी आत्माओं को कुचलकर रख देते हैं तो वे अपनी जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी जायदाद बचाने के लिए ऐसा करते हैं। उन चीज़ों को बचाने के लिए जो मनुष्य के अन्दर नहीं बल्कि मनुष्य से बाहर होती है...
जासूस इसाई की हत्या की सूचना मिलने पर पावेल का माँ और उक्रइनी से वार्तालाप
- यही छोटे-छोटे मोटी तोंदवाले लोग सबसे बड़े पापी हैं और यही सबसे ज़हरीली जोंकें हैं जो जनता का ख़ून चूस रही हैं। पीसीसियों ने इन्हें बुर्जुआ का नाम ठीक ही दिया था...इस बात को याद रखना, माँ...बुर-जुआ, क्योंकि वे बिल्कुल जुए के समान हैं, जिन-जिन लोगों के भोलेपन का वे फ़ायदा उठा सकते हैं उन पर वे वार करते हैं और उनका ख़ून चूसते हैं...
तुम्हारा मतलब है कि यह सब कुछ पैसेवाले करते हैं? माँ ने पूछा।
हाँ। यह उनका दुर्भाग्य है कि वे पैसेवाले हैं। अगर बच्चे के खाने में तांबा मिलाते रहो तो उसकी हड्डियों की बाढ़ मारी जाती है और बच्चा बौना रह जाता है, लेकिन जब किसी आदमी को सोने का ज़हर दिया जाता है, तो उसकी आत्मा बौनी रह जाती है – छोटी और गन्दी और बेजान, रबर की उन गेंदों की तरह जो बच्चे पाँच-पाँ कोपेक की ख़रीदते हैं...
पावेल और माँ का वार्तालाप
- इस दुनिया में कोई भी ऐसा है जिनका दिल कभी न दुखा हो? उक्रइनी उठा और सिर हिलाते हुए मुस्कराकर बोला। मुझे इतना दुख दिया गया है कि मैंने अब ध्यान ही देना छोड़ दिया है। जब लोग हैं ही ऐसे तो हो ही क्या सकता है? अगर आदमी इन सब बातों की तरफ़ ध्यान देने लगे तो उसके काम में हर्ज होने के अलावा कुछ नहीं होता और इन बातों पर कुढ़ना अपना वक़्त ख़राब है। ज़िन्दगी का ढंग ही कुछ ऐसा है। पहले मैं भी लोगों से नाराज़ हो जाया करता था, लेकिन फिर मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि यह सब बेकार है। हर आदमी डरता है कि उसका पड़ोसी उसे खा जायेगा, इसलिए वह पहले खुद ही उस पर वार करना चाहता है। मेरी माँ, ज़िन्दगी का ढंग ही ऐसा है।
- आपमें से जो लोग कहते हैं कि हमें हर बात जाननी चाहिए वे ठीक हैं। हमें अपने अन्दर ज्ञान की ज्योति जगानी चाहिए, ताकि वे लोग जो अँधेर में भटक रहे हैं वे हमें देख सकें। हमारे पास हर चीज़ का सच्चा और ईमानदार जवाब होना चाहिए। हमें पूरी सच्चाई और पूरे झूठ की जानकारी होनी चाहिए...
- तो तुम करना क्या चाहते हो? माँ ने उसकी बात काटकर पूछा।
पहले ख़ुद पढूँगा और फिर दूसरों को पढ़ाऊँगा। हम मज़दूरों को पढ़ना चाहिए। हमें इस बात का पता लगाना चाहिए और इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारी ज़िन्दगी में इतनी मुश्किलें क्यों हैं।
यह पुस्तक परिकल्पना प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इसे हासिल करने के लिए जनचेतना के साथी Manan Vij, Namita, Manav से संपर्क किया जा सकता है या इसे जनचेतना के पते डी-68, निरालानगर, लखनऊ- 226020 से प्राप्त किया जा सकता है।
...sameermandi.blogspot.com

वी. आई. लेनिन की पुस्तक “क्या करें?” का पाठ



हाल ही में वी.आई. लेनिन की पुस्तक “क्या करें?” को जीवन में पहली बार पढ़ा। पुस्तक के नोटस आपके साथ शेयर कर रहा हुं.....

- ‘स्वतंत्रता’ एक महान शब्द है। लेकिन उद्योग की स्वतंत्रता के बैनर तले सर्वाधिक लुटेरे किस्म के युद्ध हुए हैं। श्रम की स्वतंत्रता के बैनल तले श्रमिक लूटे गए हैं। ‘आलोचना की स्वतंत्रता’ शब्दपद के इस आधुनिक इस्तेमाल में भी ऐसा ही फरेब अंतर्निहित है। जो लोग इस बात में यकीन करते हैं कि उन्होंने सचमुच विज्ञान में तरक्की हासिल की है, वे इस स्वतंत्रता की मांग नहीं करेंगे कि पुराने के साथ नए विचार चलें बल्कि वे यह चाहेंगे कि नए विचार पुराने विचारों की जगह ले लें। ‘आलोचना की स्वतंत्रता जीवित रहे’ का मौजूदा आर्तनाद खाली कनस्तर से गूंजती आवाज सा प्रतीत होता है।
- हमें कहा जाता है कि तुम्हें क्या उलटा इस बात के लिए शर्मसार नहीं होना चाहिए कि तुम मुक्ति के बेहतर रास्ते पर आमंत्रण (हमारे) को ठुकरा रहे हो? हां महानुभावो! आप लोग न केवल आमंत्रित करने के लिए आजाद हैं, बल्कि जहां चाहें वहां जाने के लिए भी मुक्त हैं। दलदल में जाने तक के लिए भी हैं। दरअसल हमें लगता है कि दलदल ही आपके लिए सही जगह है और हम आपको आपकी सही जगह तक पहुंचाने के लिए भी यथासंभव सहयोग कर देंगे। बस आप हमारा हाथ छोड़ दें। स्वतंत्रता जैसे महान शब्द को कलंकित न करें। इसलिए हम लोग भी अपनी राह चलने को स्वतंत्र हैं। हम भी इस दलदल के खिलाफ संघर्ष को मुक्त हैं। हम लोग उनके खिलाफ भी संघर्ष करने को स्वतंत्र हैं जो दलदल की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।
- हम क्रान्तिकारी सामाजिक लोकतंत्रवादी स्वतःस्फूर्तता यानी जो कुछ ‘इस समय’ मौजूद है उसकी इस पूजा से असंतुष्ट हैं। हमारी मांग है कि पूर्ववर्ती सालों से चलती आई कार्यशैली को बदला जाए। हम घोषणा करते हैं कि ‘इससे पहले कि हम एकताबद्ध हों और इसलिए कि हम एकताबद्ध हो सकें, यह सबसे पहले जरूरी है कि हम सपष्ट और दृढ़ सीमा रेखाएं खींच लें। चंद शब्दों में कहें तो जो कुछ अस्तित्व में हैं उस पर जर्मन लोग दृढ़ हैं और परिवर्तन को नकारते हैं। लेकिन हम उसमें बदलाव चाहते हैं जो ‘अस्तित्व’ में हैं और इसकी गुलामी और इससे समझौते की प्रवृति और प्रयास दोनों ही खारिज करते हैं। ‘हममें’ और ‘उनमें’ यह ‘मामूली’ फर्क देखने में जर्मन प्रस्ताव के हमारे स्वतंत्र नकलची असफल रहे।
- - ‘मतांधता, मताग्रहवाद’, ‘पार्टी को निर्जीव बनाना’- ये सब विचारों के हिंसक, अति नैतिक और संकीर्ण हो जाने के अवश्यंभावी प्रतिफल हैं।
- मार्क्स का यह कथन गोथा क्रार्यक्रम पर उनके पत्र से लिया गया है जिसमें उन्होंने सिद्धांतों के निरूपण के दौर में विभिन्न सिद्धांतों की ग्रहणशीलता (या सैद्धांतिक विचलन) की तीखी भर्त्सना की है। पार्टी नेताओं को मार्क्स कहते हैं कि अगर आपको एक होना ही है तो आंदोलन के व्यावहारिक उद्देश्य को संतुष्ट करने के लिए समझौते कीजिए। लेकिन सिद्धांतों के सवाल पर मोल-तोल मत करिए। सैद्धांतिक ‘छूट’ या ‘रियायतें’ कभी मत दीजिए। यह थे मार्क्स के विचार। और, तब भी हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो मार्क्स के नाम का इस्तेमाल करके सिद्धांत के महत्व को कम करना चाहते हैं।
- क्रान्तीकारी सिद्धांत के बिना क्रान्तीकारी आंदोलन नहीं हो सकता। इस विचार को ऐसे वक्त में मजबूती से कायम नहीं रखा जा सकता जब अवसरवाद का फैशनेबल उपदेश और व्यावहारिक गतिविधियों के संकीर्णतम रूप के प्रति आसक्ति साथ-साथ चल रहे हों।
- अग्रिम पंक्ति के लड़ाकू की भूमिका ऐसी पार्टी ही अदा कर सकती है, जो अधुनातन सिद्धांतों से निर्देशित हो।
- हमें वह सब उद्धृत करना चाहिए जो एंजेल्स ने 1874 में सामजिक लोकतंत्रवादी आंदोलन के सिलसिले में कहा है। हमारे बीच अभी दो संघर्ष चल रहे हैं- सामाजिक और आर्थिक। लेकिन एंजेल्स सामाजिक लोकतंत्र के इन दो महान संघर्षों के बजाय तीन संघर्षों को मान्यता देते हैं। यह तीसरा संघर्ष है सैद्धांतिक संघर्ष जो अन्य दो संघर्षों के समकक्ष है। कहीं से भी उनसे कम महत्वपुर्ण नहीं है।
- संघर्ष के सिरमौर नेताओं का खास तौर पर यह फर्ज होगा कि सैद्धांतिक प्रश्नों पर अपनी अंतर्दृष्टि हमेशा साफ और सपष्ट बनाए रखें ताकि वे खुद को उन पारंपरिक शब्दावलियों के प्रभावों से अधिक से अधिक मुक्त रखे सकें जो उन्हें विरासत में मिली हैं। उन्हें यह बात हमेशा दिमाग में रखनी होगी कि समाजवाद एक विज्ञान हो गया है। इसलिए यह मांग करता है कि इसका अनुसरण और अध्ययन एक विज्ञान की तरह ही हो।
- ‘स्वतःस्फूर्त तत्व’ सार रूप में दरअसल बीज रूप में चेतना का ही प्रतिनिधित्व करता है। यानी
स्वतःस्फूरण चेतना की ही भ्रुण अवस्था है। न इससे कुछ अधिक है न इससे कुछ कम।
- हमने कहा है कि श्रमिकों के बीच सामाजिक लोकतंत्रवादी चेतना जाग्रत हो ही नहीं सकती थी। इस चेतना को बाहर से लाना होगा। उन सभी देशों का इतिहास यह बताता है कि श्रमिक वर्ग महज अपने प्रयासों के बूते पर श्रमिक संघीय चेतना भर विकसित कर सकने मं् सक्षम है। दूसरे शब्दों में कहें तो पक्की बात है कि श्रमिक वर्ग इस स्तर की चेतना विकसित करने में सक्षम है कि संघों में संगठित होना, नियोजकों से संघर्ष करना, और सरकार को जरूरी श्रमिक कानूनों को बनाने के लिए मजबूर करना बगैरह अपरिहार्य हैं। दूसरी ओर समाजवाद का सिद्धांत दार्शनिक, ऐतिहासिक और आर्थिक सिद्धांतों के गर्भ से जन्मा है और इन्हीं समृद्ध वर्ग के बुद्धिजीवी प्रतिनिधियों द्वारा विकसित और विश्लेषित किया गया है। यहां तक कि आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद के प्रस्थापक मार्क्स और एंजेल्स स्वयं भी, सामाजिक स्तर के हिसाब से, इसी वर्ग से संबंधित रहे हैं। ये स्वयं बुजुर्आ प्रतिभा के प्रतिनिधि रहे हैं। इसी प्रकार, रूस में, सामाजिक लोकतंत्र के सिद्धांत श्रमिक वर्ग के स्वतःस्फूर्त आंदोलन के विकास से बिल्कुल स्वतंत्र रहकर उभरे और विकसित हुए हैं। सामाजिक लोकतंत्र के सिद्धांत क्रान्तीकारी समाजवादी बुद्धिजीवी वर्ग के बीच विकसित हुए विचारों के स्वाभाविक और अपरिहार्य परिणामों के या निष्कर्षों के रूप में उभरे हैं। हम जिस काल की चर्चा कर रहे हैं, यानी नब्बे के दशक के मध्यकाल की चर्चा कर रहे हैं। इस काल में, समाजवादी लोकतंत्र का सिद्धांत श्रमिक वर्ग की मुक्ति के लिए संपूर्ण कार्यक्रम को सुत्रबद्ध कर चुका है। साथ ही, इस सूत्रबद्ध कार्यक्रम के पक्ष में, रूसी क्रान्तीकारी युवा वर्ग के बहुसंख्यक समूह को भी जीत चुका है।
- और, इसलिए हम विश्वास कर चुके हैं कि रूसी सामाजिक लोकतंत्र में ‘नई प्रवृति’ द्वारा की गई बुनियादी गल्ती यह है कि यह स्वतःस्फूर्तता के समक्ष घुटने टेक देता है और यह समझने में असफल होता है कि जनता की स्वतःस्फूर्तता हम सामाजिक लोकतंत्रवादियों से ऊंचे स्तर की चेतना की भी मांग करती है।
जनता का स्वतःस्फूर्त उभार जितना अधिक होगा और आंदोलन जितना व्यापक और जितना अधिक तेज होगा, उससे कहीं ज्यादा परिमाण में सामाजिक लोकतंत्र के राजनीतिक, संगठनात्मक और सैद्धांतिक चेतना की मांग बढ़ती जाएगी।
रूस में जनता का स्वतःस्फूर्त उभार आगे बढ़ा है (और जारी है) कुछ इतनी तीव्रता से कि युवा सामाजिक लोकतंत्रवादियों के लिए यह गंभीर चुनौती बन गया है। वे लोग इस महती उतरदायित्व को पूरा करने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, उनकी तैयारी इसके लिए अपर्याप्त साबित हुई है। तैयारी की यह कमी हमारी सामान्य बदकिस्मती है। यह समस्त रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादियों की बदकिस्मती है। व्यापक जनता का उभार आगे बढ़ा और व्यापक हुआ है। जिस अबाध निरंतरता के साथ, यह न केवल उन जगहों में जारी रहा जहां से शुरू हुआ बल्कि नये क्षेत्रों में भी और आबादी के नए समूहों में भी व्यापक स्तर पर फैला है।
लेकिन क्रान्तीकारियों की जमात पीछे रह गई। इस जन उभार की प्रक्रिया में क्रान्तीकारी अपने ‘सैद्धांतिक’ और अपनी गतिविधियों दोनों ही स्तरों पर पीछे रह गए। वे ऐसे स्थायी और निरंतर संगठन की स्थापना में असफल साबित हो गए जो संपूर्ण आंदोलन का कुशलतापुर्वक नेतृत्व करने में सक्षम हो सकता था।
- आम तौर पर कहा जाता है कि समाजवाद की ओर श्रमिक वर्ग स्वतःस्फूर्त ढंग से आकर्षित होता है, यह बिल्कुल सच है, इस अर्थ में कि समाजवादी सिद्धांत श्रमिक वर्ग की दुर्दशा और गरीबी के कारणों को खोलकर बताता है, समाजवादी सिद्धांत अन्य किसी भी सिद्धांत की तुलना में इन वजहों की ज्यादा गंभीर ढंग से और ज्यादा सही तरीके से प्रकट करता है, यही वजह है कि श्रमिक इन सिद्धांतों को आसानी से अपना लेते हैं, फिर भी, यह सिद्धांत अपने आपमें स्वतःस्फूर्तता के सामने नहीं झुकता है, उल्टा यह स्वतःस्फूर्तता को ही अपने अधीन कर लेता है, यह बात सामान्यतः स्वीकृत है। श्रमिक वर्ग स्वतःस्फूर्त ढंग से समाजवाद की ओर आकर्षित होता है फिर भी इससे कहीं ज्यादा व्याप्त (और लगातार अलग-अलग ढंग एवं रूपों में पुनर्जीवित होने वाली) बुर्जुआ विचारधारा खुद को श्रमिक वर्ग पर थोपने से बाज नहीं आती। यह समाजवादी विचारधारा की तुलना में कहीं अधिक परिमाण में अपने को ‘थोपने’ की कोशीश में लगी रहती है।
- सर्वहारा वर्ग के बुनियादी आर्थिक हितों को, विशेष रूप से, सिर्फ एक राजनीतिक आंदोलन और क्रान्ति के जरिये ही संतुष्ट किया जा सकता है। यही राजनीतिक क्रान्ति, बुर्जुआ अधिनायक तंत्र को सर्वहारा के अधिनायक तंत्र द्वारा विस्थापित करेगी।
- ‘कामगार जनसमूह की सक्रियता को उन्नत करना’ वास्तविक अर्थ में तभी संभव है जब यह काम ‘आर्थिक आधार पर हो रहे राजनीतिक आंदोलन’ मात्र तक सीमित न हो। राजनीतिक आंदोलन के अनिवार्य विस्तार की बुनियादी शर्त है राजनैतिक परदाफाश का व्यापक संगठन। व्यापक जनता को राजनीतिक चेतना और क्रान्तिकारी गतिविधियों का प्रशिक्षण इन परदाफाशों के सिवा और किसी रास्ते से नहीं दिया जा सकता। इसलिए इस तरह की गतिविधियां समग्र अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक आंदोलन के सर्वाधिक महत्वपुर्ण कामों में से एक है।
- कामगार वर्ग की चेतना तब तक वास्तविक चेतना नहीं बन सकती जब तक कामगारों को इतना प्रशिक्षण नहीं मिलता कि वे जुल्म, दमन, हिंसा और अपने प्रति हो रही हर तरह की ज्यादतियों के खिलाफ उठ खड़े होने और उचित व्यवहार करने में सक्षम हो सकें। जब तक वे ऐसी जरूरतों के प्रति अपने सही ‘व्यवहार’ या ऐसे मामलों में ‘उचित जवाब’ देने के प्रति चेतनाशील न हो जाएं बिना इस बात की परवाह किए कि इससे किस वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। जब तक कि वे सामाजिक लोकतांत्रिक नजरिए से यह सब करने की स्थिति में न आ जाएं और यह न समझ लें कि इसके बिना कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
- कामगार वर्ग की चेतना तब तक असली वर्ग चेतना नहीं बन सकती जब तक कि ठोस घटनाओं और राजनीतिक तथ्यों से विषयगत घटनाओं और उदाहरणों से सीखने नहीं लगें। जब तक कि वे यह खुद समझने नहीं लगें कि अन्य सारे सामाजिक वर्गों की स्थिति क्या है जब व इन वर्गों को इनके समस्त स्वरूपों के प्रकटीकरण के आलोक में इनकी स्थितियों के बारे में समझ हासिल नहीं कर सकें। वे तब तक चेतना-संपन्न नहीं हो सकते जब तक कि वे यह न सीख लें कि भौतिकवादी विश्लेषण को व्यवहार में कैसे लाया जाता है और जीवन के समस्त आयामों और पक्षों के भौतिकवादी अनुमानों को व्यावहारिक जामा कैसे पहनाया जाता है और जब तक वे यह सब हर वर्ग, स्तर और समाज के सभी समूहों के बारे में समझ और व्यवहार के स्तर पर सीख न लें।
- सामाजिक लोकतंत्रवादी बनने के लिए किसी कामगार के दिमाग में यह तस्वीर बिल्कुल साफ होनी चाहिए कि जमींदारों, पुरोहितों, ऊंचे अधिकारियों, किसानों, छात्रों और आवारागर्द लोगों के आर्थिक व्यवहार और स्वभाव और सामाजिक राजनीतिक लक्षण या विशिष्टताएं क्या हैं? उसे इन संघों के मजबूत और कमजोर बिंदुओं यानी इनकी ताकत और कमजोरी दोनों को ही जानना होगा। उसे उन सारे प्रचलित नारों और कुतर्कों के अर्थों को तुरंत समझने में प्रवीण होना होगा, जिनका इस्तेमाल करके हर वर्ग और हर स्तर के लोग अपनी स्वार्थी कोशिशों को छदम आवरण देते हैं।
- तुम बुद्धिजीवियों के लिए यह ज्ञान हासिल कर लेना आसान है और तुम्हारा यह फर्ज है कि तुम इन्हें हमारे पास सैंकड़ों-हजारों दफा लाओ। अभी जितना आया है उससे भी ज्यादा लाओ और तुम्हें ऐसे ज्ञान को हमारे पास लाना ही होगा। बहस-विवाद, परचे, लेखों (जो कि सामन्यतः, हमारी सपष्टता के लिए क्षमा करो, बेकार और बोर करने वाले होते हैं) के रूप में नहीं बल्कि बहुआयामी तरीकों से परदाफाश के रूप में। उन बातों, घटनाओं के परदाफाश के रूप में जो कि हमारी सरकारों और सरकार चलाने वाले वर्गों से संबंधित लोग/एजेंसियां कर रही हैं। यह सब जीवन के हर पहलू में हर पल हो रहा है। सरकार ऐसा ही कर रही है।
- ‘जनता का नेता’ तो वही हो सकता है जो अत्याचार और दमन के हर मामले, हर चिन्ह के खिलाफ प्रतिक्रिया जाहिर करने की क्षमता रखता हो। चाहे ऐसे अत्याचार जहां कहीं भी होते हों या जिस भी वर्ग या सामाजिक स्तर को प्रभावित करते हों। जननेता वही हो सकता है जो इन सारे मामलों का सामान्यीकरण करने में सक्षम हो और पुलिस आतंक और पूंजीवादी शोषण की एक मुकम्मिल तस्वीर पेश करने की क्षमता रखता हो। जननेता वही हो सकता है जो सारी घटनाओं का जनता के हित में उपयोग करने की क्षमता रखता हो। चाहे वह घटना कितनी भी छोटी क्यों न हो। वही जनता का नेता है जो इन सारे हालात, घटनाओं, अवसरों को अपनी तमाम समजवादी दृढ़ता के साथ और लोकतांत्रिक मांगों को सामने रखकर सब किसी के सामने सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए किए जाने वाले संघर्ष के विश्व स्तरीय ऐतिहासिक महत्व को सपष्ट कर सके।
- सामाजिक लोकतंत्रवादी अगर सचमुच इस बात में यकीन करता है कि सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना को विकसित करना अनिवार्य है तो उसे आबादी के हर वर्ग के पास जाना चाहिए। यह बात कई सवालों को जन्म देती है। मसलन इसे कैसे किया जाए? क्या हमारे पास इसे करने के लिए काफी स्त्रोत या शक्तियां मौजूद हैं? क्या सारे वर्गों के बीच ऐसे काम करने का कोई आधार है? क्या इसका अर्थ पुनर्वापसी नहीं होगी? क्या इसका अर्थ वर्गीय नजरिए से पीछे हटने की प्रक्रिया से पीछे हटने की शुरूआत जैसा नहीं होगा? आइए, इन सारे सवालों से रू-ब-रू हों।
हमें ‘आबादी के हर वर्ग के बीच’ जरूर जाना चाहिए। सिद्धांतकार, प्रचारक, आंदोलनकारी और संगठनकर्ता के रूप में। इस बात पर कोई भी संदेह नहीं कर सकता कि सामाजिक लोकतंत्रवादियों के सैद्धांतिक कार्यों का मकसद हर वर्ग की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों के तमाम गुणों और पहचानों आदि का अध्ययन होना चाहिए। लेकिन इस दिशा में बहुत ही कम प्रयास हुए हैं।
हमारे पास न तो संसद है और व ही विधानसभाओं की स्वतंत्रता। फिर भी हम वैसे कामगारों की सभाएं संगठित करने में सक्षम हैं जो किसी सामाजिक लोकतंत्रवादी को सुनने की इच्छा रखते हैं। हम ऐसे रास्ते और माध्यम जरूर तलाश कर सकते हैं जिसके जरिए हम सभी सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएं बुला सकें जो किसी लोकतंत्रवादी को सुनने की इच्छा रखते हैं। इसलिए कि वह (लोकतंत्रवादी) सामाजिक लोकतंत्रवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि ‘साम्यवादी हर क्रान्तीकारी आंदोलन का समर्थन करता है।‘ हमारी जिम्मेदारी है कि हम समस्त जनता के सामने सामान्य लोकतांत्रिक दायित्वों/कार्यों की व्याख्या करें और उस पर जोर डालें। वह भी समाजवादी धारणा में अपने विश्वास को एक क्षण के लिए भी छिपाए बगैर। यह व्यक्ति सामाजिक लोकतंत्रवादी है ही नहीं जो व्यवहार मंर भूल जाता है कि सामान्य लोकतांत्रिक सवाल को उठाने, उसे आवाज देने और उसका समाधान करने में हर किसी और किसी भी शक्ति से आगे रहना उसकी जिम्मेदारी है।
- हमें क्रान्तिकारियों का एक संगठन दो और हम रूस को पलट देंगे।
-‘हमें सपने देखने चाहिए।‘ मैंने ये शब्द लिखे और सावधान हो गया। मैंने कल्पना की कि मैं एक ‘एकता के कांफ्रेंस’ में बैठा हुआ हूं और मेरे समक्ष राबोचेये दायेलो के संपादकगण और लेखकगण मौजूद हैं। कामरेड मार्टिनोव उठते हैं और सख्ती से कहते हैं: मुझे तुमसे यह पूछने की इजाजत दो कि क्या एक स्वाधीन संपादकीय मंडल को पार्टी कमेटियों के विचारों के प्रति आग्रह रखने से पूर्व सपने देखने का अधिकार है? इसके बाद कामरेड क्रिशेवस्की उठते हैं और ज्यादा दृढ़ता से कहते हैः मैं पूछता हूं कि क्या एक मार्क्सवादी को सपने देखने का कोई हक है भी- यह जानते हुए कि मार्क्स के अनुसार मनुष्य हमेशा अपने आपको ऐसे दायित्वों के लिए, ऐसे कार्यों के लिए तैयार रखता है जो वह कर सके और यह भी कि रणनीति या रणकौशल एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे पार्टी के कार्यों का विकास होता है। और जो पार्टी के विकास के साथ ही विकसित होती है?
इन कठोर प्रश्नों के पीछे जो विचार मौजूद है वह मेरी रीढ़ की हड्डियों को कंपा देता है और मुझे ऐसा महसूस होने लगता है कि मैं कुछ भी करने की चाहत न रखूं और किसी अज्ञात स्थान में छिप जाऊं। मैं कामरेड पिसारेव के पीछे छिपने की कोशीश करूंगा।
‘यहां दरार ही दरार है’, पिसारेव ने सपने और हकीकत के बीच की दरार के बारे में लिखा। ‘मेरे सपने’ हो सकता है कि घटनाओं के घटने की स्वाभाविक गति से आगे दौड़ते हों अथवा यह भी संभव है कि मेरे सपने किसी स्पर्शरेखा के बाहर उड़ चलें, किसी ऐसी दिशा में जहां घटनाओं की किसी स्वाभाविक गति का कभी कोई अस्तित्व ही न हो। पहली स्थिति में मेरे सपने किसी तरह की कोई हानि नहीं करेंगे। ये कामगार लोगों की शक्ति और ऊर्जा को उल्टा बढ़ा सकते हैं और सहयोग भी कर सकते हैं। ऐसे सपनों में कुछ भी ऐसा नहीं है जो श्रम शक्ति को विचलित करेगा या फिर उसे पंगु बनाएगा। इसके विपरीत, अगर आदमी सपना देखने की योग्यता से पूरी तरह महरूम होता, अगर वह समय-समय पर आगे दौड़ने की क्षमता से मरहूम होता और मानसिक स्तर पर उस रचना की संपूर्ण तसवीर खींचने में सक्षम नहीं होता, जिसे आकार देने के लिए उसके हाथों द्वारा बस शुरूआत ही हुई हो, तब मैं इस बात की कल्पना कर ही नहीं पाता कि मनुष्य कला, विज्ञान और सक्रिय उद्यमों के क्षेत्र में जिन कार्यों की जिम्मेवारी लेता है और जिन्हें बहुत ही श्रमसाध्य और व्यापक स्तर पर मेहनत करके पूरा करता है, उनके लिए उसके पास प्रेरणा और ऊर्जस्विता कहां से और कैसे आती। अगर स्वपन देखने वाला व्यक्ति सपनों में गंभीरता से विश्वास करता हो तो सपने और हकीकत के बीच की दरार से कुछ भी बुरा नहीं हो सकता। अगर वह जिंदगी को ध्यानपुर्वक देखे, निरीक्षण करे, अपने निरीक्षणों की तुलना अपने हवाई महलों से करे और- जैसा कि आम तौर पर कहते है- वह अपनी फंतासियों को हासिल करने के लिए ईमानदारी और निष्ठा से काम करे। अगर सपनों और जिंदगी के बीच कुछ संपर्क कायम है तो सब कुछ अच्छा है।
हमारे आंदोलन में दुर्भाग्य से इस तरह के सपनों का अस्तित्व बहुत ही कम है। और इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार लोग वैसे लोग हैं जो अपने संयत विचारों और ‘ठोस’ के प्रति अपनी ‘नजदीकी’ पर गुमान करते हैं। वैधानिक आलोचना और अवैधानिक ‘पिछलग्गूपन’ के प्रतिनिधिगण हैं ये लोग।

-वी. आई. लेनिन की पुस्तक “क्या करें?”
- अवसरवाद का अर्थ होता है एक स्थिरचित, स्थायी और दृढ़ सिद्धांत की कमी।

नोटस लेखन का कार्य जारी है इसलिए इन्हें क्रमशः शेयर करता रहुंगा।

पुस्तक का अनुवाद इंदु भारती ने किया है और इसे ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड ने प्रकाशित किया है।
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ख्रुश्चेव झूठा था....




ग्रोवर फर की चर्चित पुस्तक 'ख्रुश्चेव लाइड' पढ़ी। इसमें उन्होने कम्यूनिस्ट पार्टी आफ सोवियत यूनियन की 25 फरवरी, 1956 को हुई 20वीं पार्टी कांग्रेस में निकिता ख्रुश्चेव द्वारा स्टालिन और बेरिया के अपराधों के बारे में दी गई कुख्यात 'सिक्रेट स्पीच' के तमाम रहस्योद्घाटनों को झूठा प्रमाणित करते हुए साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। इस सिक्रेट स्पीच में निकिता ख्रुश्चेव ने जोसेफ स्तालिन पर बहुत सारे अपराधों के आरोप लगाए थे। ख्रुश्चेव का भाषण विश्वभर के कम्यूनिस्ट आंदोलन के लिए गहरा आघात था जिससे वह कभी नहीं उभर पाया। इसने इतिहास का रूख ही बदल दिया। सोवियत संघ के विघटन के बाद सोवियत अभिलेखागार में अभी तक गुप्त रखे गए दस्तावेजों के प्रकाशित होने पर ग्रोवर फर ने एक दशक तक इनका अध्ययन किया। ख्रुश्चेव के भाषण का विस्तारपुर्वक अध्ययन करने के बाद चौकाने वाले परिणाम प्रस्तुत करते हुए उन्होने रहस्योद्घाटन किया है कि ख्रुश्चेव द्वारा लगाए गए 61 इल्जामों में से एक भी सच नहीं है। अभी तक का नहीं तो कम से कम 20वीं सदी का सबसे ज्यादा प्रभाव डालने वाला भाषण क्या एक बेईमानी से भरा धोखा था? वामपंथी इतिहास को समझने के निहितार्थ यह विचार कितना ज्यादा भयानक है। फर ने ख्रुश्चेव के झूठों, सोवियत और पाश्चात्य इतिहासकारों सहित त्रात्सकीपंथियों और कम्यूनिस्ट विरोधियों का अध्ययन करते हुए प्रभावशाली तरीके से सोवियत इतिहास को झूठ साबित किया है। वास्तव में हर चीज जो हम सोचते हैं कि हम स्टालिन काल के बारे में जानते हैं वह गल्त साबित हुई है। सोवियत रूस का इतिहास और 20वीं सदी के कम्यूनिस्ट आंदोलन को पूरी तरह से फिर से लिखना होगा।
यह पुस्तक आकार बुक्स प्रकाशन ने प्रकाशित की है और इसका हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है। जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने अगर यह पुस्तक पढ़ी होती तो वह भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा द्वारा स्तालिन मुर्दाबाद बोलने को कहने पर शायद कभी नहीं बोलते। स्तालिन हमेशा अपने को लेनिन का शिष्य कहते थे और मार्क्स और लेनिन के बताए रास्ते और नीतियों पर ही चलकर उन्होने सोवियत रूस को मात्र 40 साल में उस मुकाम पर पहुंचा दिया था जहां तक पहुंचने के लिए पूंजीवादी देशों को 400 साल लगे थे। वह स्तालिन ही थे जिनके नेतृत्व में कम्यूनिस्टों ने लाखों कुर्बानियां देकर हिटलर के फासीवाद को करारी शिकस्त देकर दुनिया को फासीवादी खतरे से बचाया था। अंतरिक्ष में पहला मानव भी स्तालिन काल में शुरू किए गए कार्यों की ही देन थी। इसके अलावा उनके कार्यकाल में रूस से बेरोजगारी, अपराध, वैश्यावृति खत्म हो चुकी थी और देश कृषि, उद्योग, शिक्षा और स्वास्थय के क्षेत्र में अभूतपुर्व कीर्तिमान स्थापित कर रहा था। यह महत्वपुर्ण पुस्तक स्तालिन के बारे में संशोधनवादी ख्रुश्चेव द्वारा दुनिया भर में फैलाए गए झूठों की हकीकत को जानने के लिए जरूर पढ़नी चाहिए। वह स्तालिन ही थे जो रूस को विकास की असीम ऊंचाइयों पर ले गए थे और वह संशोधनवादी ख्रुश्चेव ही थे जिनके कार्यकाल के दौरान से ही बुर्जुआ वर्ग को खुली छूटें मिलनी शुरू हो गई और इन संशोधनवादी नीतियों के चलते ही अंततोगत्वा सोवियत संघ का विघटन हो गया।
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मंडी में बनाया जाए आधुनिक पुस्तकालयः शहीद भगत सिंह विचार मंच

मंडी। प्रदेश की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी मंडी में आधुनिक और बेहतरीन पुस्तकालय के निर्माण की मांग की गई है। इस संदर्भ में शहर की संस्...