Friday, 9 February 2018

वी. आई. लेनिन की पुस्तक “क्या करें?” का पाठ



हाल ही में वी.आई. लेनिन की पुस्तक “क्या करें?” को जीवन में पहली बार पढ़ा। पुस्तक के नोटस आपके साथ शेयर कर रहा हुं.....

- ‘स्वतंत्रता’ एक महान शब्द है। लेकिन उद्योग की स्वतंत्रता के बैनर तले सर्वाधिक लुटेरे किस्म के युद्ध हुए हैं। श्रम की स्वतंत्रता के बैनल तले श्रमिक लूटे गए हैं। ‘आलोचना की स्वतंत्रता’ शब्दपद के इस आधुनिक इस्तेमाल में भी ऐसा ही फरेब अंतर्निहित है। जो लोग इस बात में यकीन करते हैं कि उन्होंने सचमुच विज्ञान में तरक्की हासिल की है, वे इस स्वतंत्रता की मांग नहीं करेंगे कि पुराने के साथ नए विचार चलें बल्कि वे यह चाहेंगे कि नए विचार पुराने विचारों की जगह ले लें। ‘आलोचना की स्वतंत्रता जीवित रहे’ का मौजूदा आर्तनाद खाली कनस्तर से गूंजती आवाज सा प्रतीत होता है।
- हमें कहा जाता है कि तुम्हें क्या उलटा इस बात के लिए शर्मसार नहीं होना चाहिए कि तुम मुक्ति के बेहतर रास्ते पर आमंत्रण (हमारे) को ठुकरा रहे हो? हां महानुभावो! आप लोग न केवल आमंत्रित करने के लिए आजाद हैं, बल्कि जहां चाहें वहां जाने के लिए भी मुक्त हैं। दलदल में जाने तक के लिए भी हैं। दरअसल हमें लगता है कि दलदल ही आपके लिए सही जगह है और हम आपको आपकी सही जगह तक पहुंचाने के लिए भी यथासंभव सहयोग कर देंगे। बस आप हमारा हाथ छोड़ दें। स्वतंत्रता जैसे महान शब्द को कलंकित न करें। इसलिए हम लोग भी अपनी राह चलने को स्वतंत्र हैं। हम भी इस दलदल के खिलाफ संघर्ष को मुक्त हैं। हम लोग उनके खिलाफ भी संघर्ष करने को स्वतंत्र हैं जो दलदल की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।
- हम क्रान्तिकारी सामाजिक लोकतंत्रवादी स्वतःस्फूर्तता यानी जो कुछ ‘इस समय’ मौजूद है उसकी इस पूजा से असंतुष्ट हैं। हमारी मांग है कि पूर्ववर्ती सालों से चलती आई कार्यशैली को बदला जाए। हम घोषणा करते हैं कि ‘इससे पहले कि हम एकताबद्ध हों और इसलिए कि हम एकताबद्ध हो सकें, यह सबसे पहले जरूरी है कि हम सपष्ट और दृढ़ सीमा रेखाएं खींच लें। चंद शब्दों में कहें तो जो कुछ अस्तित्व में हैं उस पर जर्मन लोग दृढ़ हैं और परिवर्तन को नकारते हैं। लेकिन हम उसमें बदलाव चाहते हैं जो ‘अस्तित्व’ में हैं और इसकी गुलामी और इससे समझौते की प्रवृति और प्रयास दोनों ही खारिज करते हैं। ‘हममें’ और ‘उनमें’ यह ‘मामूली’ फर्क देखने में जर्मन प्रस्ताव के हमारे स्वतंत्र नकलची असफल रहे।
- - ‘मतांधता, मताग्रहवाद’, ‘पार्टी को निर्जीव बनाना’- ये सब विचारों के हिंसक, अति नैतिक और संकीर्ण हो जाने के अवश्यंभावी प्रतिफल हैं।
- मार्क्स का यह कथन गोथा क्रार्यक्रम पर उनके पत्र से लिया गया है जिसमें उन्होंने सिद्धांतों के निरूपण के दौर में विभिन्न सिद्धांतों की ग्रहणशीलता (या सैद्धांतिक विचलन) की तीखी भर्त्सना की है। पार्टी नेताओं को मार्क्स कहते हैं कि अगर आपको एक होना ही है तो आंदोलन के व्यावहारिक उद्देश्य को संतुष्ट करने के लिए समझौते कीजिए। लेकिन सिद्धांतों के सवाल पर मोल-तोल मत करिए। सैद्धांतिक ‘छूट’ या ‘रियायतें’ कभी मत दीजिए। यह थे मार्क्स के विचार। और, तब भी हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो मार्क्स के नाम का इस्तेमाल करके सिद्धांत के महत्व को कम करना चाहते हैं।
- क्रान्तीकारी सिद्धांत के बिना क्रान्तीकारी आंदोलन नहीं हो सकता। इस विचार को ऐसे वक्त में मजबूती से कायम नहीं रखा जा सकता जब अवसरवाद का फैशनेबल उपदेश और व्यावहारिक गतिविधियों के संकीर्णतम रूप के प्रति आसक्ति साथ-साथ चल रहे हों।
- अग्रिम पंक्ति के लड़ाकू की भूमिका ऐसी पार्टी ही अदा कर सकती है, जो अधुनातन सिद्धांतों से निर्देशित हो।
- हमें वह सब उद्धृत करना चाहिए जो एंजेल्स ने 1874 में सामजिक लोकतंत्रवादी आंदोलन के सिलसिले में कहा है। हमारे बीच अभी दो संघर्ष चल रहे हैं- सामाजिक और आर्थिक। लेकिन एंजेल्स सामाजिक लोकतंत्र के इन दो महान संघर्षों के बजाय तीन संघर्षों को मान्यता देते हैं। यह तीसरा संघर्ष है सैद्धांतिक संघर्ष जो अन्य दो संघर्षों के समकक्ष है। कहीं से भी उनसे कम महत्वपुर्ण नहीं है।
- संघर्ष के सिरमौर नेताओं का खास तौर पर यह फर्ज होगा कि सैद्धांतिक प्रश्नों पर अपनी अंतर्दृष्टि हमेशा साफ और सपष्ट बनाए रखें ताकि वे खुद को उन पारंपरिक शब्दावलियों के प्रभावों से अधिक से अधिक मुक्त रखे सकें जो उन्हें विरासत में मिली हैं। उन्हें यह बात हमेशा दिमाग में रखनी होगी कि समाजवाद एक विज्ञान हो गया है। इसलिए यह मांग करता है कि इसका अनुसरण और अध्ययन एक विज्ञान की तरह ही हो।
- ‘स्वतःस्फूर्त तत्व’ सार रूप में दरअसल बीज रूप में चेतना का ही प्रतिनिधित्व करता है। यानी
स्वतःस्फूरण चेतना की ही भ्रुण अवस्था है। न इससे कुछ अधिक है न इससे कुछ कम।
- हमने कहा है कि श्रमिकों के बीच सामाजिक लोकतंत्रवादी चेतना जाग्रत हो ही नहीं सकती थी। इस चेतना को बाहर से लाना होगा। उन सभी देशों का इतिहास यह बताता है कि श्रमिक वर्ग महज अपने प्रयासों के बूते पर श्रमिक संघीय चेतना भर विकसित कर सकने मं् सक्षम है। दूसरे शब्दों में कहें तो पक्की बात है कि श्रमिक वर्ग इस स्तर की चेतना विकसित करने में सक्षम है कि संघों में संगठित होना, नियोजकों से संघर्ष करना, और सरकार को जरूरी श्रमिक कानूनों को बनाने के लिए मजबूर करना बगैरह अपरिहार्य हैं। दूसरी ओर समाजवाद का सिद्धांत दार्शनिक, ऐतिहासिक और आर्थिक सिद्धांतों के गर्भ से जन्मा है और इन्हीं समृद्ध वर्ग के बुद्धिजीवी प्रतिनिधियों द्वारा विकसित और विश्लेषित किया गया है। यहां तक कि आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद के प्रस्थापक मार्क्स और एंजेल्स स्वयं भी, सामाजिक स्तर के हिसाब से, इसी वर्ग से संबंधित रहे हैं। ये स्वयं बुजुर्आ प्रतिभा के प्रतिनिधि रहे हैं। इसी प्रकार, रूस में, सामाजिक लोकतंत्र के सिद्धांत श्रमिक वर्ग के स्वतःस्फूर्त आंदोलन के विकास से बिल्कुल स्वतंत्र रहकर उभरे और विकसित हुए हैं। सामाजिक लोकतंत्र के सिद्धांत क्रान्तीकारी समाजवादी बुद्धिजीवी वर्ग के बीच विकसित हुए विचारों के स्वाभाविक और अपरिहार्य परिणामों के या निष्कर्षों के रूप में उभरे हैं। हम जिस काल की चर्चा कर रहे हैं, यानी नब्बे के दशक के मध्यकाल की चर्चा कर रहे हैं। इस काल में, समाजवादी लोकतंत्र का सिद्धांत श्रमिक वर्ग की मुक्ति के लिए संपूर्ण कार्यक्रम को सुत्रबद्ध कर चुका है। साथ ही, इस सूत्रबद्ध कार्यक्रम के पक्ष में, रूसी क्रान्तीकारी युवा वर्ग के बहुसंख्यक समूह को भी जीत चुका है।
- और, इसलिए हम विश्वास कर चुके हैं कि रूसी सामाजिक लोकतंत्र में ‘नई प्रवृति’ द्वारा की गई बुनियादी गल्ती यह है कि यह स्वतःस्फूर्तता के समक्ष घुटने टेक देता है और यह समझने में असफल होता है कि जनता की स्वतःस्फूर्तता हम सामाजिक लोकतंत्रवादियों से ऊंचे स्तर की चेतना की भी मांग करती है।
जनता का स्वतःस्फूर्त उभार जितना अधिक होगा और आंदोलन जितना व्यापक और जितना अधिक तेज होगा, उससे कहीं ज्यादा परिमाण में सामाजिक लोकतंत्र के राजनीतिक, संगठनात्मक और सैद्धांतिक चेतना की मांग बढ़ती जाएगी।
रूस में जनता का स्वतःस्फूर्त उभार आगे बढ़ा है (और जारी है) कुछ इतनी तीव्रता से कि युवा सामाजिक लोकतंत्रवादियों के लिए यह गंभीर चुनौती बन गया है। वे लोग इस महती उतरदायित्व को पूरा करने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, उनकी तैयारी इसके लिए अपर्याप्त साबित हुई है। तैयारी की यह कमी हमारी सामान्य बदकिस्मती है। यह समस्त रूसी सामाजिक लोकतंत्रवादियों की बदकिस्मती है। व्यापक जनता का उभार आगे बढ़ा और व्यापक हुआ है। जिस अबाध निरंतरता के साथ, यह न केवल उन जगहों में जारी रहा जहां से शुरू हुआ बल्कि नये क्षेत्रों में भी और आबादी के नए समूहों में भी व्यापक स्तर पर फैला है।
लेकिन क्रान्तीकारियों की जमात पीछे रह गई। इस जन उभार की प्रक्रिया में क्रान्तीकारी अपने ‘सैद्धांतिक’ और अपनी गतिविधियों दोनों ही स्तरों पर पीछे रह गए। वे ऐसे स्थायी और निरंतर संगठन की स्थापना में असफल साबित हो गए जो संपूर्ण आंदोलन का कुशलतापुर्वक नेतृत्व करने में सक्षम हो सकता था।
- आम तौर पर कहा जाता है कि समाजवाद की ओर श्रमिक वर्ग स्वतःस्फूर्त ढंग से आकर्षित होता है, यह बिल्कुल सच है, इस अर्थ में कि समाजवादी सिद्धांत श्रमिक वर्ग की दुर्दशा और गरीबी के कारणों को खोलकर बताता है, समाजवादी सिद्धांत अन्य किसी भी सिद्धांत की तुलना में इन वजहों की ज्यादा गंभीर ढंग से और ज्यादा सही तरीके से प्रकट करता है, यही वजह है कि श्रमिक इन सिद्धांतों को आसानी से अपना लेते हैं, फिर भी, यह सिद्धांत अपने आपमें स्वतःस्फूर्तता के सामने नहीं झुकता है, उल्टा यह स्वतःस्फूर्तता को ही अपने अधीन कर लेता है, यह बात सामान्यतः स्वीकृत है। श्रमिक वर्ग स्वतःस्फूर्त ढंग से समाजवाद की ओर आकर्षित होता है फिर भी इससे कहीं ज्यादा व्याप्त (और लगातार अलग-अलग ढंग एवं रूपों में पुनर्जीवित होने वाली) बुर्जुआ विचारधारा खुद को श्रमिक वर्ग पर थोपने से बाज नहीं आती। यह समाजवादी विचारधारा की तुलना में कहीं अधिक परिमाण में अपने को ‘थोपने’ की कोशीश में लगी रहती है।
- सर्वहारा वर्ग के बुनियादी आर्थिक हितों को, विशेष रूप से, सिर्फ एक राजनीतिक आंदोलन और क्रान्ति के जरिये ही संतुष्ट किया जा सकता है। यही राजनीतिक क्रान्ति, बुर्जुआ अधिनायक तंत्र को सर्वहारा के अधिनायक तंत्र द्वारा विस्थापित करेगी।
- ‘कामगार जनसमूह की सक्रियता को उन्नत करना’ वास्तविक अर्थ में तभी संभव है जब यह काम ‘आर्थिक आधार पर हो रहे राजनीतिक आंदोलन’ मात्र तक सीमित न हो। राजनीतिक आंदोलन के अनिवार्य विस्तार की बुनियादी शर्त है राजनैतिक परदाफाश का व्यापक संगठन। व्यापक जनता को राजनीतिक चेतना और क्रान्तिकारी गतिविधियों का प्रशिक्षण इन परदाफाशों के सिवा और किसी रास्ते से नहीं दिया जा सकता। इसलिए इस तरह की गतिविधियां समग्र अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक आंदोलन के सर्वाधिक महत्वपुर्ण कामों में से एक है।
- कामगार वर्ग की चेतना तब तक वास्तविक चेतना नहीं बन सकती जब तक कामगारों को इतना प्रशिक्षण नहीं मिलता कि वे जुल्म, दमन, हिंसा और अपने प्रति हो रही हर तरह की ज्यादतियों के खिलाफ उठ खड़े होने और उचित व्यवहार करने में सक्षम हो सकें। जब तक वे ऐसी जरूरतों के प्रति अपने सही ‘व्यवहार’ या ऐसे मामलों में ‘उचित जवाब’ देने के प्रति चेतनाशील न हो जाएं बिना इस बात की परवाह किए कि इससे किस वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। जब तक कि वे सामाजिक लोकतांत्रिक नजरिए से यह सब करने की स्थिति में न आ जाएं और यह न समझ लें कि इसके बिना कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
- कामगार वर्ग की चेतना तब तक असली वर्ग चेतना नहीं बन सकती जब तक कि ठोस घटनाओं और राजनीतिक तथ्यों से विषयगत घटनाओं और उदाहरणों से सीखने नहीं लगें। जब तक कि वे यह खुद समझने नहीं लगें कि अन्य सारे सामाजिक वर्गों की स्थिति क्या है जब व इन वर्गों को इनके समस्त स्वरूपों के प्रकटीकरण के आलोक में इनकी स्थितियों के बारे में समझ हासिल नहीं कर सकें। वे तब तक चेतना-संपन्न नहीं हो सकते जब तक कि वे यह न सीख लें कि भौतिकवादी विश्लेषण को व्यवहार में कैसे लाया जाता है और जीवन के समस्त आयामों और पक्षों के भौतिकवादी अनुमानों को व्यावहारिक जामा कैसे पहनाया जाता है और जब तक वे यह सब हर वर्ग, स्तर और समाज के सभी समूहों के बारे में समझ और व्यवहार के स्तर पर सीख न लें।
- सामाजिक लोकतंत्रवादी बनने के लिए किसी कामगार के दिमाग में यह तस्वीर बिल्कुल साफ होनी चाहिए कि जमींदारों, पुरोहितों, ऊंचे अधिकारियों, किसानों, छात्रों और आवारागर्द लोगों के आर्थिक व्यवहार और स्वभाव और सामाजिक राजनीतिक लक्षण या विशिष्टताएं क्या हैं? उसे इन संघों के मजबूत और कमजोर बिंदुओं यानी इनकी ताकत और कमजोरी दोनों को ही जानना होगा। उसे उन सारे प्रचलित नारों और कुतर्कों के अर्थों को तुरंत समझने में प्रवीण होना होगा, जिनका इस्तेमाल करके हर वर्ग और हर स्तर के लोग अपनी स्वार्थी कोशिशों को छदम आवरण देते हैं।
- तुम बुद्धिजीवियों के लिए यह ज्ञान हासिल कर लेना आसान है और तुम्हारा यह फर्ज है कि तुम इन्हें हमारे पास सैंकड़ों-हजारों दफा लाओ। अभी जितना आया है उससे भी ज्यादा लाओ और तुम्हें ऐसे ज्ञान को हमारे पास लाना ही होगा। बहस-विवाद, परचे, लेखों (जो कि सामन्यतः, हमारी सपष्टता के लिए क्षमा करो, बेकार और बोर करने वाले होते हैं) के रूप में नहीं बल्कि बहुआयामी तरीकों से परदाफाश के रूप में। उन बातों, घटनाओं के परदाफाश के रूप में जो कि हमारी सरकारों और सरकार चलाने वाले वर्गों से संबंधित लोग/एजेंसियां कर रही हैं। यह सब जीवन के हर पहलू में हर पल हो रहा है। सरकार ऐसा ही कर रही है।
- ‘जनता का नेता’ तो वही हो सकता है जो अत्याचार और दमन के हर मामले, हर चिन्ह के खिलाफ प्रतिक्रिया जाहिर करने की क्षमता रखता हो। चाहे ऐसे अत्याचार जहां कहीं भी होते हों या जिस भी वर्ग या सामाजिक स्तर को प्रभावित करते हों। जननेता वही हो सकता है जो इन सारे मामलों का सामान्यीकरण करने में सक्षम हो और पुलिस आतंक और पूंजीवादी शोषण की एक मुकम्मिल तस्वीर पेश करने की क्षमता रखता हो। जननेता वही हो सकता है जो सारी घटनाओं का जनता के हित में उपयोग करने की क्षमता रखता हो। चाहे वह घटना कितनी भी छोटी क्यों न हो। वही जनता का नेता है जो इन सारे हालात, घटनाओं, अवसरों को अपनी तमाम समजवादी दृढ़ता के साथ और लोकतांत्रिक मांगों को सामने रखकर सब किसी के सामने सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिए किए जाने वाले संघर्ष के विश्व स्तरीय ऐतिहासिक महत्व को सपष्ट कर सके।
- सामाजिक लोकतंत्रवादी अगर सचमुच इस बात में यकीन करता है कि सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना को विकसित करना अनिवार्य है तो उसे आबादी के हर वर्ग के पास जाना चाहिए। यह बात कई सवालों को जन्म देती है। मसलन इसे कैसे किया जाए? क्या हमारे पास इसे करने के लिए काफी स्त्रोत या शक्तियां मौजूद हैं? क्या सारे वर्गों के बीच ऐसे काम करने का कोई आधार है? क्या इसका अर्थ पुनर्वापसी नहीं होगी? क्या इसका अर्थ वर्गीय नजरिए से पीछे हटने की प्रक्रिया से पीछे हटने की शुरूआत जैसा नहीं होगा? आइए, इन सारे सवालों से रू-ब-रू हों।
हमें ‘आबादी के हर वर्ग के बीच’ जरूर जाना चाहिए। सिद्धांतकार, प्रचारक, आंदोलनकारी और संगठनकर्ता के रूप में। इस बात पर कोई भी संदेह नहीं कर सकता कि सामाजिक लोकतंत्रवादियों के सैद्धांतिक कार्यों का मकसद हर वर्ग की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों के तमाम गुणों और पहचानों आदि का अध्ययन होना चाहिए। लेकिन इस दिशा में बहुत ही कम प्रयास हुए हैं।
हमारे पास न तो संसद है और व ही विधानसभाओं की स्वतंत्रता। फिर भी हम वैसे कामगारों की सभाएं संगठित करने में सक्षम हैं जो किसी सामाजिक लोकतंत्रवादी को सुनने की इच्छा रखते हैं। हम ऐसे रास्ते और माध्यम जरूर तलाश कर सकते हैं जिसके जरिए हम सभी सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएं बुला सकें जो किसी लोकतंत्रवादी को सुनने की इच्छा रखते हैं। इसलिए कि वह (लोकतंत्रवादी) सामाजिक लोकतंत्रवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि ‘साम्यवादी हर क्रान्तीकारी आंदोलन का समर्थन करता है।‘ हमारी जिम्मेदारी है कि हम समस्त जनता के सामने सामान्य लोकतांत्रिक दायित्वों/कार्यों की व्याख्या करें और उस पर जोर डालें। वह भी समाजवादी धारणा में अपने विश्वास को एक क्षण के लिए भी छिपाए बगैर। यह व्यक्ति सामाजिक लोकतंत्रवादी है ही नहीं जो व्यवहार मंर भूल जाता है कि सामान्य लोकतांत्रिक सवाल को उठाने, उसे आवाज देने और उसका समाधान करने में हर किसी और किसी भी शक्ति से आगे रहना उसकी जिम्मेदारी है।
- हमें क्रान्तिकारियों का एक संगठन दो और हम रूस को पलट देंगे।
-‘हमें सपने देखने चाहिए।‘ मैंने ये शब्द लिखे और सावधान हो गया। मैंने कल्पना की कि मैं एक ‘एकता के कांफ्रेंस’ में बैठा हुआ हूं और मेरे समक्ष राबोचेये दायेलो के संपादकगण और लेखकगण मौजूद हैं। कामरेड मार्टिनोव उठते हैं और सख्ती से कहते हैं: मुझे तुमसे यह पूछने की इजाजत दो कि क्या एक स्वाधीन संपादकीय मंडल को पार्टी कमेटियों के विचारों के प्रति आग्रह रखने से पूर्व सपने देखने का अधिकार है? इसके बाद कामरेड क्रिशेवस्की उठते हैं और ज्यादा दृढ़ता से कहते हैः मैं पूछता हूं कि क्या एक मार्क्सवादी को सपने देखने का कोई हक है भी- यह जानते हुए कि मार्क्स के अनुसार मनुष्य हमेशा अपने आपको ऐसे दायित्वों के लिए, ऐसे कार्यों के लिए तैयार रखता है जो वह कर सके और यह भी कि रणनीति या रणकौशल एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे पार्टी के कार्यों का विकास होता है। और जो पार्टी के विकास के साथ ही विकसित होती है?
इन कठोर प्रश्नों के पीछे जो विचार मौजूद है वह मेरी रीढ़ की हड्डियों को कंपा देता है और मुझे ऐसा महसूस होने लगता है कि मैं कुछ भी करने की चाहत न रखूं और किसी अज्ञात स्थान में छिप जाऊं। मैं कामरेड पिसारेव के पीछे छिपने की कोशीश करूंगा।
‘यहां दरार ही दरार है’, पिसारेव ने सपने और हकीकत के बीच की दरार के बारे में लिखा। ‘मेरे सपने’ हो सकता है कि घटनाओं के घटने की स्वाभाविक गति से आगे दौड़ते हों अथवा यह भी संभव है कि मेरे सपने किसी स्पर्शरेखा के बाहर उड़ चलें, किसी ऐसी दिशा में जहां घटनाओं की किसी स्वाभाविक गति का कभी कोई अस्तित्व ही न हो। पहली स्थिति में मेरे सपने किसी तरह की कोई हानि नहीं करेंगे। ये कामगार लोगों की शक्ति और ऊर्जा को उल्टा बढ़ा सकते हैं और सहयोग भी कर सकते हैं। ऐसे सपनों में कुछ भी ऐसा नहीं है जो श्रम शक्ति को विचलित करेगा या फिर उसे पंगु बनाएगा। इसके विपरीत, अगर आदमी सपना देखने की योग्यता से पूरी तरह महरूम होता, अगर वह समय-समय पर आगे दौड़ने की क्षमता से मरहूम होता और मानसिक स्तर पर उस रचना की संपूर्ण तसवीर खींचने में सक्षम नहीं होता, जिसे आकार देने के लिए उसके हाथों द्वारा बस शुरूआत ही हुई हो, तब मैं इस बात की कल्पना कर ही नहीं पाता कि मनुष्य कला, विज्ञान और सक्रिय उद्यमों के क्षेत्र में जिन कार्यों की जिम्मेवारी लेता है और जिन्हें बहुत ही श्रमसाध्य और व्यापक स्तर पर मेहनत करके पूरा करता है, उनके लिए उसके पास प्रेरणा और ऊर्जस्विता कहां से और कैसे आती। अगर स्वपन देखने वाला व्यक्ति सपनों में गंभीरता से विश्वास करता हो तो सपने और हकीकत के बीच की दरार से कुछ भी बुरा नहीं हो सकता। अगर वह जिंदगी को ध्यानपुर्वक देखे, निरीक्षण करे, अपने निरीक्षणों की तुलना अपने हवाई महलों से करे और- जैसा कि आम तौर पर कहते है- वह अपनी फंतासियों को हासिल करने के लिए ईमानदारी और निष्ठा से काम करे। अगर सपनों और जिंदगी के बीच कुछ संपर्क कायम है तो सब कुछ अच्छा है।
हमारे आंदोलन में दुर्भाग्य से इस तरह के सपनों का अस्तित्व बहुत ही कम है। और इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार लोग वैसे लोग हैं जो अपने संयत विचारों और ‘ठोस’ के प्रति अपनी ‘नजदीकी’ पर गुमान करते हैं। वैधानिक आलोचना और अवैधानिक ‘पिछलग्गूपन’ के प्रतिनिधिगण हैं ये लोग।

-वी. आई. लेनिन की पुस्तक “क्या करें?”
- अवसरवाद का अर्थ होता है एक स्थिरचित, स्थायी और दृढ़ सिद्धांत की कमी।

नोटस लेखन का कार्य जारी है इसलिए इन्हें क्रमशः शेयर करता रहुंगा।

पुस्तक का अनुवाद इंदु भारती ने किया है और इसे ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड ने प्रकाशित किया है।
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