Friday, 14 December 2018

इतिहास के गवाक्ष से मंडी की शिवरात्रि - हिमाचल प्रदेश के भाषा एवं संस्कृति विभाग की द्वैमासिक पत्रिका में प्रकाशित लेख से साभार- समीर कश्यप



समाज की धार्मिक व्यवस्था को समझने के लिए उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पहलूओं का अध्ययन करना जरूरी होता है। इन सामाजिक पहलूओं के अध्ययन के लिए आवश्यक स्त्रोत मौजूद न हों तो मौजूदा परंपराओं से भी ऐतिहासिक समाजों को समझने के महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग सकते हैं और शोधार्थियों के लिए शोध-सामग्री भी। मंडी का शिवरात्रि महोत्सव भी इसी तरह के बहुमूल्य ऐतिहासिक स्त्रोतों को उपलब्ध करवाता है। जिसमें यहां के धार्मिक रीति रिवाजों और समृद्धशाली लोक सांस्कृतिक परंपरा का साक्षात्कार होता है। हर वर्ष मंडी में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव का मुख्य आकर्षण मंडी जिला के सराज, चौहार, बदार, सनोर, उत्तरसाल, बल्ह, तुंगल घाटी सहित विभिन्न छोरों से आने वाले सैंकडों देवी-देवताओं का देव समागम होता है। विगत करीब दो सौ सालों से आयोजित होने वाले इस उत्सव में हालांकि बहुत बदलाव आए हैं। लेकिन देव परंपरा का तानाबाना कमोबेश अपने आप को पुनर्उत्पादित करता हुआ लगभग वैसा ही चला आ रहा है। दरअसल 18वीं शताब्दी के उतरार्ध में इस उत्सव के जन्म लेने के समय की पड़ताल से जाहिर होता है कि वह दौर पहाड़ी रियासतों के भीतर और बाह्य रूप से उथल पुथल और संगठन का दौर था। मंडी रियासत के राजा सूरमा सेन के उतराधिकारी के रूप में ईश्वरी सेन 1788 ईसवी में शासक बने। इस दौर में रियासत के भीतर हो रहे षड्यंत्रों के चलते नाबालिग राजा ने कांगड़ा के राजा संसार चंद से सहायता मांगी। लेकिन संसार चंद ने मंडी पर हमला करके इसे लूट लिया और ईश्वरी सेन को बंदी बनाकर सुजानपुर के किले में बंद कर दिया। हालांकि कमलाह का किला जीतने में संसार चंद नाकामयाब रहा। इसके बाद संसार चंद ने बिलासपुर (कहलूर) रियासत पर हमले की तैयारी की तो बिलासपुर के राजा ने नेपाल के गोरखों से संपर्क के लिए उन्हें मदद को बुलाया। जिस पर अमर सिंह थापा के साथ स्थानीय पहाड़ी राजाओं ने संसार चंद को महल मोरियां के युद्ध में हराया और ईश्वरी सेन को उसके कब्जे से छुडाया। करीब 12 साल तक कैद में रहने के बाद राजा के वापिस आने की खुशी में रियासत के सभी क्षेत्रों के देवी देवताओं को मंडी में बुलाकर शिवरात्रि की शुरूआत हुई थी। तब से इस उत्सव की परंपरा लगातार जारी है। जिला के विभिन्न क्षेत्रों के देवी देवता अपने रथों के साथ ढोल नगाडों के लोमहर्षक स्वरों से गुंजायमान करते हुए मंडी पहुंचते हैं और सबसे पहले मंडी के सबसे अधिपति देवता माधो राव को नमन करते हैं। माधो राव का मंदिर जिस भवन में स्थित है उसे राजा सूरज सेन (1637 ई.) ने बनवाया था। सूरज सेन के 18 लड़के थे लेकिन उसके जीवन काल में ही सभी की मृत्यु हो गई और उत्तराधिकार के लिए उन्होंने एक चांदी की प्रतिमा बनवा कर इसे अपना राज्य सौंप दिया। इस प्रतिमा पर संस्कृत में उकेरा गया है कि ‘सूरय सेन, जो धरती का स्वामी है और दुश्मनों का नाशक है, ने यह दोष रहित पवित्र चक्रधारी और सभी देवताओं के गुरू महान माधो राव को भीमा सुनार से वीरवार 15 फाल्गुन 1705 को यानि 1648 ईसवी में बनवाया है। लगभग इसी समय कुल्लू के राजा जगत सिंह ने भी अपने राज्य को रघुनाथ जी को इसी तरह सौंप दिया था। इन दोनों राज्यों में संभवतया इसी समय वैष्णव धर्म पहली बार राज्य के धर्म के रूप में घोषित हुआ और राज्याश्रय मिलने के कारण प्रभुत्व हासिल करता गया। जबकि इन दोनों ही रियासतों में हमेशा से शक्ति और शाक्त उपासकों का धर्म अस्तित्व में रहा है। मंडी के अधिष्ठाता देवता भूतनाथ हैं जो शैव परंपरा के प्रभुत्वशाली प्रतीक कहे जा सकते हैं। शिवरात्रि महोत्सव देवता भूतनाथ को ही समर्पित है और यहीं पर पूजा अर्चना के बाद महोत्सव का शुभारंभ होता है। यह तथ्य जाहिर करता है कि भले ही राज्य अपना राजकीय धर्म कुछ और घोषित कर दे लेकिन प्रजा का धर्म थोपे जाने से नहीं बल्कि उनकी अपनी लोक परंपराओं के अनुसार ही चलता है। मंडी की देव परंपरा के बारे में रियासत के अधीक्षक रहे अंग्रेज अधिकारी एमरसन और जे.आर.एस पारसंस द्वारा 1920 ईसवी में प्रकाशित हुए पंजाब गजेटियर मंडी स्टेट में अनेकों विवरण मिलते हैं। जो देवपरंपराओं को समझने के लिए प्रारंभिक बिंदु साबित हो सकते हैं। इन ब्रिटिश अध्येताओं की मंडी की देव परंपरा के निहितार्थ क्या समझ थी और उन्होंने इसे किस तरह से समझा था, इसे जानने के लिए गजेटियर के संक्षिप्त विवरणों को अनुवाद के रूप में निम्न रूप से सांझा करना बेहद प्रासांगिक प्रतीत हो रहा है।
मंडी के ऊपरी पहाड़ी क्षेत्र का धर्म
हिमालयन क्षेत्र में धर्म यूं तो एक विस्तृत विषय है लेकिन इसका खाका कुछ मुख्य लक्षणों से दिया जा सकता है। इसमें मुख्य तत्व निःसंदेह कुल देवता या परिवार का देवता है। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देवता का आम अनुवाद जादू-टोने की क्रियाएं करने वाले देवता के रूप में ले लेने से उसके द्वारा पहाड़ों की धार्मिक व्यवस्था में निभाई जाने वाली महत्वपुर्ण भूमिका असपष्ट और धुंधली हो जाती है। यह सही है कि देवता का शाब्दिक अर्थ छोटा भगवान ही है। लेकिन इसका प्रयोग तिरस्कृत अर्थ में जादू टोना के क्रियाकलाप से संबंधित देवता के रूप में नहीं होता बल्कि यह छोटे देवता जिसका धर्म पैतृक देवता के इर्द गिर्द केन्द्रित होता है और वह उन बड़े देवों से भेद करता है जो आम लोगों की रोजमर्रा की पूजा से बहुत दूर कर दिये जा चुके हैं। इन पैतृक देवताओं का क्षेत्राधिकार व्यक्तिगत और भौगोलिक दोनों ही होता है। प्राचीन समय से अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले गांव, गांवों के समूह और घाटी में वह अपने प्रभुत्व और अधिकार का प्रयोग करते हैं। इतना ही नहीं वह अपनी प्रजा के पुरूष उत्तराधिकारियों पर प्राधिकार का दावा भी करते हैं। देवता लोगों को अपनी प्रजा या रिआया मानता है। इससे उसका भक्तों के साथ संबंधों का सही अनुमान लगाया जा सकता है। पहले यज्ञोपवीत के समय से ही परिवार का पुरूष सदस्य उनका अनुगामी बन जाता है। जबकि स्त्री उस समुदाय में शादी करने के बाद देवता की प्रजा बन जाती है। वंशानुगत प्रजा के सदस्य का निवास स्थान बदल जाने से भी वह देवता की सेवा से मुक्त नहीं हो सकता। उसे तब भी अपने परिवार के देवता के प्रति अपने कर्तव्य निभाने होते हैं। हालांकि वह नए घर के स्थानीय देवता को भी मान सकता है। भक्तों का यह दायित्व होता है कि वह अनाज या पैसों से देवता की पूजा के लिए होने वाले खर्चे में अपना योगदान करे। देवता के आदेशों के आज्ञाकारी होने के नाते विशेष मौकों पर परिवार के एक पुरूष सदस्य का उपस्थित होना जरूरी होता है। इसके बदले में उन्हें मंदिर के प्रबंधन के कार्यों के बारे में बोलने का, देवता के पास जाने का और सामुदायिक पर्वों में भाग लेने का हक होता है।
मंडी में स्थानीय देवता कई बार अधिपति देवता के अधीनस्थ होते हैं और वह रियासत कालीन राष्ट्रीय देवता माधो राव की प्रजा समझे जाते हैं। शिव और काली की कृपादृष्टि से यह देवता ताकत अर्जित करते हैं। पराशर और कमरूनाग भी अधिपति देवता की तरह ही हैं। इनके अंतर्गत अनेकों देवता हैं जो उनके प्रतिनिधि देवता समझे जाते हैं। इन प्रतिनिधि देवताओं के पास उनकी प्रजा सामान्य अवसरों पर आती है। लेकिन प्रतिनिधि देवता और उनकी प्रजा अधिपति देवता के पास होने वाले मेलों, त्योहारों में भाग लेती है। पराशर में यज्ञोपवीत की रस्म मंदिर में होती है तो वहीं पर उनके प्रतिनिधि देवताओं के मंदिरों में भी यह रस्म आयोजित होती है। अधीनस्थ देवता किसी नए श्रद्धालु को शामिल कर सकता है। नयी प्रतिमा बनाने पर इनमें जीवन डालने के लिए इसे देवता के रथ पर रखा जाता है।
हर देवता के आध्यात्मिक मंत्री – वजीर, द्वार-पाल और कोतवाल आदि होते हैं। इनमें से वजीर की भूमिका कई बार बहुत महत्वपूर्ण होती है। उसके मंदिर में कई बार अधिपति देवता से ज्यादा मन्नतें मांगी जाती हैं और ज्यादा भेंट चढ़ावा चढ़ता है। लोगों के अनुसार इसका कारण यह है कि उनमें यह मान्यता है कि आम कार्यों को करना वजीर का काम है और इन छोटे मोटे कार्यों से अधिपति देवता को छूट दी जाती है।
पारिवारिक देवताओं की प्रकृति
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंडी के अधिकांश ग्रामीण देवता तमाम पश्चिम हिमालय की तरह नाग समूह से संबंध रखते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से नाग कहे जाएं। हालांकि कुछ हैं जिनके नाम से ही उनकी प्रकृति उद्घाटित हो जाती है। नाग देवता के लिए नरैण या नारायण नाम का प्रयोग होता है। जबकि इसी संप्रदाय के अन्य देवता हिंदू देवताओं के नाम का छ्द्म वेष धारण किए भी मिल जाते हैं। कई बार उनकी असली पहचान करना मुश्किल हो जाता है लेकिन उनसे संबंधित मिथकों से उनके जन्म का रहस्योद्घाटन होता है। प्राचीन समय में भगवान कैसा है और उसका चरित्र क्या है के बारे में जब लोगों को खुले संदेह थे तो एक प्रारंभिक कल्पना थी कि वह नाग के आकार का होगा और नाग उपासना उस समय दूर-दूर तक फैली हुई थी। हालांकि नाग उपासना के प्रारंभ होने के बारे में अलग-2 सिद्धांत हैं। लेकिन यह दृढ़तापूर्वक निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिमालय में पुरातन समय से नाग की उपासना नदी के प्रतीक के रूप में और पानी के नियंत्रक के रूप में की जाती रही है। नाग आज भी पहाडों में मौसम के देवता, झरनों, नदियों-नालों, झीलों और जल स्त्रोतों के सृजक और संरक्षक माने जाते हैं। क्या जीवित नाग की पूजा से नदी का प्रतीक मानने को स्वीकार्यता मिली? इस प्रश्न के संबंध में निश्चित रूप से जवाब नहीं दिया जा सकता। लेकिन यह संभव है कि सरीसृप के स्वभाव ने संप्रदाय के विकास को प्रभावित किया होगा। इसलिए सभी पानी के स्त्रोतों से इसका संबंध अतुलनीय रूप से महत्वपूर्ण लक्षण है। इसके अलावा अन्य विशेषताएं भी हैं जो नाग उपासना को समर्पित की जा सकती हैं।
नाग और लिंग पूजा शिव और काली की उपासना का वर्णन करती है। इनका बहुत अंतरंग संबंध है और कोई कह सकता है कि पैतृक देवता दोनों में से एक या दूसरे सहयोगी की स्थानीय अभिव्यक्ति है। शिव के रूप में जिन्होंने शैव शीर्षक धारण कर लिया है उन्हें शुद्ध और साधारण नागों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। जबकि देवियों के संदर्भ में ऐसा नहीं है। हालांकि वह नाग संप्रदाय से संयोजित और घनिष्ठ संबंध में मिलती हैं लेकिन वह अलग देवता के रूप में कल्पना की गई जाहिर होती हैं।
पैतृक देवताओं में से अधिकांश उपरोक्त दोनों समूहों के अंतर्गत आ जाते हैं। हालांकि विभिन्न प्रकृति के अन्य देवता कभी कभार ही सामने आ सकते हैं क्योंकि अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में कुल देवता के एक विभिन्न श्रेणी के देवता में बदलने के लिए बहुत शक्तिशाली कारण और आधार चाहिए होता है। कई बार यह सिद्धांत प्रतिपादित किया जाता है कि इनमें से अधिकांश देवता हिंदू पौराणिक कथाओं के ऋषि या संत रहे हैं। विसंगतिपूर्ण और असंगत होने के कारण इसे खारिज किया जाना चाहिए।
देवता के प्रतीक
मंदिर में लगभग सभी जगह पत्थर की पिंडी या लिंग होता है जो संभवतया प्राचीन प्रतिमा मानी जाती है। लेकिन इसके अलावा देवता के मंदिर के बाहर जाने और दिखने वाले प्रतीक के रूप में देवता के रथ का प्रयोग होता है। रथ के दो भाग होते हैं। प्रतिमा और दो लकड़ी के खंभे (जिन्हें स्थानीय भाषा में आगलियां कहते हैं) जिस पर प्रतिमा उठायी जाती है। यह खंभे अक्सर सिल्वर बर्च (भोजपत्र) या किसी अन्य पेड़ की बहुत लचीली लकड़ी से बनाए जाते हैं। मुख्य प्रतिमा सोना, चांदी और तांबा धातु के पंक्तिबद्ध मोहरों से बनी होती है। देवता का रथ अधिकांशतया आदमकद होता है और सामान्य तौर पर देवता का प्रतिनिधित्व करता है। त्योहारों के अवसर पर देवता जब रथ के रूप में सामने आता है तो प्रतिमा को कीमती कपडों, आभूषणों और फूलों से सजाया जाता है। अक्सर रथ के ऊपर कपड़े या याक के बालों की छतरी होती है लेकिन मंडी के कुछ देवी-देवता इससे अलग शैली में भी होते हैं और उनके रथ की प्रतिमा गोलाकार होने की बजाय तिकोनी या पिरामिडिकल होती है। प्रतिमा के बीच से गुजरे लकडी के खंभों को देवता के प्रमुख श्रद्धालुओं द्वारा कंधे पर उठाया जाता है। रथ को कंधे पर उठाने वाले को उस देवता के समाज के समूह का पुरूष सदस्य होना जरूरी है। रथ को कंधे पर उठाने वाले अक्सर हाथों में बिना उंगलियों के दस्ताने पहनते हैं क्योंकि जब देवता की आत्मा हलचल करती हुई प्रतिमा को एक ओर से दूसरी ओर को पलटती है, उछालती है तो रथ के साथ चलने वाले सहायक इसका संतुलन साधने की कोशिश करते हैं लेकिन अक्सर इससे रथ उठाने वालों के हाथ छिल जाते हैं। हरेक देवता के अपने वाद्य यंत्र होते हैं। ढोल, नगाड़े और झांझ बजाने वाले हमेशा तो नहीं पर अक्सर निम्न जाति के होते हैं जबकि करनाल, तुरही बजाने वाले हमेशा कनैत या कृषक ब्राह्मण होते हैं।
देवता की आत्मा की जीवशक्ति का संकेत रथ का कंपन और दोलन है। रथ को उठाने वाले इसके प्रभाव में होते हैं और उनकी हल्की सी हरकत रथ को पता लग जाती है और देवता ऊपर-नीचे होकर नाचने लगते हैं दोनों ओर लचकते हुए झूमने लगते हैं और अचानक तेजी से आगे बढ़ते हैं क्योंकि उससे प्रेरणा पाने वाले सेवक अपने ऊपर मजबूत होती आत्मा की ताकत को अनुभव करते हैं। कुछ श्रद्धालु दैवीय प्रेरणा के कारण मानो जड़वत हो जाते हैं और कुछ देवता की प्रेरणा के कारण प्रतिमा के सामने कांपने, उछलने और चीखने लग जाते हैं। जब एक से अधिक देवता मौजूद हों तो एक दूसरे को हमेशा सम्मान देते हैं। ऐसे अवसरों में आत्मा विशेष रूप से तीव्र होती है और दोनों देवता खुशी की भावना में एक दूसरे को नमन करते हैं। गांव के त्योहारों में तथा अन्य अवसरों पर देवता और उनके श्रद्धालु इकट्ठा होकर नृत्य करते हैं। रथ और वाद्य यंत्र बजाने वाले बजंतरी बीच में नृत्य करते हैं जबकि गूर या अन्य रथ उठाने वाले अधिकारी की अगुवाई में समूह के सदस्य उनको घेरकर नृत्य करते हैं। इस नृत्य को पहाड़ी नाटी या नाट कहा जाता है।
भविष्यवाणियां
देवता का मानवीय माध्यम उसका गूर या भविष्यवक्ता होता है और वह देवता की तरफ से बात करता है। गूर असली ताकत का दावा नहीं करता बल्कि वह अपनी शक्ति पूरी तरह से देवता से प्राप्त करता है। जिसके बिना उसकी अपनी प्रेरणा कोई मदद नहीं कर सकती। मंडी में उसका कार्य आमतौर पर वंशानुगत होता है लेकिन कई बार अपवाद भी होते हैं। लेकिन सभी मामलों में देवता ही अपने माध्यम का चुनाव करता है। बेटा तब तक उत्तराधिकारी नहीं बन सकता और जब तक पिता को इस पद से वापिस नहीं बुला लिया जाता और वापिस बुला लेने की इस प्रक्रिया में आमतौर पर कई महीने लग जाते हैं। देवता द्वारा बुलाये जाने की प्रक्रिया में अचानक उस पर आधिपत्य हो जाता है और पहला उद्वेग अक्सर उग्र तरीके का होता है। नया गूर भेड़ या बकरे की बलि देता है और उसका रक्त पीता है जिससे मान्यता के अनुसार वह देवता के नजदीकी संपर्क में जा सके। उसे देवता की देवदार की लकड़ी से बनी चौकी जो बाधा डालने वाले प्रभावों से अवरोधी का कार्य करती है, पर औपचारिक रूप से स्थापित किया जाता है। इस पर बैठकर उसे देवता की जिह्वा से सुंदर वचन कहने की अनुमति मिल जाती है। जहां देवता के गूर का पद वंशानुगत नहीं होता वहां पर देवता द्वारा की जाने वाली भविष्यवाणियों के विभिन्न तरीकों में से किसी तरीके का प्रयोग करके नया गूर चयनित किया जाता है। लेकिन यह कल्पना हमेशा संरक्षित की जाती है कि गूर देवता के द्वारा चुना हुआ वाहक होता है।
अधिकांशतया कनैत ही गूर होते हैं लेकिन ग्रामीण ब्राह्मण भी कई बार इस पद पर चुने जाते हैं और कभी कभार कोली भी चयनित होते हैं। कनैतों के पारिवारिक देवता का गूर कोली होने से देवता की मूल प्रकृति के बारे में निष्कर्ष निकालना न्यायोयित नहीं माना जा सकता। गूर का पद खाली होने के दौरान किसी निम्न जाति के व्यक्ति का अचानक उद्वेग में आना उसकी नियुक्ति के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।
एक वर्ग के रूप में गूर कुछ वर्जनाओं के तहत कार्य करता है। उन्हें पद पर रहने के दौरान अपने बाल नहीं काटने होते हैं। वह चपड़े के जूते नहीं पहन सकते और जमीन पर हल चलाने या खेती-बाड़ी का काम नहीं कर सकते। कुंवारापन या ब्रह्मचर्य सामान्य नियम नहीं है लेकिन देवता से जरूरी परामर्श करने से पहले व्रत और परहेज रखा जाता है। गूर अपनी भविष्यवाणी नंगे सिर देता है और मंडी के कुछ भागों में छाती भी खुली रखी जाती है लेकिन यह रस्में अलग-2 जगह अलग हैं। कुछ गूर भविष्यवाणी करने से पहले अपने आप को लोहे की जंजीरों (सांगल) से पीटते हैं जबकि अन्य लोहे की सलाई को गालों में से गुजारते हैं। भारी जोश और उतेजना के बीच गूर और सामान्य श्रद्धालु आग पर कूदते हैं, मशालें छीन लेते हैं। वह अपने आप को देवता का अस्थाई अवतार समझते हैं और उस समय उन्हें देवता ही माना जाता है।
इस तरह की उत्प्रेरणा अचानक उद्वेग से काफी भिन्न है जो कई बार आलौकिकरण का संकेत देता है लेकिन प्रायः यह अप्रसन्नता या दोष व दुश्मनी को इंगित करता है। भूत के अप्रत्याशित प्रकटन के लिए पीड़ित का ईलाज किया जाता है और अगर यह अनिष्ट करने वाली साबित होती है तो बुरी आत्मा के लिए या तो झाड-फूंक या शांति के लिए प्रयत्न किए जाते हैं।
हिमालय के भविष्यवक्ताओं या गूरों ने शक्ति प्राप्त करने की वह स्थिति हासिल नहीं की है जो उनके कार्यों की प्रकृति को देखते हुए होनी चाहिए। ब्राह्मणों के वर्चस्व से बचाने में पहाड़ी आदमी काफी चालाक और स्वतंत्र हैं और वह अपने ही पुजारियों के हाथ में पड़ना चाहते हैं। गूर का पद लाभकारी नहीं होता और न ही यह अपनी तरह की कठिनाइयों के बगैर होता है। अगर देवता की व्यवस्था प्रजा को संतुष्ट करने में असफल होती है तो इसका दोष देवता को नहीं दिया जा सकता बल्कि यह उसके मानवीय प्रवक्ता का होता है। अगर गूर अपने तौर तरीकों को ठीक नहीं करे तो उसे पद खाली करना होता है। गूर के कपट को जांचने के लिए चालाकी से नियंत्रण रखा जाता है। गूर का कार्य देवता के फैसलों को संप्रेषित करना और संदेश की दैवीय उत्पति सुनिश्चित करना है। जबकि कई बार वह संप्रेषित किए जा रहे फैसले की प्रकृति को नजरअंदाज कर देता है। उदाहरणतया एक आदमी रोग से ग्रस्त हो गया और उसने देवता से इसके कारणों के बारे में परामर्श किया। इस मामले में या तो कोई डायन, चुड़ैल या बुरी आत्मा हो सकती है या फिर किसी देवता की दुश्मनी। इसलिए वह मिट्टी के तीन एकसमान गेंद बनाता है। पहले में वह डायन या चुड़ैल के लिए घास का एक टुकड़ा डालता है। जबकि दूसरे में भूत-प्रेत या बुरी आत्मा के लिए लकड़ी का टुकड़ा और तीसरे में देवता के लिए थोड़ा सा अन्न डाला जाता है। इसके बाद उत्प्रेरण के आवेश में बाहर इंतजार कर रहे गूर को बुलाया जाता है जो अपना हाथ एक गेंद पर रखता है। वह इसके बाद फिर से बाहर चला जाता है और गेंदों को फिर से अलग रूप में पंक्तिबद्ध किया जाता है। अगर एक ही गेंद को तीन बार छुआ जाता है तो इससे मामले की पूरी तरह से पहचान कर ली जाती है। इस तरह की योजनाओं से बहुत निश्चित सीमाएं उस हद तक बांध दी जाती हैं जिससे व्यावसायिक माध्यम अपने यजमानों को धोखा दे सकें। इसके अलावा देवता तक पहुंच बनाने के सीधे तरीके भी हैं। जैसे कि उदाहरणस्वरूप पड़ोसी से विवाद हो जाने के मामले में अपनी नीयत जाहिर करने और इसमें अपने लिए कोई वरदान या कसम इच्छित की जाती है।
इन विवरणों के माध्यम से हम देव परंपरा की विशिष्टताओं के प्रति अपनी समझ सपष्ट कर सकते हैं। पुनश्च यह दोहराना जरूरी है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संदर्भों के परिवर्तन के साथ-साथ देव परंपरा और शिवरात्रि महोत्सव में भी परिवर्तन का पहलू ज्यादा अहम हो चुका है। लेकिन इन परंपराओं में परिवर्तन के पहलू पर अभी भी सिलसिलेवार शोधकार्य नहीं हो पाए हैं। जिसके चलते इनके स्वरूप में आए बदलावों को अभी तक रेखांकित नहीं किया जा सका है। ऐसे में परिवर्तन के पहलू के अंतर्गत ही लोक जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ी इन परंपराओं की निरंतरता के पहलू को समझे जाने की आवश्यकता और कार्यभार अभी शेष है।

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Sunday, 9 December 2018

महिला ने चालाकी से बुजुर्ग महिला का मकान अपने नाम करवाया



मंडी। शहर में करीब एक करोड़ रूपये की कीमत का मकान बिना कोई राशि दिए अपने नाम करवा कर बुजुर्ग विधवा महिला को भूमीहीन करने का मामला प्रकाश में आया है। करीब 86 वर्ष की पीडित महिला ने उपायुक्त, जिला पुलिस अधीक्षक और न्यायलय से न्याय प्रदान करने की गुहार लगाई है। जानकारी के अनुसार भगवान मुहल्ला में कृष्णा देवी विध्वा राम विलास का रिहायशी मकान है जिसकी कीमत करीब एक करोड़ रूपये है। लेकिन एक महिला ने कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर धोखाधड़ी से इसे अपने नाम पर विक्रय कर दिया है। हालांकि इस मकान पर कब्जा अभी तक बुजुर्ग महिला का ही है। बुजुर्ग और सन्तानहीन होने के कारण कृष्णा देवी की देखभाल उनकी बेटी की तरह पाली वन्दना कर रही है। हाल ही में वन्दना की एक बेटी भी इसी मकान में पैदा हुई है और वह इन दिनों भी बुजुर्ग महिला के साथ अपनी बच्ची के साथ रह रही हैं। दूसरों पर निर्भर बुजुर्ग महिला की संपत्ति को हड़पने के लिए एक महिला ने कुछ अन्य लोगों के साथ चालाकी से काम करते हुए उसे पहले से तैयार किए दस्तावेजों को पंजीकरण अधिकारी के सामने स्वीकार करने को कहा। हालांकि विक्रय पत्र बनाने के दिन कोई राशि बुजुर्ग महिला को अदा नहीं की गई। विक्रय पत्र के करीब एक सप्ताह के बाद उक्त महिला ने बुजुर्ग महिला के नाम पर एक खाता खुलवा कर मात्र दो हजार रूपये की राशि उसमें डलवाई। इतना ही नहीं उक्त महिला ने अपने को ही बुजुर्ग महिला के इस खाते में नामिनी बना दिया और खाते की अपडेट की जानकारी के लिए भी अपना ही नंबर बैंक को दिया। विगत 3 दिसंबर से उक्त महिला तथा अन्य लोगों ने अपने आपको मकान का मालिक घोषित करते हुए बुजुर्ग महिला को किरायेदारों सहित मकान खाली करवाने के बारे में धमकाना शुरू कर दिया। इससे बुजुर्ग महिला द्वारा पाली गई लड़की वंदना कुछ संदेह हुआ और उसने सदर तहसील में इस बारे जानकारी हासिल की तो पता चला कि उक्त महिला ने अन्य लोगों के साथ मिलकर बुजुर्ग महिला के मकान को विक्रय कर दिया है। ऐसे में बुजुर्ग महिला ने उपायुक्त मंडी, जिला पुलिस अधीक्षक और न्यायलय में अर्जियां देकर न्याय की गुहार लगाई है। बुजुर्ग महिला कृष्णा देवी के अधिवक्ता दीपक शर्मा और गीतांजली शर्मा ने बताया कि विक्रय पत्र बनवाने वाली महिला का पति गैर हिमाचली है। महिला के पति ने विक्रय पत्र के बाद करीब 1,90,000 रूपये की राशि बुजुर्ग महिला के नाम पर खोले गए उस खाते में जमा करवाई है जिसे उसकी पत्नी ही संचालित करती है। ऐसे में यह मामला टिनैंसी एंड लैंड रिफार्म एक्ट के तहत भी आता है। उन्होने बताया कि बुजुर्ग महिला को सरकारी पैंशन लगी हुई है और उसे अपना जीवन निर्वाह करने के लिए किराएदारों से भी किराए के रूप में पर्याप्त राशि मिल जाती है और उसकी इस बुढ़ापे की आयु में अपना मकान बेचने की कभी सोच नहीं रही है। उन्होने बताया कि बुजुर्ग महिला को उतराधिकारी बनाने के लिए दबाब बनाया गया और उससे धोखाधडी करके उसका कीमती मकान बिना पैसे दिए छीनने की कोशीश की गई है। इतना ही नहीं पंजीकरण अधिकारी ने भी मकान की कीमत का आकलन करने की कोशीश नहीं की और महिला को भूमिहीन हो जाने से नहीं रोका। उन्होने बताया कि इस मामले में कार्यवाही करने हेतु उपायुक्त मंडी और जिला पुलिस अधीक्षक को शिकायतें दी गई हैं। इसके अलावा न्यायलय में भी आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) की तहत प्राथमिकी दर्ज करने की अर्जी दी गई है।
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बिजली कुनेक्शन के लिए एनओसी की शर्त हटाने का किया स्वागत



मंडी। प्रदेश सरकार द्वारा बिजली कुनेक्शन के लिए संबंधित विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने की शर्त को हटाने का मंडी की संस्था पब्लिक वेलफेयर फाउंडेशन ने स्वागत किया है। संस्था ने प्रदेश सरकार से आग्रह किया है कि इसी प्रकार की अधिसूचना सिंचाई एवं जन स्वास्थय विभाग की ओर से जारी करके प्रदेशवासियों के घरों को पानी के कुनेक्शन देकर उन्हें राहत पहुंचाई जाए। पब्लिक वेलफेयर फाउंडेशन के पदाधिकारी अमर चंद वर्मा, हितेन्द्र शर्मा, उत्तम चंद सैनी, समीर कश्यप, एम एल शर्मा और प्रदीप परमार सहित अन्य सदस्यों ने प्रदेश सरकार द्वारा हिमाचल प्रदेश इलैक्ट्रिसिटी स्पलाई कोड, 2009 में संशोधन करके पंचायत, नगर परिषद और टाउन एंड कंटरी प्लानिंग से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने की शर्त को हटाने का स्वागत किया है। फाउंडेशन के अनुसार इस फैसले से निश्चित रूप से भारी संख्या में लोगों के भवनों को बिजली कुनेक्शन मिलने से उन्हें राहत मिलेगी। फाउंडेशन के पदाधिकारियों ने बताया कि टीसीपी व नगर परिषद की एनओसी न होने के कारण हजारों भवनों में बिजली और पानी के कुनेक्शन नहीं लग पाए हैं। इस फैसले से लोगों को बिजली का कुनेक्शन संभव हो जाएगा है। फाउंडेशन ने प्रदेश सरकार के इस कदम की सराहना करते हुए मांग की है कि इसी तर्ज पर जनपक्ष में फैसला लेते हुए आईपीएच विभाग में भी अधिसूचना जारी करके लोगों को पानी का कुनेक्शन देने के आदेश पारित किए जाएं।
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शहीद भगत सिंह विचार मंच ने याद किए क्रान्तिकारी और लेखक यशपाल



मंडी। यशपाल जयंती के अवसर पर शहीद भगत सिंह विचार मंच की ओर से एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें प्रसिद्ध क्रान्तिकारी और लेखक यशपाल के जीवन और उनकी कृतियों पर चर्चा की गई। इस मौके पर विचार मंच के संयोजक समीर कश्यप ने क्रान्तिकारी और लेखक के रूप में यशपाल के जीवन पर प्रकाश डाला। उन्होने यशपाल की पुस्तक सिंहावलोकन और मार्क्सवाद के दो लेखों का पाठ भी किया। प्रसिद्ध साहित्यकार रवि राणा शाहिन ने इस मौके पर कहा कि यशपाल के क्रान्तिकारी जीवन मूल्यों से हमें सीख लेनी चाहिए। उनका साहित्य आज भी उतना ही प्रासांगिक है जितना पूर्व में रहा है। हिमाचल प्रदेश से संबंध रखने वाले साहित्यकारों में से चंद्रधर शर्मा गुलेरी और यशपाल ने अपने-2 लेखन से देश के उत्कृष्ठ साहित्य की श्रेणी में महत्वपूर्ण योगदान को रेखांकित है। भाषा एवं संस्कृति विभाग के पूर्व सचिव बी आर जसवाल ने बताया कि वह कई दशकों से यशपाल के परिवार से व्यक्तिगत रूप जुडे रहे हैं। वह कई बार उनकी धर्मपत्नी प्रकाशवती पाल और बेटे आनंद यशपाल से मिले हैं। उन्होने विभाग द्वारा समय-2 पर यशपाल की याददिहानी के लिए आयोजित कार्यक्रमों तथा सरकार की ओर से उनकी स्मृति में किये गए कार्यों का विवरण रखा। सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ता लवण ठाकुर ने इस अवसर पर कहा कि आजकल के साहित्यकारों में कथनी और करनी में अंतर मिलता है। जबकि यशपाल ने जिस तरह का क्रान्तिकारी जीवन जीया उसकी अभिव्यक्ति उनके लेखन में भी साफ देखी जा सकती है। अधिवक्ता रूपिन्द्र सिंह मन्हास ने कहा कि हमें यशपाल जयंती के अवसर पर उनके जीवन मूल्यों से शिक्षा और प्रेरणा लेनी चाहिए और क्रान्तिकारियों के सपनों को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। इस अवसर पर अधिवक्ता सतीश ठाकुर, कमल सैनी, विनोद ठाकुर, मनीष कुमार कटोच, हर्ष चंदेल, तेजभान सिंह, तरूण दीप और रूप लाल सहित मंच के अन्य सदस्यों ने भाग लिया।
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Monday, 3 December 2018

स्त्री-पुरूष होर सदाचार (प्रसिद्ध क्रान्तिकारी होर मशहूर लेखक यशपाला री कताब मार्क्सवादा मंझ शामिल लेखा रा मंडयाली रूपांतरण)






समाज व्यक्तियां होर परिवारा रा समूह हा। समाजा री व्यवस्था मंझ आउणे वाला कोई बी परिवर्तन व्यक्तियां होर परिवारा रे गठना पर प्रभाव पाए बगैर नीं रैही सकदा। परिवार- स्त्री पुरूषा रा सम्बन्ध- समाजा रा केन्द्र हा। समाजा री आर्थिक अवस्था मनुष्यां जो जेस अवस्था मंझ रैहणे कठे मजबूर करहाईं, तेस ढंगा ले मनुष्या रा परिवार बणहां। कुछ समाजा मंझ परिवार बौहत बड़े-बड़े होर सम्मलित हुआएं, कुछ समाजा मंझ छोटे-छोटे। किथि परिवार पिता रे वंशा ले हुआएं होर किथि माता रे वंशा ले। स्त्री, समाज री उत्पति रा स्त्रोत हा पर एता रे सौगी हे से कई तरहा के शारीरिक रूपा मंझ पुरूषा ले कमजोर बी ही। पर इन्हा सभी गल्ला रा प्रभाव समाजा मंझ स्त्री री स्थिति पर पौंहां।
समाज जेबे आपणी आदि अवस्था मंझ था ता मनुष्य जंगला मंझ घूमी-फिरी के जंगली फला होर शिकारा के आपणा पेट भरी लैहां था। तेस वक्त समाजा बिच मातृसत्ता थी सम्पत्ति पर स्त्री रा अधिकार हुआँ था। पुरूष ता शिकार ल्याउणे रे कामा बिच हे संलग्न रैंहा था। आसामा रे खासी कबीलेयां मंझ आज बी मातृस्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था चली करहाईं। जेबे मनुष्य खेती होर पशुपालना के आपणा निर्वाह करहाएं थे, तेस वक्त कबीलेयां मंझ भूमि रे भागा या उत्पति रे दूजे साधना कठे लडाईयां हुंदी लगी। इन्हां लडाइयां मंझ शारीरिक रूपा ले स्त्री रे कमजोर हुणे रे करूआं तेसारा नेतृत्व नीं रैहा। एतारे अलावा स्त्री जो लड़ाई लड़ने कठे अगे भेजणा खतरे ले खाली नीं था। स्त्रियां रे लड़ाई बिच मारे जाणे या तिन्हा रे कैदी हुई के शत्रु रे हाथा पई जाणे ले कबीले मंझ पैदा हुणे वाले पुरूषा री संख्या मंझ घाटा पई जाहां था होर कबीला कमजोर हुई जाहां था। इधी कठे स्त्री लड़ाई बिच पीछे रखणी शुरू कर दिती, बल्कि सम्पत्ति री दूजी चीजा साहीं तिन्हारी बी रक्षा करनी शुरू हुई गई। इन्हां परिस्थितियां मंझ सम्पत्ति साहीं स्त्री रा बी उपयोग बी कितेया जांदा लगेया। तेस वक्त साधना रा विकास नीं हुणे रे करूआं पैदावारा रे कामा मंझ विशेष शारीरिक श्रम करना पौहां था। स्त्री री आपेक्षा पुरूष पैदावारा रे कामा जो ज्यादा अच्छी तरहा के करी सकहां था, इधी कठे बी स्त्री जो पुरूषा री प्रधानता मनी के तेसरी सम्पत्ति बणी जाणा पया। तेस वक्त वैयक्तिक सम्पत्ति रा चलन नीं था, इधी कठे स्त्री सम्पूर्ण कबीले या कुटम्बा री सांझी सम्पति मनी जाहीं थी।
विकासा के जेबे वैयक्तिक सम्पति रा काल आया, स्त्री भी पुरूषा री वैयक्तिक सम्पति बणी गई। तेसारा काम पुरूषा रे घरेलू कामा जो करना होर आपणे स्वामी रे कठे सन्ताना रे रूपा बिच उत्तराधिकारी पैदा करना हुई गया पर स्त्री दूजे घरेलु पशुआं साहीं हे उपयोगा री वस्तु नी बणी सकी। पुरूषा साहीं हे तेसारा बी विकास हुणे रे करूआं, तेसारे बी पुरूष रे साहीं हे मनुष्य हुणे रे करूआं, पुरूषा री सम्पति मंझ ठीक पुरूषा ले बाद तेसारा दर्जा बणया। आलंकरिक भाषा बिच एता जो बोलियें ताः वैयक्तिक सम्पति या परिवारा रे राजा मंझ पुरूष राजा हा होर स्त्री मंत्री। जीवा रे विकासा रे नाते स्त्री होर पुरूषा मंझ कुछ बी अन्तर नीं हा। समाजा री रक्षा कठे स्यों दोनों एक समान जरूर हे। पुरूष अगर सामाजिक परिस्थितियां रे करूआं शारीरिक बला मंझ या मस्तिष्का रे कामा मंझ ज्यादा सफलता हासिल करी सकहां ता स्त्री रा महत्व पुरूषा जो उत्पन्न करने, परिवार होर समाजा जो संगठित होर व्यवस्थित करने मंझ कम नीं हा। पुरूष समाजा रा अस्तित्व स्त्री रे बगैर सम्भव नीं हा। आपणे व्यक्तिगत होर सामाजिक विकासा कठे पुरूषा कठे स्त्रियां जो आपणे साहीं अवस्था मंझ रखणा आवश्यक रैहिरा, इधी कठे पुरूषा रे अधीन हुई के बी स्त्री तेसरे बराबर हे आसना पर बैठदी रैहिरी।
स्त्री होर पुरूषा मंझ इतनी समानता हुणे पर भी जीवना रे उपाया जो हासिल करने कठे स्त्री आर्थिक क्षेत्रा मंझ पुरूषा रे अधीन रैही। परिवारा रे हिता रे ख्याला ले पुरूषे स्त्री जो आपणे वशा बिच रखणा जरूरी समझेया। जेबे तका समाज भूमि री उपजा ले या घरेलू धन्धेयां ले आपणे जीवन निर्वाहा रे प्रदार्थ प्राप्त करदा रैहा, स्त्री री अवस्था परिवार होर समाजा मंझ एहडी हे रैही। स्त्री री खोपड़ी मंझ बी पुरूषा साहीं सोचणे-विचारने होर उपाय तोपणे री सामर्थ्य ही इधी कठे पुरूष तेसा जो गल़े मंझ रस्सी बान्ही के नीं रखी सकया। समाजा रे कल्याणा होर हिता रे विचारा ले स्त्री जो बी पुरूषा साहीं हे सामाजिक व्यवस्था री रक्षा कठे जिम्मेदार ठहराया गइरा पर स्त्री रे व्यवहारा पर एहड़े प्रतिबंध बी लगाए गए ज्यों सम्पत्ति रे आधारा पर बणिरे परिवारा री रक्षा कठे जरूरी थे। उदाहरणा रे रूपा बिच बोली सकाहें भई स्त्री रा एकी बकता बिच एक हे पुरूषा के सम्बन्ध रखणा ताकि तेसारे दो व्यक्तियों री सम्पत्ति बणने ले झगड़ा नी उठो, समाजा मंझ सन्ताना रे बारे मंझ झगड़ा नी उठो भई सन्तान केसरी ही, केस पुरूषा तेसा सन्ताना रा पोषण करना, सन्तान केसरी उत्तराधिकारी हुणी। यों सभ एहड़े झगड़े थे जिन्हा रे करूआं परिवारा रा नाश हुई सकहां था, इधी कठे स्त्री रे आचरणा रे बारे मंझ एहड़े नियम बनाये गये भई झगड़ा उत्पन्न ना हों।
पतिव्रत धर्म--- मतलब स्त्री रा एकी हे पुरूषा के सम्बन्ध रखणा- स्त्री रा सभी थे बड़ा धर्म दसया गया ताकि व्यक्तिगत सम्पत्ति रे आधारा पर बणिरा परिवार होर समाज तहस-नहस नीं हुई जाए। जेहड़ा ऊपर दसया भई स्त्री बुद्धि री दृष्टि ले पुरूषा रे समान हे सामर्थ्यवान ही, इधी कठे पशुआं साहीं तिन्हारे गल़े मंझ रस्सी बान्ही देणे ले काम नीं चली सकदा था। तेसा जो समझाई के होर विश्वास दुआई के हे समाजा मंझ मुख्य पुरूषा रे हिता रे अनुसार चलाणे री जरूरत थी। इधी कठे पुरूष होर समाजा रे हाथा मंझ जितने बी साधन धर्म, रीति, रिवाजा बगैरा रे रूपा मंझ थे, तिन्हा के स्त्री जो पुरूषा रे अधीन हुईके चलणे री शिक्षा दिती गई। पराधीनता होर शासना जो आपुहे स्वीकार करना हे तेसा कठे सम्मान होर आदरा री कसौटी निश्चित किती गई। तेसा जो समझाया गया भई इथी चाहे से पुरूषा रा मुकाबला भले हे करी लौ पर परलोका मंझ तेसा जो पछताणा पौणा, क्योंकि तेसारी स्वतंत्रता भगवाना री आशा होर धर्मा ले विरूद्ध ही।
औद्योगिक युग आउणे पर जेबे सम्मिलित कुटुम्ब आर्थिक कारणा के बिखरी गए, जेबे पुरूषा जो जीवन निर्वाह कठे शैहरा-शैहरा भटकणा पया, तेस वक्त सम्पूर्ण कुटुम्बा जो सौगी लेईके फिरना संभव नीं रैहा। मशीना रा विकास हुई जाणे ले पैदावारा रे साधन एहड़े हुई गए भई कठोर शारीरिक परिश्रमा री जरूरत कम पौंदी लगी होर स्त्रियां बी इन्हा कामा जो करदी लगी। बौहत बार एहड़ा बी हुआ भई जीवना कठे आवश्यक पदार्था री संख्या बधी जाणे ले, जेता जो दूजे शब्दा बिच इहां बोल्या जाई सकहां भई जीवना रे माना रा दर्जा (स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग) ऊंचा हुई जाणे ले कल्हे पुरूषा री कमाई तेसरे परिवारा कठे काफी नीं रैही। तेबे स्त्री होर पुरूष दोन्हों मिली के उपार्जन करदे लगे होर घरा रा खर्चा चलांदे लगे। एसा अवस्था मंझ पुरूषा रा स्त्री पर से अधिकार नीं रैहा जे कृषि होर घरेलू उद्योग-धन्धेयां री प्रधानता रे युगा मंझ था। जेस ऐतिहासिक क्रमा रा जिक्र आसे करी करहाएं, तेतारी वर्तमान अवस्था औद्योगिक विकासा ले आईरी। यूरोपा बिच ये विकास ज्यादा तेजी के हुआ इधी कठे तिथी लोके ये ज्यादा उग्र रूपा मंझ अनुभव कितेया। एस विकासा रा प्रभाव समाजा रे रैहण-सैहणा रे ढंगा पर पौणे ले स्त्री री अवस्था पर बी पया। तिन्हा जो बी पुरूषा साहीं हे सामाजिक होर राजनैतिक अधिकार मिलधे लगे पर वैयक्तिक सम्पत्ति री प्रथा जारी रैही क्योंकि से पूँजीवादा कठे जरूरी थी। परिणामस्वरूप स्त्री री पराश्रयता बी जारी रैही। फर्क ये था भई अब स्त्री जो पुरूषा रा दास नीं बोली के तेसरा साथी बोल्या गया। तेसा जो उपदेश दितेया गया भई परिवारा री रक्षा कठे तेसा जो पुरूषा रे आश्रय मंझ रैहणा पौणा। मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली मंझ स्त्री री स्थिति एस हे नियमा पर ही। यूरोपिय पूँजीवादी सदाचार स्त्रियां जो निर्बल होर दयनीय दसुआं तेसारे प्रति दया दिखाणे रा व्यवहार हा। पर समाजा मंझ पुरूषा रे समान तेसारी स्थिति अझी बी नीं ही। तेसा कठे घरेलू जगता री सीमा रा व्यवधान हे सम्मानजनक समझेया जाहां।
भारता बिच औद्योगिक विकासा के हुणे वाला परिवर्तन देरा ले शुरू हुआ, बल्कि सुले-सुले हुई करहां। इथी स्त्रियां री अवस्था मंझ तितना परिवर्तन नीं हुई पाया। एस देसा मंझ जमींदार श्रेणी होर पूँजीपति श्रेणी री स्त्रियां अझी पुराणी अवस्था मंझ हे ही पर मध्यम श्रेणी री अवस्था पराले आर्थिक परिवर्तना रा प्रभाव डुग्घा पइरा होर एसा श्रेणी री स्त्रियां री स्थिति मंझ परिवर्तन आई करहां।
यूरोपा मंझ पूँजीवाद पूरा विकास करी चुकणे ले बाद अब ठोकरा खांदा लगी गइरा। पुरूषा री अपेक्षा जीवन निर्वाह रे संघर्षा मंझ कम योग्य हुणे रे करूआं स्त्रियां री अवस्था पुरूषा ले बी गइरी गुजरी री ही। बेकारी होर जीवन निर्वाहा री तंगी रे करूआं लोक ब्याह होर परिवार पालणे रे झगड़े मंझ फसणा नीं चाहंदे। स्त्रियां कठे घरा बैठीके बच्चे पालणे होर निर्वाह रे कठे रोटी-कपड़ा हासिल करदे रैहणे रा मौका बी नीं रैहा। तिन्हां जो मिलां, कारखानेयां, खानां, खेतां होर दफ्तरा मंझ मजदूरी करीके पेट पालणा पौहां। अगर ब्याह हुई जाहां ता माता बणने रा तिन्हारा काम ज्यों-त्यों निभी जाहां पर एस अवस्था मंझ तिन्हा जो पुरूषा रा स्वामित्व स्वीकार करना हे पौहां। आज बी तिन्हारे श्रम रा मूल्य पुरूषा रे श्रम रे बराबर नीं समझेया जांदा होर कई क्षेत्र तिन्हा कठे वर्जित हे। अगर ब्याह नीं हुआ होर शरीरा री स्वाभाविक प्रवृति रे करूआं से माता बणी गई ता तिन्हारी मुसीबत ही। प्रसवा री अवस्था बिच तिन्हारा निर्वाह रा सवाल बौहत कठिन हुई जाहां होर प्रसवकाला मंझ हे स्त्री जो ज्यादा सहायता री जरूरत रैहाईं। प्रसवकाला मंझ अगर स्यों कामा पर नीं जाई सको ता तिन्हारी जीविका छूटी जाहीं होर प्रसवकाला ले बाद जेबे तिन्हां जो एकी रे बजाय दो जीवा री जरूरता पूरी करनी पौहाईं ता स्यों असहाय हुई जाहीं। एताके समाजा मंझ उत्पन्न हुणे वाली संताना रे पोषण होर अवस्था पर क्या प्रभाव पौहां, ये समझी लैणा कठण नीं हा।
स्त्रियां री एस अवस्था रे करूआं देशा री जनता रे स्वास्थय पर जे बुरा प्रभाव पौहां, एतारे करूआं विवश हुई के कई पूँजीवादी सरकारे स्त्रियां री रक्षा रे कठे मजदूरी सम्बन्धी कुछ नियम बनाइरे। इन्हारे अनुसार प्रसवा रे वक्त स्त्रियां जो तनख्वाह समेत छुट्टी मिल्हाईं होर बच्चा हुणे पर काम करदे वक्त माता जो दूध बगैरा प्याणे कठे सुविधा बी देणी पौहाईं। इन्हा कानूनी अड़चना ले बचणे कठे मिला ज्यादातर विवाहित स्त्रियां जो होर खास कर बच्चे वाली स्त्रियां जो नौकरी देणा पसन्द नीं करदी। यूरोपा मंझ 80 ले 90 प्रतिशत युवतियां ब्याह थे पैहले केसी ना केसी तरहा री मज़दूरी या नौकरी करिके आपणा निर्वाह करहाईं या आपणे परिवारा जो सहायता देहाईं। पर ब्याह हुई जाणे पर तिन्हा जो जीविका कमाणे री सुविधा नीं रैंहदी। इन्हा कारणा के स्त्रियां ब्याह न हुणे पर गर्भ गिराई देणे कठे मजबूर हुई जाहीं। जीविका रा कोई उपाय नीं मिलणे ले तिन्हा जो पुरूषा रे मन बहलावा कठे आपणे शरीरा जो बेची के पेट भरने कठे मजबूर हुणा पौहां।
पैदावारा रे साधना पर वैयक्तिक अधिकारा रे आधारा पर कायम पूँजीवादी समाजा मंझ जीवन निर्वाह रा ढंग एहडा हा भई स्त्री व्यक्ति री सम्पत्ति होर मिल्कियत हे रैहणी। से या ता पुरूषा रे अधिपत्या मंझ रैहीके तेसरा वंश चलाणे, तेसरे उपयोग-भोगा मंझ आउणे री वस्तु रैहणी या फेरी आर्थिक संकट या बेकारी रे शिकंजेयां मंझ निचोड़ी जांदे समाजा रे तंग हुंदे दायरे ले, आपणी शारीरिक दुर्बुलता रे करूआं- जेस गुणा रे करूआं से समाजा जो उत्पन्न करी सकहाईँ- समाजा मंझ स्वतंत्र जीविका रा स्थान नीं पाईके कल्हे पुरूषा रे शिकारा री वस्तु बणदी जाणी। अगर से एसा स्थिति जो स्वीकार नीं करघी ता माता बणने रे प्राकृतिक अधिकारा ले वंचित रैहंगी। साधनहीन ग़रीब होर मध्यम श्रेणी री स्त्रियां री एहडी हे अवस्था ही। साधनसम्पन्न होर अमीर श्रेणी री स्त्रियां हालांकि भूख होर गरीबी के नीं तड़फदी पर तिन्हारे जीवना मंझ बी आत्मनिर्णय होर विकासा रा द्वार बन्द हा। समाजा कठे स्यों एकी प्रकारा री बोझ ही क्योंकि स्यों कल्हा खर्च हे करहाईं, समाजा कठे उत्पन्न कुछ नीं करदी। संतान पैदा करने होर पुरूषा जो रिझाणे रे सिवा स्यों अक्सर कुछ बी नीं करदी इधी कठे तिन्हा जो पुरूषा रा मोहताज रैहणा पौणा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथे इन्हा स्त्रियां रे विषया बिच लिखिरा भई सम्पन्न श्रेणी री स्त्रियां उपयोगी नीं हुईके केवल शोभा मात्र ही।
मार्क्सवादा रे विचारा ले स्त्रियां री ये अवस्था ना स्त्रियां रे विकासा रे कठे होर ना हे समाजा री बेहतरी कठे कल्याणकारी ही। स्त्रियां भी पुरूषा साहीं मनुष्य ही होर तिन्हारे कन्धेयां पर बी समाजा रा उत्तरदायित्व तितना हे हा जितना पुरूषा रे कंधेयां पर हा। जेबे तका स्त्री रा शारीरिक होर मानसिक विकास निर्बाध रूपा ले नीं हुंगा, तेसाले उत्पन्न संताना बी उचित रूपा ले उन्नत नीं हुणी। स्त्री जो केवल उपयोग होर भोगा री वस्तु बनाई के रखणा मनुष्या रे जन्मा रे स्त्रोता जो बिगाड़ना हा। समाजा री उन्नति होर वृद्धि कठे स्त्रियां रे मानसिक होर शारीरिक विकास होर समाजा मंझ स्त्रियां रे समान अवसर हुणे चहिए। मार्क्सवाद स्वीकार करहां भई सन्तान उत्पन्न करना कल्हा स्त्री रा हे उत्तरदायित्व नीं हा बल्कि ये काम सम्पुर्ण समाजा रे कामा मंझ एक महत्वपूर्ण काम हा, मनुष्य समाजा रा अस्तित्व इधी पर हे निर्भर करहां। ये महत्वपूर्ण काम ठीक रूपा ले हुणे कठे परिस्थितियां अनुकूल हुणी चहिए। स्त्री जो संतानोत्पत्ति मजबूर हुई के या दूजे रे भोगा रा साधन बणी के नी करनी पौओ, से आपणे आपा जो समाजा रा एक उत्तरदायी, स्वतंत्र अंग समझी के आपणी इच्छा के संतान पैदा करे। संतान पैदा करने कठे समाजा री स्त्रियां जो एहड़ी परिस्थितियां हुणी चहिए, ज्यों माता होर सन्ताना रे स्वास्थय होर सुविधा रे अनुकूल हों। गर्भवती हुणे री अवस्था मंझ स्त्री कठे एस तरहा री परिस्थितियां हुणी चहिए भई से आपणा स्वास्थय ठीक रखी सके होर स्वस्थ संताना जो जन्म देई सको। पूँजीवादी समाजा मंझ साधनहीन होर पूँजीपति दोन्हों हे श्रेणियां कठे एहड़ी परिस्थितियां नीं हीं। साधनहीन श्रेणी री स्त्रियां जो गर्भ हुणे री अवस्था मंझ उचिता ले ज्यादा परिश्रम करना पौहां होर पूँजीपति श्रेणी री स्त्रियां बिल्कुल निष्क्रय रैहणे करूआं स्वस्थ संतान पैदा नीं करी सकदी।
समाजवादी होर समष्टिवादी समाजा मंझ स्त्री बी समाजा रा उत्पादक या पैदावार करने वाली अंग हुणी। तेसा जो कल्हे पुरूषा रे भोग होर रिझावा रा साधन नीं समझया जाणा। मार्क्सवाद मनुष्य प्रकृति मंझ आनन्द, विनोद होर रिझावा री जगहा बी स्वीकार करहां पर से पुरूषा जो प्रधान होर स्त्री जो केवल साधन मात्र नीं मनदा। पूँजीवादी समाजा मंझ स्त्री माता बणने रे कामा रे करूआं पुरूषा (क्योंकि पुरूष जीविका कमाई के ल्यावां) रे सामहणे आत्मसमर्पण करने कठे मजबूर हुई जाहीं। समाजवादा मंझ स्त्री रे गर्भवती हुणे ले प्रसवकाला होर फेरी परिश्रम करने लायक हुई जाणे तका तेसारी आवश्यकता री पूर्ति होर स्वास्थया री देखभाला री जिम्मेवारी समाजा पर हुणी। प्रसवा ले दो-ढाई महिना पैहले ले लेईके प्रसव ले एक महीना बादा तक, चिकित्सका री राय रे मुताबिक, तेसा समाजा रे खर्चे पर उचित सुविधा के रैहणा। संतान पैदा हुणे ले बाद समाजा जे काम तेसा जो करने कठे देणा, तेता मंझ बच्चे री देख भाला रा समय होर सुविधा बी तेसा जो देणी। बच्चे रे पालने-पोसणे होर शिक्षा री जिम्मेदारी बी गरीब स्त्री री हे नीं बल्कि पूरे समाजा री हुणी। एस तरहा के संतान पैदा करना स्त्री कठे भय होर मुसीबता रा कारण नीं हुई के उत्साह होर प्रसन्नता रा विषय होर सामाजिक काम हुणा।
कई पूँजीवादी शंका करहाएं भई मार्क्सवादा मंझ स्त्री जो स्वतंत्र करिके निराश्रय बनाई दितेया जाणा, स्त्री परा ले एकी पुरूषा रा बन्धन हटाई के तेसा जो समाजा री सांझी भोग्य वस्तु बनायी दितेया जाणा। एता के अनाचार होर व्यभिचार फैल्हणा होर मनुष्या पशुआं साहीं व्यवहार करदे लगणा। मार्क्सवाद स्त्री-पुरूषा रे सम्बन्धा जो स्त्री-पुरूषा री प्राकृतिक आवश्यकता होर कर्तव्या रा सम्बन्ध मनहां। इधी कठे से दोनों मंझा केसी रा एक-दूजे रा दास बणी जाणा जरूरी नीं समझदा। एतारे सौगी हे से स्त्री-पुरूषा रे सम्बन्धा मंझ उच्छृंखलता बी ठीक नीं समझदा। केसी स्त्री या पुरूषा रा होरियां रे शारीरिक भोगा कठे आपणे शरीरा जो किराये पर देणा से अपराध समझां। समाजवादी समाजा मंझ जीविका रे साधन आपणी योग्यता होर अवस्था रे मुताबिक सभी जो समान रूपा ले प्राप्त हुणे, इधी कठे जीविका कठे तेस समाजा मंझ स्त्री जो व्यभिचारा के जीविका कमाणे री जरूरत नीं हुणी। ज्यों लोक पूँजीवादी समाजा रे संस्कारा रे करूआं एहडा करघे स्यों अपराधी समझे जाणे। संक्षेपा मंझ स्त्री-पुरूष होर ब्याह रे सम्बन्धा मंझ मार्क्सवाद समाजा रे शारीरिक होर मानसिक स्वास्थया रे विचार ले पूर्ण स्वतंत्रता देहां पर उच्छृंखलता होर गड़बड़ या भोगा रा पेशा बनाई लैणे होर एतारे सौगी आपणी वासना कठे होर व्यक्तियां होर समाजा री जीवन व्यवस्था मंझ अड़चन पाणे जो से भयंकर अपराध समझां।
--- समीर कश्यप
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मंडी में बनाया जाए आधुनिक पुस्तकालयः शहीद भगत सिंह विचार मंच

मंडी। प्रदेश की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी मंडी में आधुनिक और बेहतरीन पुस्तकालय के निर्माण की मांग की गई है। इस संदर्भ में शहर की संस्...