छोटी-छोटी पहाडियों में अवस्थित मंडी रियासत
का इतिहास करीब 1100 ए डी के बाद की सेन वंशावली के कारण लगभग ज्ञात है। लेकिन
यहां के प्राचीन इतिहास के बारे में अभी भी ज्यादा जानकारी प्रकाश में नहीं आई है।
हालांकि कुल्लूत, त्रिगर्त (कांगडा) और चंबा के इतिहास के बारे में इससे पहले
की जानकारियां उपलब्ध हैं। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि व्यास नदी घाटी की कोई
सभ्यता नहीं रही हो। जबकि सभ्यताएं नदियों के किनारे ही बसी हों। ऐसे में मंडी को
प्राचीन इतिहास से गायब मान लेना सही नहीं हो सकता। मंडी में सेन वंश के आने से
पहले यहां पर स्थानीय प्रमुखों (राणाओं) का जिक्र मिलता है जिन पर अधिपत्य जमा कर
उनकी जमीनों पर मंडी रियासत की बुनियाद रखी गई। मंडी के इतिहास के प्राचीन समय को
जानने के लिए बौध जानकारियां कारगर हो सकती हैं। बौध ग्रंथों में मंडी का जिक्र
जोहार या सोहार नाम से आता है। बौध जानकारियों के मुताबिक जोहार नाम का राज्य मंडी
और रिवालसर क्षेत्र में था। जहां पर गुरू पदम संभव ने तपस्या की थी। इसी दौरान
स्थानीय लडकी मंदरवा उनकी शिष्या बनी। उसके परिजनों को गुरू पदम संभव के साथ उसका
सानिध्य पसंद नहीं था और उन्होने दोनों को कष्ट पहुंचाने की कोशीश की। लेकिन उनका
बाल बांका न बिगड सका और बाद में उन्होने दोनों के संबंध का स्वीकार कर लिया।
इतिहासिक स्त्रोत बताते हैं कि तिब्बत में संकट आने पर गुरू पदम संभव को वहां
बुलाया गया और उन्होने उस संकट को दूर किया था और बौध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार
प्रसार किया था। यह भी पता चलता है कि तिब्बत में संकट के दौरान वहां के
धर्मग्रंथों व साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जोहार भेज दिया गया। बौध धर्म के
अनुयायियों को विश्वास है कि यह धार्मिक शिक्षाएं जोहार (रिवालसर) में कहीं छिपाई
या रखी गई हैं। जिसके चलते बौध धर्म के अनुयायी कडी मशक्कत के बावजूद रिवालसर आना
जरूरी समझते हैं। वहीं पर मंदरवा से जुडी हुई एक याद और कहानी मंडी के खुआराणी
मंदिर से भी जुडी है। बताते हैं कि यहीं पर मंदरवा और गुरू पदम संभव को कुंएं में
फैंक दिया गया था। लेकिन वह सुरक्षित रहे। इसलिए इस जगह को खुआराणी कहा जाता है।
इस स्थल पर बौद्ध श्रद्धालु दर्शन करने के लिए जरूर आते हैं। इसके अलावा
विक्टोरिया पुल के नजदीक पुरानी मंडी में व्यास नदी किनारे की एक गुफा में भी
बौद्ध अनुयायी दर्शनार्थ जाते हैं। मंडी शहर के टारना मुहल्ला में नागार्जुन चट्टान भी स्थित है। नागार्जुन बौध धर्म के प्रसिद्ध गुरू रहे हैं। हालांकि वह दक्षिणी
भारत से संबंध रखते थे। लेकिन इतिहास इस बारे में सपष्ट है कि बौध दर्शन के विद्वान
तथा दार्शनिक उतरी भारत, पंजाब और पेशावर तक फैले थे और उनका उतरी भारत में काफी
प्रभाव रहा है। हो सकता है कि बौध दार्शनिक नागार्जुन, नागसेन, असंग आदि अनेकों बौद्ध विद्वानों से यह क्षेत्र परिचित रहा
हो। ऐसे में मंडी में नागार्जुन चट्टान का होना यहां पर बौध धर्म की उपस्थिति का
संकेतक और सूचक तो लगता ही है। टारना की पहाडी में माता श्यामाकाली का मंदिर है
जिसे श्याम सेन के समय में बनाया गया था। टारना की पहाड़ी पर स्थित होने के कारण
इसे टारना माता भी कहते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि मंदिर में तारा माता है
इसलिए इसे टारना या तारना भी कहा जाता है। बौध काली को ही तारा मानते हैं। हालांकि
हिंदू धर्म में भी तारा की पूजा काली और तारा के रूप में ही होती है। एक और संकेत
यह मिलता है कि टारना पहाडी का नाम मंडी के राजा सिद्ध सेन से मधुर संबंध होने के
कारण तिब्बत के राजा तारानाथ के नाम पर पडा हो जो बाद में टारना बन गया हो। मनमोहन
आईसीएस के लिखे मंडी के इतिहास में राजा सिद्धसेन के समय की एक घटना का जिक्र आता
है। सिद्ध सेन का समयकाल श्याम सेन से पहले का है। घटना के मुताबिक एक तिब्बती
उडता हुआ आता था और राजा के बेहडे (महल) की साथ वाली पहाडी पर विश्राम के लिए
रूकता था। एक दिन जब वह विश्राम कर रहा था तो उसकी आंख लग गई। इसी बीच राजा सिद्ध
सेन ने उस गुटके (किताब) को अपने कब्जे में ले लिया जिसकी मदद से वह उडता था। आंख
खुलने पर उसने राजा से गुटके की मांग की और कहा कि वह हरिद्वार से गंगाजल लेकर
तिब्बत जाता है और अगर वह तिब्बत नहीं पहुंचा तो उसे भारी परेशानी उठानी पड सकती
है। राजा बहुत दयालु था उसने तिब्बती को गुटका लौटा दिया। जब वह तिब्बत पहुंचा तो
राजा तारानाथ ने उससे देरी का कारण पूछा। जिस पर उसने सारा किसा सुनाया। राजा यह
सुनकर दंग रह गया कि इतने करिशमाई गुटके को प्राप्त करने के बाद भी इसे लौटा दिया।
वह राजा की दयालुता से प्रसन्न हो गया और उसने अगले ही दिन यह गुटका राजा सिद्धसेन
को लौटाने को कहा। कहा जाता है कि इस करिश्माई गुटके को प्राप्त कर लेने के बाद
राजा सिद्धसेन को बहुत ताकत मिल गई थी। अगर वह चाहता तो अपने राज्य का विस्तार
करने की महत्वाकांक्षा को पूरा कर सकता था। लेकिन वह बहुत अध्यात्मिक राजा था।
उन्होने राज्य विस्तार की बजाय अपनी अध्यात्मिक प्यास को बुझाने के लिए मंडी में
बहुत सारे मंदिर बनवाए। जिनमें, पंचवक्तर, सिद्ध काली, सिद्ध भद्रा, सिद्ध गणपित और सिद्ध शंभु आदि अनेकों
प्राचीन धरोहरें शामिल हैं। बताया जाता है कि राजा के अंतिम समय के दौरान जब उन्हे
लगा कि इस गुटके का कोई दुरूपयोग कर सकता है तो उन्होने इसे व्यास नदी की तेज धारा
में बहा दिया। जिसके बाद इस गुटके का कोई पता नहीं लग पाया। दरअसल, शोध की कमी के चलते मंडी के प्राचीन इतिहास की कडियां नहीं
जोडी जा सकी हैं। सेन वंश के इतिहास से पहले के समय को जानने के लिए बौद्ध ग्रंध व
संदर्भ बहुत प्रकाश डाल सकते हैं। लेकिन अधिकतम बौद्ध संदर्भ तिब्बती भाषा में
होने के कारण इनसे सुत्रों को जोडने में अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है। हालांकि
प्रसिद्ध इतिहासकार, लेखक व अध्येता राहुल सांस्कृत्यायन ने इस दिशा में भागीरथी
प्रयास किए थे। लेकिन इन प्रयासों को निष्कर्षों तक पहुंचाने का कार्य इतिहासकार
शायद अभी तक नहीं कर पाए हैं और यही कारण मालूम पडता है कि हम अभी भी मंडी के
प्राचीन इतिहास की गहन गुफाओं तक प्रकाश नहीं पहुंचा पाए हैं।
समीर कश्यप
33/9
भगवान मुहल्ला, मंडी, हि प्र., 9816155600, sameermandi.blogspot.com
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