एआईएसएफ के बारे में कुछ विचार...
मैंने भी एआईएसएफ के बैनर तले मंडी कालेज की छात्र राजनिती में भाग लिया है और बाद में शिमला विश्विद्यालय में भी एसएफआई के साथ काम करते हुए एआईएसएफ का गठन किया था। लेकिन बाद में एआईएसएफ का संगठन बिखरता गया और आज लगभग समाप्त हो गया है। जहां कालेजों में एआईएसएफ और एसएफआई की टक्कर हुआ करती थी, आज ऐसे हालात हैं कि कालेजों में कांग्रेस-भाजपा समर्थित छात्र संगठनों ने अपना दबदबा तो कायम कर दिया है। पर शिक्षा और संघर्ष को लेकर चलने वाले वाम संगठनों की अनुपस्थिति का खामियाजा छात्र विरोधी निर्णयों के खिलाफ उचित प्रतिरोध न होने से भुगतना पड रहा है। हिमाचल प्रदेश के विश्विद्यालय व कालेजों में छात्र संगठनों की कथित हिंसा को लेकर इन दिनों सीएसए के गठन के चुनाव के लिए बैन लगाकर छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों की हत्या कर दी गई है। क्या यह हिंसा नहीं है। छात्रों को कहा जा रहा है कि मेरिट में आने वाले छात्र ही उनके प्रतिनिधि होंगे। लेकिन सवाल खडा होता है कि हिंसा तो पंचायत, विधानसभा और संसद के चुनावों में भी हो सकती है तो क्या इन चुनावों पर भी बैन लगाया जा सकता है। क्या इनके लिए भी मैरिट देखी जाएगी। तो फिर छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीने जाने के पीछे क्या मंशा है। क्या इसके पीछे निर्णय लेने से छात्रों को वंचित कर देना है। ताकि वह शिक्षा का व्यवसायीकरण करते हुए रूसा सिस्टम लगा सकें और समय-2 पर भारी फीस वृद्धि व कई घोटालों में संलिप्त रहें। जब छात्र वर्ग 18 साल की उम्र पूरा करने पर मतदान में भाग लेकर देश की राजनिति को निर्धारित करने में सक्षम हैं तो फिर उन्हे अपने कालेज-विश्विद्यालयों में छात्र हितों के निर्णयों को लागू करवानेें की स्वतंत्रता क्यों नहीं हो। ऐसे हालातों में वाम छात्र संगठनों खासकर एआईएसएफ का ना होना लोकतंत्र की बहाली के संघर्ष को कमजोर और कुंद तो करता ही है। छात्रों और युवाओं को देश की वैज्ञानिक दिशा और दशा के निर्माण में आगे आना चाहिए। वही इस देश की उम्मीद हैं।
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