Friday, 7 November 2014

क्षमा



क्षमा

कितना सुखद है
क्षमा मांग लेना
कि पल में ही
घुलती जाती
मष्तिष्क के चारों ओर
घिर आई
तनाव की नाडीनुमा रेखाएं।
कितना सहज और शांत
होता जाता
हिलोरें मार रहा जो
शिराओं में अपराधबोध का
ज्वारभाटा बन।
कितना आहत भरा है
धंसते जाना
पत्थरीली जमीन में
गिरते जाना
सिर के बल
अपनी ही नज़रों में
गल्ती कबूलने की 
चेष्टा के साथ।
कितना राहत भरा है
बदलते जाना
शांत झील के पानी में
पंखों को फैलाये
आसमान में नयी उडान भरना
क्षमा के दो अक्षरों की
सुगंध के बीच
प्रायश्चित का एक और
अवसर मिल जाने पर। ----समीर कश्यप 7-11-2014. sameermandi@gmail.com

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