Wednesday 29 July 2020

भारत पर मार्क्स



“न्यूयार्क ट्रिब्यून” में मार्क्सने भारतके बारेमें जो लेख लिखे और एंगेल्स के लिए लिखे पत्रोंमें भारतका जिस तरह वर्णन किया, उससे पता लगता है, कि मार्क्सका भारत-सम्बन्धी अध्ययन कितना गम्भीर था और भारत की स्वतंत्रता से वह कितने खिन्न तथा उसके भविष्यके प्रति कितने आशावान थे। इन्हें लिखनेमें मार्क्सने स्याही-कलम और जहाँ-तहाँसे सुनी-सुनाई बातें पर्याप्त नहीं समझी थी, बल्कि ब्रिटिश म्युजियममें अंग्रेजोंने जो सामग्री भारतके बारे में जमा कर रखी थी, उसका पूरी तौरसे इस्तेमाल किया था।
आज भी हमारे यहाँ मौके-बेमौके गाँवके गणराज्य या पंचायत राज्य की महिमा गाई जाती है, लेकिन उस गणराज्यकी क्या रूप-रेखा थी, इसका हमें पता नहीं है। मार्क्स ने अपने 25 जून 1853 के “ट्रिब्यून” में छपे लेख में पार्लियामेन्टमें पेश होनेवाली रिपोर्ट पर लिखा थाः
1. ग्राम गणराज्य का स्वरूप---“गाँव भौगोलिक तौर देखने पर कुछ सौ या हजार एकड़ आबाद या परती जमीन का टुकड़ा है। राजनैतिक तौर से देखने पर कस्बा या संगठित नगर-सा मालूम होता है। उसके बाकायदा निम्न नौकर और अफसर होते हैः
पटेल (या गाँवका मुखिया)---गाँवके कामोंका साधारण तत्वावधान इसके ऊपर रहता है। वह गाँववालोंके झगड़ोंका फैसला करता, पुलिसकी देख-भाल करता, और गाँवके भीतर कर वसूल करनेका काम करता है। यह काम ऐसा है, जिसे अपने वैयक्तिक प्रभाव, व्यक्ति तथा परिस्थितिसे सूक्ष्म परिचयके कारण वह बहुत अच्छी तरहसे करनेकी क्षमता रखता है।
पटवारी (कर्णम्)---खेतों तथा उससे सम्बन्ध रखनेवाली हर बातका लेखा रखता है।
चौकीदार---गाँवके जुर्मों, अपराधोंका सुराग लगाता है और जानेवाले यात्रियोंकी रक्षा करते हुए एक गाँवसे दूसरे गाँवमें पहुँचाता है।
प्रहरी का काम ज्यादातर गाँवके भीतरसे सम्बन्ध रखता है। उसके कामों में फसलकी रखवाली और उसके तौलनेमें सहायता देना है।
सीमापाल गाँवकी सीमाकी रक्षा करता है, और विवाद होने पर उसके बारेमें गवाही देता है।
जलपाल तालाब और नहरों की देख-भाल करता है, और खेतीके लिए पानी बाँटता है।
ब्राह्मण गाँवके लिए पूजा करता है।
अध्यापक गाँवमें बच्चोंको बालूके ऊपर लिखना-पढ़ना सिखाता है।
ज्योतिषी साइत बतलाता है, आदि।
आम तौरसे ये नौकर और कर्मचारी हर गाँवके संगठन में मिलते हैं, लेकिन देशके किसी-किसी भागमें इनकी संख्या कम होती है, और ऊपर बतलाए कर्तव्यों और अधिकारोंमेंसे एकसे अधिक एक ही आदमीके ऊपर होते हैं और कहीं-कहीं उपरोक्त व्यक्तियोंकी संख्या और अधिक होती है। इस तरहकी सीधी-सादी सरकारके अधीन देशके निवासी अज्ञात कालसे रहते चले आ रहे हैं, गाँवकी सीमा शायद ही कभी बदली हो। यद्यपि कभी-कभी गाँवोंको चोट पहुँची, युद्ध, अकाल या महामारीने उन्हें बरबाद किया है, किन्तु वही सीमा, वही स्वार्थ और बल्कि वही परिवार युगोंसे चलते आ रहे हैं। राज्योंके टुटने-फूटनेकी ग्रामीणों को कोई पर्वाह नहीं। जब तक गाँव अखंड है, तब तक उन्हें इसकी चिन्ता नहीं, कि वह किस शासकके हाथमें हस्तान्तरित किया गया अथवा कौन उसका राजा बना---उसकी आन्तरिक अर्थनीति अछूती बनी रहती है। पटेल अब भी गाँववालोंका मुखिया है और वह अब भी गाँवका छोटा मुंसिफ मजिस्ट्रेट और कलेक्टर—लगान जमा करने वाला है।
आज से 100 साल पहले, गदर से चार पहिले “भारतमें ब्रिटिश शासन” नामक अपने लेखमें “न्यूयार्क-ट्रिव्यून” 25 जून 1853 में उपरोक्त पंक्तियों को उद्धृत करते हुए मार्क्सने लिखा था---“ यह छोटा अचल सामाजिक संगठन अब बहुत अंशोंमें नष्ट हो चुका या हो रहा है, किन्तु इसका कारण ब्रिटिश कर उगाहनेवाले और ब्रिटिश सिपाही उतने नहीं हैं, जितने कि ब्रिटिश भाप-इंजन और ब्रिटिश मुक्त व्यापार।“
2. ग्राम गणराज्यके कारण अकर्मण्यता---उसी सन के 14 जूनके अपने एक पत्रमें मार्क्सने भारतके ग्राम-संगठनके बारेमें एंगेल्सको लिखा था—
“एसियाके इस भागमें इस तरहकी जो गति-शून्यता---बाहरी राजनीतिक सतहपर जो लक्ष्यरहित कुछ गति सी भले ही दिखलाई पड़ती हो। एक दूसरे पर अवलम्बित हो परिस्थितियोंके कारण हैः 1. सार्वजनिक काम (तालाब, नहर आदिका बनाना) केन्द्रीय सरकारके जिम्में था, 2. इसके अतिरिक्त सारा साम्राज्य, कुछ थोड़ेसे शहरोंको छोड़कर, ऐसे गाँवोंसे बना है, जिनका अपना एक बिल्कुल अलग संगठन है, और उनकी अपनी एक खुद छोटी सी दुनिया हैः
“ये काव्यमय गणराज्य, जो पड़ोसी गाँवोंसे सिर्फ अपने गाँवकी सीमाओं की ही तत्परतासे रक्षा करना जानते थे, अब भी हालमें अंग्रेजोंके हाथों में आए उत्तरी भारतके कितने ही भागोंमें काफी सुरक्षित रूपमें पाये जाते हैं। मैं नहीं समझता, एसियाई निरंकुशताकी गति-शून्यताके मजबूत कारण ढूँढने के लिए किसी और चीजकी जरूरत है।...अंग्रेजों द्वारा इन पुराने अचल रूपों का तोड़ा जाना भारतके यूरोपीकरणके लिए आवश्यक बात थी। उगाहनेवाला अकेला इसमें सफलता नहीं प्राप्त कर सकता था। गाँवोंके अपने स्वावलम्बी स्वरूपको दूर करनेके लिए उनके पुराने उद्योग-धन्धेका बरबाद होना जरूरी था।“
भारतीय मानव-समाजकी सहस्त्राब्दियोंसे चली आती इस तरहकी निश्चलता, प्रवाह-शून्यता---जो पहली सदी तक पाई जाती थी---ही वह कारण है, जिससे भारतीय मानव ग्रामभक्तिसे उठकर देशभक्ति तक नहीं पहुँच सका और न सामूहिक तौरसे बाहरी दुश्मनोंका मुकाबिला कर सका। इस ग्राम-पंचायतने शिल्पियोंको सहस्त्राब्दियों पूर्वके वसूलों रूखानियोंसे, किसानोंको हंसुओं-फालो से चिपटा रहने दिया। शासकवर्ग जानता था, कि यह ग्राम-संगठन भारतीय का मर्म-स्थान है, वहाँ पर पड़ी चोटको वह सहन नहीं कर सकता, मुकाबिला किए बिना नहीं रह सकता, इसीलिए उसने उसे नहीं छेड़ा, जैसेका-तैसा रहने दिया और उसी पर भारतीय ग्रामीण बोल उठे---
कोउ नृप होइ हमें का हानी। (तुलसीदास)
यदि वह भारतीय ग्राम्य-गणराज्य पहले ही टूटकर विस्तृत संगठनमें बद्ध हुआ होता, निश्चित ही साधारण जनता शासकोंकी निरंकुशता का मुकाबिला करने की ज्यादा क्षमता रखती, फिर जिस स्वेच्छाचारिताको हम भारतके पिछले दो हजार वर्षोंके इतिहासमें देखते हैं, क्या वह रह पाती?
3. सामाजिक परिवर्तन का आरम्भ
(क) आक्रमणोंकी क्रीड़ा-भूमि---सहस्त्राब्दियोंसे भारतीय समाज मुक्त प्रवाह नहीं, प्रवाह-शून्य नदीका छाड़न हो गया है। आजभी धार्मिक हिन्दू गंगाकी छाड़नमें नहाना बुरा समझता है, वह उसके लिए मुर्दाके साथ स्नान पुण्य छीननेवाला स्नान है। वैसे भी ऐसे पानीके पाससे गुजरनेपर नाकमें सड़ाँद की बू आने लगती है। भारतीय मानव समाज 19वीं सदी तक ऐसा ही छाड़न था। उसे अपने पुराणपनपर अभिमान रहा। उसने बहते पानीके समाजमें लाने की ओर ध्यान तक नहीं दिया।
मार्क्सके शब्दोंमें “सारे गृहयुद्ध, विदेशी आक्रमण, क्रान्तियाँ, विजय, अकाल—चाहे जितने ही तीव्र और नाशकारी रहे हैं, पर वह (भारतमें) सत्तहसे भीतर नहीं घुस सके।“
जिस परिवर्तन से दुनिया बहुत पहिले गुजर चुकी थी, भारतको उसे अपनाने के लिए मजबूर करना अंग्रेजोंका काम था। अंग्रेज उन विजेताओं की तरह भारतमें नहीं आये थे, जो भारतमें आकर भारतीय बन भारतके हो गए—वह यूनानियों, शकों, तुर्कों, मुगलोंकी भाँति हिन्दू नहीं बन गए। अंग्रेजोंमें पहिले के विजेताओंसे अनेक विशेषतायें थी। दूसरे विजेता विजेता जरूर थे, किंतु साथ ही वह सभ्यतामें उस तलपर नहीं पहुँचे हुए थे, जिसपर हिन्दू पहुँच चुके थे, इसलिए इतिहासके सनातन नियमके अनुसार राजनीतिक विजेता विजित जाति की श्रेष्ठ सभ्यता द्वारा पराजित हो गये। अंग्रेज हिन्दू सभ्यतासे कहीं ऊँची सभ्यताके धनी थे, इसलिए हिन्दू विजित जाति उन्हें अपनेमें हजम नहीं कर सकते थे। पीढ़ियों तक वह यही कोशिश कर सकते थे, कि विजेता की सभ्यता से दूर-दूर रहे, लेकिन, यह मूढ़ हठ कितने दिनों तक चल सकता था? आज हम देख रहे हैं, भारतका वह पुराणपन कितना हटता जा रहा है।
(ख) अंग्रेज विजेताओंकी विशेषता—एक और बात भी है, अंग्रेज भारत में अंग्रेज राजवंश कायम करने नहीं आये थे। विजय करके भारतके शासनको पहले-पहले अपने हाथ-में लेनेवाला कोई राजा या उसका सेनापति नहीं था, वह तो था ऐसे सौदगरोंका गिरोह, जो अपनी पूँजीपर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहते थे। यह बिल्कुल ही नई तरहकी विजय थी, जिसमें विजेता राजवंश स्थापित नहीं करना चाहता था। ईस्ट इंडिया कम्पनी चाहती थी और भारतपर इसलिए शासन कर रही थी, कि वह अपने भागीदारोंको अधिकसे अधिक नफा बाँटे। इससे और अधिक यदि कोई उसका मतलब था, तो यही कि भारतसे अधिकसे अधिक अंग्रेजोंका भरण-पोषण हो। यह काम मुगलों और शकों की कर उगाहनेकी नीतिसे नहीं हो सकता था। मुगलों-शकोंके अपने खर्च के लिए लिया भी रूपया फिर भारतमें ही जीवनोपयोगी चीजोंके खरीदनेमें बँट जाता था, इसलिए वह एक तरहसे देशके भीतर विनिमयके रूपमें चक्कर काटता रहता था। अंग्रेजों द्वारा एक बार ली गई सम्पति फिर लौटकर यहाँ आनेवाली न थी। इसके लिए जरूरी था, कि अंग्रेज स्वदेशी हो गए विजेिताओंसे धन का ज्यादा शोषण करें।
संक्षेपमें अंग्रेजोंको अपने सारे शासकवर्ग-पूँजीपति वर्गके स्वार्थ के लिए भारतका दोहन करना था---पहिले व्यापारसे, फिर व्यापार और शासनसे, फिर व्यापार, शासन और पूँजीवादी शोषण (कच्चे-पक्के मालके क्रय-विक्रय) से। इस भारी शोषणमें ग्रामीण, गणराज्य बचाया नहीं जा सकता था, चाहे उसका कवित्वमय रूप तत्कालीन और आधुनिक कितने ही भावुक व्यक्तियोंको बहुत आकर्षक मालूम होता रहा है, और कौन सा अतीत है, जो आकर्षक नहीं होता?
(ग) अंग्रेजी शासन का परिणाम—सामाजिक क्रान्ति—हाँ, तो हजारों वर्षोंके इस भारतीय छाड़नके लिए अँग्रेजोंने जो सबसे बड़ा काम किया, वह था उसका बाँध तोड़ना। उन्होंने भारतीय चर्खेको तोड़ डाला, पुराने कर्घेको विदा कराया, अपने यहाँ और यूरोपसे भी पुराने चर्खों-कर्घोंको निकाल बाहर किया, फिर गंगाको उलटी बहाया और मार्क्सके शब्दों में “कपासकी मातृभूमिमें कपासके कपड़ोंकी बाढ़ ला दी। 1818 से 1836 ई. में ग्रेट ब्रिटेनसे भेजा जानेवाला कपड़ा 5200 गुना बढ़ गया। 1830 ई. में भारतमें आया अँग्रेजी मखमल मुश्किलसे दस लाख गज था। लेकिन इसके साथ ही ढाकाकी आबादी डेढ़लाखसे बीस हजार रह गई। अपने शिल्पोंके लिए जगद्विख्यात भारतीय नगर ही नहीं बर्बाद हो गये, बल्कि ब्रिटिश भाप और विज्ञानने सारे हिन्दुस्तान में कृषि और शिल्प-उद्योगके मेलको जड़-मूलसे उखाड़ फेंका।...भारतके परिवार-समुदायका आधार था घरेलू उद्योग—हाथ की कताई, हाथकी बुनाई, खेती में हाथ की जुताई—जिससे वह स्वावलम्बी बना हुआ था। अँग्रेजोंके भीतर दखल देनेका क्या फल हुआ?—उसने कातनेवाले को लंकाशायर में ला रखा, और जुलाहेको बंगालमें, या हिन्दुस्तानी कमकरों और जुलाहों दोनों ही का सफाया कर दिया। इन छोटे-छोटे अर्ध-बर्बर, अर्ध-सभ्य समुदायोंको उनकी आर्थिक नींवको उड़ाकर, ध्वस्त कर दिया, और इस प्रकार सबसे बड़ी, और सच पूछिये तो एसियामें कभी भी न सुनी गई, एकमात्र सामाजिक क्रान्तिको पैदा किया।
(क) ध्वंसात्मक काम जरूरी—आज, मनुष्य हृदय खिन्न जरूर होगा, जबकि वह इन अगनित पितृसत्तात्मक शान्तिपूर्ण सामाजिक संगठनोंको इस प्रकार तितिर-बितर हो...बिखरते देखता है, उन्हें कष्टोंके समुद्रमें फेंके जाते, और अवयवोंके साथही अपनी सभ्यताके पुराने रूपका खोते देखता है। हमें भूलना नहीं चाहिए, यह काव्यमय ग्राम्य-संगठन, चाहे देखनेमें कितने ही मासूम जान पड़ें, लेकिन यही सदासे पूर्वी स्वेच्छाचारकी ठोस बुनियाद रहे हैं। इन्होंने मानव-मस्तिष्कको छोटे-से-छोटे दायरेमें बन्द रखा, और मिथ्या-विश्वासका चुप्प चाप मान लेनेवाला हथियार बना उसे पुराने नियमोंका गुलाम बनाया, और उसे सभी महान ऐतिहासिक (इतिहासकी प्रगतिसे उत्पन्न) शक्तियोंसे वंचित रखा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये, कि एक तुच्छ छोटी सी ज़मीनकी टुकड़ीमें केन्द्रित बार्बरिक ममता साम्राज्योंके ध्वंस, अकथनीय नृशंसताके नग्न नृत्य, बड़े-बड़े शहरोंकी जनताकी हत्याका कारण हुआ।...हमें नहीं भूलना चाहिये, कि इस अपमानजनक, कीड़े-मकोड़ोंके मुर्दा जीवन, निर्जीवसे अस्तित्व ने, अपने विरूद्ध, जंगली, निरूद्देश्य, सत्यानाशी असीम शक्तियोंको उतेजना दी, और खुद मनुष्य-हत्याको हिन्दुस्तानमें धार्मिक कृत्य बना दिया। हमें नहीं भूलना चाहिये, कि भारतकी यह छोटी-छोटी जमातें जाति-भेद और दासताके रोगमें फँसी हुई थी। उन्होंने मानवको ऊपर उठा परिस्थितियोंपर विजयी बनने की जगह बाहरी परिस्थितियोंका गुलाम बनाया, उन्होंने स्वयं विकसित होने वाली सामाजिक स्थितिको अपरिवर्तनशील रख प्रकृतिके हाथकी कठपुतली बना दिया, इस प्रकार प्रकृतिकी पाशविक प्रजाको स्थापित किया, और प्रकृति के राजा मानवका इतना अधःपतन कराया, कि वह वानर हनूमान और कपिला गायकी पूजामें घुटने टेकने लगा।
यह सच है, कि हिन्दुस्तानमें इंगलैंड जो सामाजिक क्रान्ति ला रहा है, उसके पीछे एक बहुत ही नीच उद्देश्य छिपा हुआ है। किन्तु, सवाल यह नहीं है, सवाल तो है—क्या एसियाकी सामाजिक स्थितिमें क्रान्ति लाये बिना मानवजाति अपने ध्येयको पूरा कर सकती है? अगर नहीं, तो इंगलैंड ने चाहे जो भी अपराध किया हो, किन्तु उक्त क्रान्तिको लानेमें उसने इतिहासके अनजाने हथियारका काम किया।
एक पुरातन जगत् के टूट-फूटकर गिरनेका दर्दनाक नजारा चाहे जितनी भी कटुता हमारे व्यक्तिगत भावोंमें पैदा करें, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर हमें गोयथेके शब्द याद आते हैं—
इसका हमें सोच करना क्या लिप्साका स्वभाव ही ऐसा, बढ़ती चले अयास, और नहीं क्यों तैमूरी तलवार बनाती कोटि जनोंको क्रूर कालका ग्रास?

(4) भारतीय समाजकी निर्बलतायें—110 वर्ष हो गये जबकि 25 जून 1853 ई. मार्क्सकी यह पंक्तियाँ पहिले पहल प्रकाशित हुई। इनको पढ़नेसे मालूम होता है कि इतनी दूर बैठकर ज्ञानके साधनोंके बहुत अभावके होते भी उनकी पैनी दृष्टि भारतीय समाजकी सतहसे भीतर कितनी घुस सकी थी। उन्होंने क्रुरताके साथ हमारे उस लुटते सोनेके गढ़के लिए दो आँसू बहाना काफी नहीं समझा, बल्कि बतलाया कि हमारा उस दयनीय दशाका कारण क्या है। उन्होंने यह भी बतलाया, कि उस पुरानी सामाजिक व्यवस्थाको नष्ट होनेसे बचानेकी जरूरत नहीं है, जैसा कि कुछ पहिले गाँधी और अब गाँधीवादी भावे और जयप्रकाश दिलसे या दिखावेके लिए कह रहे हैं, बल्कि उससे एक प्रवाहशील उन्मुक्त समाजके निर्माणका जो अवसर मिला है, उससे हमें लाभ उठाना चाहिये।
उपरोक्त लेखसे डेढ़ महीने बाद, 6 अगस्त 1853 को “न्यूयार्क टिब्यून” में मार्क्सका “भारतमें ब्रिटिश-शासनके होनेवाले परिणाम” नामसे दूसरा लेख छपा। जिसमें उन्होंने भारतीय समाजके भविष्यपर प्रकाश डाला, यहाँ उसके कुछ उद्धरण दिये जाते हैं—
क्या बात थी, जिसके कारण भारतपर अँग्रेजोंका प्रभुत्व स्थापित हुआ? मुगल सूबेदारोंने मुगल शासन-केन्द्रको तोड़ा। सूबेदारोंकी ताकतको मराठोंने तोड़ा। मराठोंकी ताकतको अफगानोंने तोड़ा। और जब यह सभी सबके खिलाफ लड़ रहे थे। तब अँग्रेज दौड़ पड़े, और वह सबको दबानेमें सफल हुये। भारत वह देश है, जो हिन्दू-मुसलमानोंमें ही बँटा नहीं है, बल्कि वह कबीलों-कबीलों जातों-जातोंमें बँटा हुआ है। उसके समाजका ढाँचा एक तरहके ऐसे संतुलनपर आधारित था, जो उसके सभी व्यक्तियोंके बीच साधारण बिखराव और मनमुखीपनका परिणाम था। इस तरहका देश, इस तरहका समाज, क्या पराजित होनेके लिए ही नहीं बना था? चाहे हिन्दुस्तानके अतीत इतिहासको हम न भी जानते, किन्तु, क्या यह एक जबर्दस्त अविवादास्पद बात नहीं है, कि इस क्षण भी भारत अँग्रेजोंकी गुलामीमें भारत-खर्चपर रखी एक भारतीय सेना द्वारा जकड़ा हुआ है। फिर, भारत पराजित होनेसे बच कैसे सकता था? उसका सारा अतीत का इतिहास अगर कोई चीज है, तो लगातार पराजयोंका इतिहास है, जिनसे कि वह गुजरा है। भारतीय इतिहास कम-से-कम ज्ञात इतिहास, कोई इतिहास नहीं है। जिसे हम इसका इतिहास कहते हैं, वह उन्हीं लगातार आनेवाले आक्रमणकारियोंका इतिहास है, जिन्होंने निष्क्रिय अपरिवर्तनशील समाज की निश्चेष्टताकी मददसे अपने साम्राज्य कायम किये...।

(क) अँग्रेजी शासनके दो काम—“भारतमें अँग्रेजोंको दो काम पूरे करने हैं—एक ध्वसांत्मक, दूसरा पुनरूज्जीवक—पुराने एसियाई समाजका ध्वंस और एसियामें पाश्चात्य समाजका भौतिक शिलान्यास।
अँग्रेजोंने देशी (ग्राम्य) समाजको तोड़कर, देशी उद्योग-धन्धेको जड़-मूल से उखाड़कर देशी समाजमें जो कुछ महान और उच्च था, उसे जमीनके बराबर करके, अपने ध्वंसात्मक कामको पूरा किया। ध्वंसोंके ढेरमें पुनरूज्जीवनका काम आज मुश्किलसे दिखलाई पड़ता है, तो भी वह आरम्भ हो गया है।
“आज महान् मुगलोंके शासनसे भी ज्यादा संगठित और विस्तृत भारतकी राजनीतिक एकता पुनरूज्जीवनके लिए सबसे पहली आवश्यक चीज है। अँग्रेजी तलवारके द्वारा जबर्दस्ती लादी गई यह एकता अब बिजलीके टेलीग्राफ द्वारा और मजबूत तथा चिरस्थायी बनाई जायगी। परेड सिखानेवाले अँग्रेज सर्जेन्ट द्वारा संगठित और शिक्षित देशी सेना भारतकी स्वतः मुक्तिके लिए तथा पहिले ही आनेवाले विदेशी आक्रमणकारीका शिकार बननेके लिए आवश्यक साधन है। स्वतंत्र प्रेस—जिससे छः एसियाई समाज पहले-पहले परिचित हुआ है, और जिसका प्रबन्ध मुख्यतः हिन्दुओं और यूरोपियनोंकी सम्मिलित सन्तानों के हाथमें है—पुनर्निर्माणके वास्ते एक नया और बहुत ही शक्तिशाली हथियार है।...भारतीयोंमेंसे संख्यामें कम ही सही कलकत्तामें अँग्रेजोंकी देख-रेखमें शिक्षा पाकर एक ताजा वर्ग उत्पन्न हो रहा है, जो कि शासन-संचालनकी कलामें निपुण और यूरोपीय विज्ञानसे अभिज्ञ है। भापने भारतका यूरोपसे यातायात नियमित और द्रुत कर दिया है। उसके प्रधान बन्दरगाहोंको इंगलैंडके दक्खिन-पूर्वके बन्दरगाहोंके साथ जोड़ दिया है, और उसकी उस अलग-थलगपनकी स्थितिको हटा दिया है, जो कि उसकी प्रवाह-शून्यताका कारण थी। वह समय दूर नहीं, जबकि रेलों और वाष्पपोतोंकी सम्मिलित सहायतासे इंगलैंड और भारतके बीचकी समयमें नापी जानेवाली दूरी घटकर आठ दिन रह जायेगी, और जब कि गाथाओंमें सुना जानेवाला यह देश, इस प्रकार यथार्थतः पाश्चात्य जगतका एक भाग बन जायगा।
(ख) स्वार्थ से मजबूर—“ग्रेट-ब्रिटेनके शासकवर्गका अब तक भारतकी प्रगतिमें सिर्फ आकस्मिक चलता-फिरता एक खास तौरका स्वार्थ था। सामन्तवर्ग भारतको जीतना चाहता था, थैलीशाही उसे लूटना चाहती थी, और मिलशाही सबकी गलाकट्टी कर रही थी। लेकिन, अब अवस्था बदल गई है। अब मिलशाही (पूँजीवाद) को पता लग गया है, कि भारतको उत्पादक देशमें परिणत करना उसके लिए एक आवश्यक बात है, और इसके लिए यह जरूरी हो गया है, कि भारतके पास सींचने और भीतरी यातायातके साधन प्रस्तुत किए जायें। अब मिलशाही सारे भारतमें रेलोंका एक जाल बिछाना चाहती है और वह ऐसा करके रहेगी।...
मैं जानता हूँ, अँग्रेज मिलशाही भारतमें रेलें सिर्फ इसलिए बिछाना चाहती है, कि कम खर्चमें कपास और दूसरे कच्चे मालको अपने कारखानोंके लिए प्राप्त कर सके। लेकिन, जब एक बार ऐसे देश में मशीनरी तुमने चला दी, जहाँपर लोहा और कोयला है, तो उनके निर्माण (उद्योग) से तुम उसे रोक नहीं सकते।...भारतीयोंकी मानसिक योग्यताके बारेमें केम्बेलको माननेके लिए बाध्य होना पड़ा कि भारतीयोंकी बड़ी-बड़ी संख्या एक बड़ी औद्योगिक शक्ति रखती है, वह पूँजी जमा करनेकी क्षमता दिमागमें गणित-जैसी स्पष्टता, आंकडों और पक्के विज्ञानके योग्य विचित्र प्रतिभा रखती है। स्थापित होनेवाले आधुनिक ढंगके उद्योग-धन्धे उस खान्दानी श्रम-विभागको उठा देंगे, जिसके ऊपर भारतीय जात-पाँत आश्रित है, और जो कि भारतीय प्रगतिमें निश्चय ही जबर्दस्त बाधा है।
अँग्रेजी बूर्ज्वा (पूँजीवादी), जो कुछ भी करनेके लिए मजबूर होंगे, उससे न जनता मुक्त होगी, और न हीं वह उसकी सामाजिक अवस्थाको आर्थिक तौर से सुधारेगा।...क्या पूँजीवाद (बूर्ज्वाजी) ने कभी भी ऐसी कोई प्रगति होने दी, जिसमें व्यक्तियों और जनताको खून और कूड़े-कर्कटमेंसे, कष्ट और अधःपतनमें से न घसीटा गया हो?
भविष्य उज्जवल—अँग्रेज-बूर्ज्वा भारतीयोंके बीच समाजके जिन नवीन तत्वोंको बो रहे हैं, उनके फलका उपभोग भारतीय तब तक नहीं कर सकेंगे, जब तक खुद ग्रेट-ब्रिटेनमें आजके शासकवर्गको हटाकर कारखानोंके सर्वहारा आगे न आ जायँ, अथवा हिन्दू खुद ही इतने मजबूत हो जायें, कि अँग्रेजी जूयेको उतार फेंकें। चाहे कुछ भी हो, कम या बेशी सुदूर कालमें यह जरूर देखनेमें आयेगा, जबकि उस महान और मनोहर देशका पुनरूज्जीवन होगा...जिसके कोमल प्रकृतिवाले निवासियोंको...अधीनता-स्वीकृतिमें भी एक तरहका शान्त स्वाभिमान है, जिन्होंने अकर्मण्यताके रहते भी अपनी बहादुरीसे अँग्रेज अफसरोंको चकित कर दिया, जिनका देश हमारी जबानों, हमारे धर्मोंका स्त्रोत रहा, और जो अपने जाटोंमें प्राचीन जर्मनों और अपने ब्राह्मणों में प्राचीन यूनानियोंके प्रतिनिधि हैं।
समाप्त।
साभार---कार्ल मार्क्स की जीवनीः राहुल सांकृत्यायन
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Thursday 2 July 2020

नेरचौक मेडिकल कॉलेज में ओपीडी शुरू करने की याचिका पर विचार करे सरकारः उच्च न्यायलय



मंडी। प्रदेश उच्च न्यायलय ने लाल बहादुर शास्त्री मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में ओपीडी शुरू करने संबंधी याचिका पर प्रदेश सरकार को निर्देश देते हुए इसे प्रतिवेदन के रूप में विचार करने के निर्देश दिए हैं। उच्च न्यायलय ने इस प्रतिवेदन पर दो सप्ताह के भीतर सुनवाई करने व इसके निस्तारण के भी निर्देश दिये हैं। अब मामले में कार्यान्वयन से संबंधित सुनवाई 14 जुलाई को निर्धारित की गई है। सुंदरनगर के चांबी निवासी मोहन लाल गुप्ता और चांगर कलौनी निवासी कांता शर्मा ने इस बारे में प्रदेश उच्च न्यायलय में लाल बहादुर शास्त्री मेडिकल कालेज और अस्पताल में स्थापित कोविड-19 अस्पताल को कहीं अन्य जगह शिफ्ट करने और मेडिकल कालेज की सामान्य और इमरजेंसी इंडोर व आउटडोर मेडिकल सेवाएं तत्काल शुरू करने के लिए यह याचिका दायर की थी। याचिका के मुताबिक नेरचौक स्थित मेडिकल कॉलेज 2018 से कार्य कर रहा है। इसमें 500 बेड हैं और करीब 100 प्रशिक्षित और अनुभवी चिकित्सक रेडियोलोजी, कारडिओलोजी, पेडियाट्रिकस, साइकौलोजी, स्किन, ईएनटी और न्युरोलोजी आदि विभिन्न विभागों में कार्यरत हैं। इसके अलावा बडी संख्या में तकनीकी और पैरामैडिकल स्टाफ भी यहां पर कार्यरत है। इस मेडिकल कालेज से मंडी, कुल्लू, बिलासपुर और हमीरपुर जैसे साथ लगते जिलों के लोगों को स्वास्थय सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है। हर दिन यहां पर 1200 से 1500 रोगी उपचार के लिए आते हैं और करीब तीन-चार सौ रोगी इंडोर में रहते हैं। याचिकाकर्ताओं के अनुसार कोविड-19 महामारी के कारण मार्च 2020 में इस अस्पताल को कोविड-19 अस्पताल घोषित कर दिया गया था। जिसके कारण नॉन कोविड रोगियों के लिए इस अस्पताल में सभी तरह की स्वास्थय सेवाएं अगले आदेश तक स्थाई रूप से निलंबित कर दी गई है। याचिकाकर्ता कारडिओलोजी, ओरथो, सुगर और स्किन की बीमारियों से जूझ रहे हैं और उनका मेडिकल कालेज में नियमित रूप से इलाज चल रहा था। लेकिन कोविड-19 अस्पताल की अधिसूचना हो जाने के कारण याचिकाकर्ता सहित हजारों रोगियों को स्वास्थय सुविधा से वंचित होना पडा है। याचिकाकर्ता सोहन लाल गुप्ता को मेडिकल कालेज में ओपीडी बंद होने के कारण पीजीआई में अपना इलाज करवाना पडा। जिसमें उन्हें भारी परेशानियां उठानी पडी और पीजीआई से वापिस आने पर 14 दिनों तक होम क्वारंटीन में रहना पडा। याचिकाकर्ताओं के अनुसार मेडिकल कालेज को कोविड-19 अस्पताल बनाने से आम जनता को घर द्वार पर स्वास्थय सुविधाओं से वंचित रहना पड रहा है और उन्हें आईजीएमसी, मेडिकल कालेज टांडा, पीजीआई या बाहरी राज्यों के निजी अस्पतालों में अपना इलाज करवाना पड रहा है। जिसमें लोगों को भारी खर्चा और परेशानियां झेलनी पड रही हैं। याचिकाकर्ताओं के अनुसार प्रदेश के अन्य हिस्सों में उप-मंडलीय या जिला अस्पतालों को कोविड-19 अस्पताल घोषित किया गया है और मेडिकल कालेजों को इससे बाहर रखा गया है। लेकिन मेडिकल कालेज नेरचौक को कोविड-19 अस्पताल घोषित करने से सारी स्वास्थय सुविधाओं के साथ-साथ प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे चिकित्सकों की पढाई भी बुरी तरह से प्रभावित हो रही है। मेडिकल कालेज में करीब 10 अलग-अलग ब्लॉक हैं। लेकिन कोविड-19 रोगियों के इलाज के लिए सिर्फ 20 बिस्तरों वाले दो हॉल ही दिए गए हैं। जबकि मेडिकल कालेज के चिकित्सकों, तकनिशियनों, पैरामैडिकल व अन्य स्टाफ के ऊपर करोडों रूपये का खर्चा हर महीने उठाना पड रहा है। ओपीडी बंद होने से कोविड अस्पताल के स्टाफ के अलावा सारा स्टाफ पिछले तीन महीनों से बेकार बैठा हुआ है। याचिकाकर्ताओं के अनुसार इस अस्पताल में पिछले तीन महीनों में कोविड-19 के सिर्फ 25 रोगी भर्ती किए गए हैं। जिनमें से 20 रोगी ठीक हो कर जा चुके हैं और इस समय यहां सिर्फ तीन रोगी ही कोविड-19 के भर्ती हैं। मेडिकल कालेज में ओपीडी शुरू करने के लिए स्थानीय जनता प्रदेश सरकार से समय-समय पर मांग कर रही है। इतना ही नहीं, स्थानीय विधायक ने भी सरकार से कोविड-19 अस्पताल को कहीं अन्यत्र शिफ्ट करने की मांग की है। इधर, उच्च न्यायलय ने याचिकाकर्ताओं की याचिका पर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि इस याचिका को वह प्रतिवेदन के रूप में स्वीकार करके दो सप्ताह में इसका निस्तारण करे। उच्च न्यायलय ने इस मामले में कार्यान्वयन संबंधी सुनवाई अब 14 जुलाई को निर्धारित की है।
पिक्चर साभारः-गुगल
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Wednesday 1 July 2020

कार्ल मार्क्स की जीवनी का पाठ



राहुल सांकृत्यायन लिखित कार्ल मार्क्स की जीवनी का पाठ पूरा हुआ। उनके व्यक्तित्व को संक्षेप में बताने के लिए पुस्तक में से मार्क्स के प्रिय दोस्त फ्रैडरिक एंगेल्स के उस भाषण को आपके साथ साथ बाँटना चाहता हूँ जिसे मार्क्स को दफनाते समय उन्होंने कब्र पर दिया था।
“14 मार्च के अपराह्न में पौने 3 बजे जीवित महानतम चिन्तकने चिन्तन करना छोड़ दिया। दो मिनट अकेला रहने के बाद जब हम भीतर गए, तो देखा, कि वह कुर्सीपर आरामसे, किन्तु सदाके लिए सोये हैं।
इस क्षति का मात्रांकन करना असम्भव है, जो कि इस पुरूषकी मृत्यु के साथ यूरोप और अमेरिकाके लड़ाके सर्वहारा और ऐतिहासिक विज्ञानने उठायी है। जल्दी ही हम उस विच्छेद (भेदन) को काफी अनुभव करेंगे, जिसे कि इस जबर्दस्त पुरूषकी मृत्युने पैदा किया है।
“जैसे डारविनने प्रकृतिमें विकासके नियमके कानूनका आविष्कार किया, उसी तरह मार्क्सने मानव-इतिहासमें विकासके कानूनका आविष्कार कियाः यह सीधा-सादा तथ्य, जो कि पहले वादों के जंगल में छिपा हुआ था—कि मानव प्राणीको सबसे पहले खाने, पीने, वास और पहननेकी जरूरत होती है। इससे पहले कि उसका ध्यान राजनीति, साईंस, कला और धर्मकी ओर जाये। इसीलिए जीवनके नजदीकके भौतिक साधनोंका उत्पादन अतएव लोगों के आर्थिक विकासकी सीढ़ी या काल वह आधार है, जिसके ऊपर राज्य-संस्थाएं, कानूनी सिद्धान्त, कला और लोगोंके धार्मिक विचार भी विकसित हुए हैं।
“ लेकिन, इतना ही नहीं, मार्क्सने आजकलके पूंजीवादी उत्पादनके ढंग, उससे उत्पादन और बूर्ज्वा समाज-व्यवस्था उत्पादनके विशेष कानूनका आविष्कार किया। अतिरिक्त-मूल्य के आविष्कारके साथ ही उन्होंने उस अन्धकारपर एकाएक प्रकाश डाला, जिसमें कि बूर्ज्वा और समाजवादी दोनों ही प्रकारके दूसरे अर्थशास्त्री भटक रहे थे।
“ इस तरह के दो आविष्कार किसी एक जीवनके लिए पर्याप्त थे। सचमुच वह सौभाग्यशाली है, जो कि इनमेंसे एकको भी ढूंढ़ निकालनेमें सफल हो। लेकिन मार्क्सने जिस किसी क्षेत्रमें अनुसन्धान किया (ऐसे क्षेत्र बहुत थे और उनमेंसे कहीं भी मार्क्सका अनुसन्धान पल्लवग्राही नहीं था) उन्होंने स्वतन्त्र आविष्कार किए—गणित के क्षेत्रमें भी।
“ वह एक साइन्सके पुरूष थे, लेकिन इससे ही उनका पूरा व्यक्तित्व पूरा नहीं होता। मार्क्सके लिए साइन्स एक सृजनात्मक ऐतिहासिक और क्रान्तिकारी शक्ति थी। सैद्धान्तिक साइन्सके इस या उस क्षेत्रमें नए आविष्कारसे उनको आनंद जरूर प्राप्त होता था जिसके व्यवहारिक फल शायद अभी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। उदाहरणार्थ बिजली साइन्सके क्षेत्रमें आविष्कारोंके विकास और अन्तिम समयमें मार्सेल देपरेजके कामको वह बहुत दिलचस्पी के साथ देख रहे थे।
“ चूँकि सबसे ऊपर मार्क्स एक क्रान्तिकारी थे। जीवनमें उनका महान लक्ष्य था पूँजीवादी समाज और उसके द्वारा पैदा की गई राज्य-संस्थाओंको उल्ट फेंकनेमें सहयोग देना, और उस आधुनिक सर्वहाराकी मुक्तिके प्रयत्नमें सहयोग देना, जिसके लिए उन्होंने पहले-पहल उसकी मुक्तिके लिए आवश्यक स्थितियोंका ज्ञान प्रदान किया। इस संघर्षमें उनका असली रूप दिखाई देता था। वह बड़े उत्साह तथा ऐसी सफलताके साथ लड़ते रहे, जो कि बहुत कमको मिली है—पहले 1842 ई. में “राइनिशे जाइटुंग”, पेरिसमें 1844 ई. में “फोरवार्ड”, 1847 ई. में “ड्वाशे-ब्रुजेलेर जाइटुंग, 1848-49 ई. में “नोये राइनिशे जाइटुंग”, 1852-61 ई. में “न्यूयार्क ट्रिब्यून”—और फिर बहुत सी खंडनात्मक कृतियाँ, पेरिस, ब्रुशेल्स और लन्दनमें संगठन-संबंधी काम और अन्तमें इन सबसे बढ़कर महान इन्टरनेशनल-कमकर-एसोसिएशन सचमुच यही अकेला जीवनका अभिमान करने लायक कायम होता, चाहे उसके निर्माताने और कुछ भी नहीं किया होता।
“ और इसीलिए मार्क्स अपने युगके सबसे अधिक घृणित और अत्यधिक गाली पानेवाले पुरूष थे। निरंकुश और गणतंत्री दोनों प्रकारकी सरकारोंने उन्हें अपने देशसे निकाल बाहर किया, टोरी और चरम जनतांत्रिक बूर्ज्वा भी उन्हें कलंकित करनेके अभियानमें होड़ लगाते रहे। उन्होंने इन सबको मकड़ी के जाले की तरह एक ओर बुहार दिया, उपेक्षित किया। और मजबूर होनेपर ही जवाब दिया। वह साइबेरियन खानोंसे यूरोप होते अमेरिकाके कैलिफोर्नियाके तट तक करोड़ों क्रान्तिकारी कमकरों द्वार सम्मानित स्नेहपात्र हो उन्हें शोकाकुल करते मरे। मैं यह कहने की हिम्मत रखता हूँ, कि यद्यपि उनके बहुतसे विरोधी थे, लेकिन वैयक्तिक शत्रु मुश्किलसे कोई था।
“उनका नाम शताब्दियों तक जीता रहेगा, और उसी तरह उनकी कृतियाँ भी”।
राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित कार्ल मार्क्स की जीवनी से साभार।
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मंडी में बनाया जाए आधुनिक पुस्तकालयः शहीद भगत सिंह विचार मंच

मंडी। प्रदेश की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी मंडी में आधुनिक और बेहतरीन पुस्तकालय के निर्माण की मांग की गई है। इस संदर्भ में शहर की संस्...