Friday 14 December 2018

इतिहास के गवाक्ष से मंडी की शिवरात्रि - हिमाचल प्रदेश के भाषा एवं संस्कृति विभाग की द्वैमासिक पत्रिका में प्रकाशित लेख से साभार- समीर कश्यप



समाज की धार्मिक व्यवस्था को समझने के लिए उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पहलूओं का अध्ययन करना जरूरी होता है। इन सामाजिक पहलूओं के अध्ययन के लिए आवश्यक स्त्रोत मौजूद न हों तो मौजूदा परंपराओं से भी ऐतिहासिक समाजों को समझने के महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग सकते हैं और शोधार्थियों के लिए शोध-सामग्री भी। मंडी का शिवरात्रि महोत्सव भी इसी तरह के बहुमूल्य ऐतिहासिक स्त्रोतों को उपलब्ध करवाता है। जिसमें यहां के धार्मिक रीति रिवाजों और समृद्धशाली लोक सांस्कृतिक परंपरा का साक्षात्कार होता है। हर वर्ष मंडी में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव का मुख्य आकर्षण मंडी जिला के सराज, चौहार, बदार, सनोर, उत्तरसाल, बल्ह, तुंगल घाटी सहित विभिन्न छोरों से आने वाले सैंकडों देवी-देवताओं का देव समागम होता है। विगत करीब दो सौ सालों से आयोजित होने वाले इस उत्सव में हालांकि बहुत बदलाव आए हैं। लेकिन देव परंपरा का तानाबाना कमोबेश अपने आप को पुनर्उत्पादित करता हुआ लगभग वैसा ही चला आ रहा है। दरअसल 18वीं शताब्दी के उतरार्ध में इस उत्सव के जन्म लेने के समय की पड़ताल से जाहिर होता है कि वह दौर पहाड़ी रियासतों के भीतर और बाह्य रूप से उथल पुथल और संगठन का दौर था। मंडी रियासत के राजा सूरमा सेन के उतराधिकारी के रूप में ईश्वरी सेन 1788 ईसवी में शासक बने। इस दौर में रियासत के भीतर हो रहे षड्यंत्रों के चलते नाबालिग राजा ने कांगड़ा के राजा संसार चंद से सहायता मांगी। लेकिन संसार चंद ने मंडी पर हमला करके इसे लूट लिया और ईश्वरी सेन को बंदी बनाकर सुजानपुर के किले में बंद कर दिया। हालांकि कमलाह का किला जीतने में संसार चंद नाकामयाब रहा। इसके बाद संसार चंद ने बिलासपुर (कहलूर) रियासत पर हमले की तैयारी की तो बिलासपुर के राजा ने नेपाल के गोरखों से संपर्क के लिए उन्हें मदद को बुलाया। जिस पर अमर सिंह थापा के साथ स्थानीय पहाड़ी राजाओं ने संसार चंद को महल मोरियां के युद्ध में हराया और ईश्वरी सेन को उसके कब्जे से छुडाया। करीब 12 साल तक कैद में रहने के बाद राजा के वापिस आने की खुशी में रियासत के सभी क्षेत्रों के देवी देवताओं को मंडी में बुलाकर शिवरात्रि की शुरूआत हुई थी। तब से इस उत्सव की परंपरा लगातार जारी है। जिला के विभिन्न क्षेत्रों के देवी देवता अपने रथों के साथ ढोल नगाडों के लोमहर्षक स्वरों से गुंजायमान करते हुए मंडी पहुंचते हैं और सबसे पहले मंडी के सबसे अधिपति देवता माधो राव को नमन करते हैं। माधो राव का मंदिर जिस भवन में स्थित है उसे राजा सूरज सेन (1637 ई.) ने बनवाया था। सूरज सेन के 18 लड़के थे लेकिन उसके जीवन काल में ही सभी की मृत्यु हो गई और उत्तराधिकार के लिए उन्होंने एक चांदी की प्रतिमा बनवा कर इसे अपना राज्य सौंप दिया। इस प्रतिमा पर संस्कृत में उकेरा गया है कि ‘सूरय सेन, जो धरती का स्वामी है और दुश्मनों का नाशक है, ने यह दोष रहित पवित्र चक्रधारी और सभी देवताओं के गुरू महान माधो राव को भीमा सुनार से वीरवार 15 फाल्गुन 1705 को यानि 1648 ईसवी में बनवाया है। लगभग इसी समय कुल्लू के राजा जगत सिंह ने भी अपने राज्य को रघुनाथ जी को इसी तरह सौंप दिया था। इन दोनों राज्यों में संभवतया इसी समय वैष्णव धर्म पहली बार राज्य के धर्म के रूप में घोषित हुआ और राज्याश्रय मिलने के कारण प्रभुत्व हासिल करता गया। जबकि इन दोनों ही रियासतों में हमेशा से शक्ति और शाक्त उपासकों का धर्म अस्तित्व में रहा है। मंडी के अधिष्ठाता देवता भूतनाथ हैं जो शैव परंपरा के प्रभुत्वशाली प्रतीक कहे जा सकते हैं। शिवरात्रि महोत्सव देवता भूतनाथ को ही समर्पित है और यहीं पर पूजा अर्चना के बाद महोत्सव का शुभारंभ होता है। यह तथ्य जाहिर करता है कि भले ही राज्य अपना राजकीय धर्म कुछ और घोषित कर दे लेकिन प्रजा का धर्म थोपे जाने से नहीं बल्कि उनकी अपनी लोक परंपराओं के अनुसार ही चलता है। मंडी की देव परंपरा के बारे में रियासत के अधीक्षक रहे अंग्रेज अधिकारी एमरसन और जे.आर.एस पारसंस द्वारा 1920 ईसवी में प्रकाशित हुए पंजाब गजेटियर मंडी स्टेट में अनेकों विवरण मिलते हैं। जो देवपरंपराओं को समझने के लिए प्रारंभिक बिंदु साबित हो सकते हैं। इन ब्रिटिश अध्येताओं की मंडी की देव परंपरा के निहितार्थ क्या समझ थी और उन्होंने इसे किस तरह से समझा था, इसे जानने के लिए गजेटियर के संक्षिप्त विवरणों को अनुवाद के रूप में निम्न रूप से सांझा करना बेहद प्रासांगिक प्रतीत हो रहा है।
मंडी के ऊपरी पहाड़ी क्षेत्र का धर्म
हिमालयन क्षेत्र में धर्म यूं तो एक विस्तृत विषय है लेकिन इसका खाका कुछ मुख्य लक्षणों से दिया जा सकता है। इसमें मुख्य तत्व निःसंदेह कुल देवता या परिवार का देवता है। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देवता का आम अनुवाद जादू-टोने की क्रियाएं करने वाले देवता के रूप में ले लेने से उसके द्वारा पहाड़ों की धार्मिक व्यवस्था में निभाई जाने वाली महत्वपुर्ण भूमिका असपष्ट और धुंधली हो जाती है। यह सही है कि देवता का शाब्दिक अर्थ छोटा भगवान ही है। लेकिन इसका प्रयोग तिरस्कृत अर्थ में जादू टोना के क्रियाकलाप से संबंधित देवता के रूप में नहीं होता बल्कि यह छोटे देवता जिसका धर्म पैतृक देवता के इर्द गिर्द केन्द्रित होता है और वह उन बड़े देवों से भेद करता है जो आम लोगों की रोजमर्रा की पूजा से बहुत दूर कर दिये जा चुके हैं। इन पैतृक देवताओं का क्षेत्राधिकार व्यक्तिगत और भौगोलिक दोनों ही होता है। प्राचीन समय से अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले गांव, गांवों के समूह और घाटी में वह अपने प्रभुत्व और अधिकार का प्रयोग करते हैं। इतना ही नहीं वह अपनी प्रजा के पुरूष उत्तराधिकारियों पर प्राधिकार का दावा भी करते हैं। देवता लोगों को अपनी प्रजा या रिआया मानता है। इससे उसका भक्तों के साथ संबंधों का सही अनुमान लगाया जा सकता है। पहले यज्ञोपवीत के समय से ही परिवार का पुरूष सदस्य उनका अनुगामी बन जाता है। जबकि स्त्री उस समुदाय में शादी करने के बाद देवता की प्रजा बन जाती है। वंशानुगत प्रजा के सदस्य का निवास स्थान बदल जाने से भी वह देवता की सेवा से मुक्त नहीं हो सकता। उसे तब भी अपने परिवार के देवता के प्रति अपने कर्तव्य निभाने होते हैं। हालांकि वह नए घर के स्थानीय देवता को भी मान सकता है। भक्तों का यह दायित्व होता है कि वह अनाज या पैसों से देवता की पूजा के लिए होने वाले खर्चे में अपना योगदान करे। देवता के आदेशों के आज्ञाकारी होने के नाते विशेष मौकों पर परिवार के एक पुरूष सदस्य का उपस्थित होना जरूरी होता है। इसके बदले में उन्हें मंदिर के प्रबंधन के कार्यों के बारे में बोलने का, देवता के पास जाने का और सामुदायिक पर्वों में भाग लेने का हक होता है।
मंडी में स्थानीय देवता कई बार अधिपति देवता के अधीनस्थ होते हैं और वह रियासत कालीन राष्ट्रीय देवता माधो राव की प्रजा समझे जाते हैं। शिव और काली की कृपादृष्टि से यह देवता ताकत अर्जित करते हैं। पराशर और कमरूनाग भी अधिपति देवता की तरह ही हैं। इनके अंतर्गत अनेकों देवता हैं जो उनके प्रतिनिधि देवता समझे जाते हैं। इन प्रतिनिधि देवताओं के पास उनकी प्रजा सामान्य अवसरों पर आती है। लेकिन प्रतिनिधि देवता और उनकी प्रजा अधिपति देवता के पास होने वाले मेलों, त्योहारों में भाग लेती है। पराशर में यज्ञोपवीत की रस्म मंदिर में होती है तो वहीं पर उनके प्रतिनिधि देवताओं के मंदिरों में भी यह रस्म आयोजित होती है। अधीनस्थ देवता किसी नए श्रद्धालु को शामिल कर सकता है। नयी प्रतिमा बनाने पर इनमें जीवन डालने के लिए इसे देवता के रथ पर रखा जाता है।
हर देवता के आध्यात्मिक मंत्री – वजीर, द्वार-पाल और कोतवाल आदि होते हैं। इनमें से वजीर की भूमिका कई बार बहुत महत्वपूर्ण होती है। उसके मंदिर में कई बार अधिपति देवता से ज्यादा मन्नतें मांगी जाती हैं और ज्यादा भेंट चढ़ावा चढ़ता है। लोगों के अनुसार इसका कारण यह है कि उनमें यह मान्यता है कि आम कार्यों को करना वजीर का काम है और इन छोटे मोटे कार्यों से अधिपति देवता को छूट दी जाती है।
पारिवारिक देवताओं की प्रकृति
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंडी के अधिकांश ग्रामीण देवता तमाम पश्चिम हिमालय की तरह नाग समूह से संबंध रखते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से नाग कहे जाएं। हालांकि कुछ हैं जिनके नाम से ही उनकी प्रकृति उद्घाटित हो जाती है। नाग देवता के लिए नरैण या नारायण नाम का प्रयोग होता है। जबकि इसी संप्रदाय के अन्य देवता हिंदू देवताओं के नाम का छ्द्म वेष धारण किए भी मिल जाते हैं। कई बार उनकी असली पहचान करना मुश्किल हो जाता है लेकिन उनसे संबंधित मिथकों से उनके जन्म का रहस्योद्घाटन होता है। प्राचीन समय में भगवान कैसा है और उसका चरित्र क्या है के बारे में जब लोगों को खुले संदेह थे तो एक प्रारंभिक कल्पना थी कि वह नाग के आकार का होगा और नाग उपासना उस समय दूर-दूर तक फैली हुई थी। हालांकि नाग उपासना के प्रारंभ होने के बारे में अलग-2 सिद्धांत हैं। लेकिन यह दृढ़तापूर्वक निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिमालय में पुरातन समय से नाग की उपासना नदी के प्रतीक के रूप में और पानी के नियंत्रक के रूप में की जाती रही है। नाग आज भी पहाडों में मौसम के देवता, झरनों, नदियों-नालों, झीलों और जल स्त्रोतों के सृजक और संरक्षक माने जाते हैं। क्या जीवित नाग की पूजा से नदी का प्रतीक मानने को स्वीकार्यता मिली? इस प्रश्न के संबंध में निश्चित रूप से जवाब नहीं दिया जा सकता। लेकिन यह संभव है कि सरीसृप के स्वभाव ने संप्रदाय के विकास को प्रभावित किया होगा। इसलिए सभी पानी के स्त्रोतों से इसका संबंध अतुलनीय रूप से महत्वपूर्ण लक्षण है। इसके अलावा अन्य विशेषताएं भी हैं जो नाग उपासना को समर्पित की जा सकती हैं।
नाग और लिंग पूजा शिव और काली की उपासना का वर्णन करती है। इनका बहुत अंतरंग संबंध है और कोई कह सकता है कि पैतृक देवता दोनों में से एक या दूसरे सहयोगी की स्थानीय अभिव्यक्ति है। शिव के रूप में जिन्होंने शैव शीर्षक धारण कर लिया है उन्हें शुद्ध और साधारण नागों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। जबकि देवियों के संदर्भ में ऐसा नहीं है। हालांकि वह नाग संप्रदाय से संयोजित और घनिष्ठ संबंध में मिलती हैं लेकिन वह अलग देवता के रूप में कल्पना की गई जाहिर होती हैं।
पैतृक देवताओं में से अधिकांश उपरोक्त दोनों समूहों के अंतर्गत आ जाते हैं। हालांकि विभिन्न प्रकृति के अन्य देवता कभी कभार ही सामने आ सकते हैं क्योंकि अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में कुल देवता के एक विभिन्न श्रेणी के देवता में बदलने के लिए बहुत शक्तिशाली कारण और आधार चाहिए होता है। कई बार यह सिद्धांत प्रतिपादित किया जाता है कि इनमें से अधिकांश देवता हिंदू पौराणिक कथाओं के ऋषि या संत रहे हैं। विसंगतिपूर्ण और असंगत होने के कारण इसे खारिज किया जाना चाहिए।
देवता के प्रतीक
मंदिर में लगभग सभी जगह पत्थर की पिंडी या लिंग होता है जो संभवतया प्राचीन प्रतिमा मानी जाती है। लेकिन इसके अलावा देवता के मंदिर के बाहर जाने और दिखने वाले प्रतीक के रूप में देवता के रथ का प्रयोग होता है। रथ के दो भाग होते हैं। प्रतिमा और दो लकड़ी के खंभे (जिन्हें स्थानीय भाषा में आगलियां कहते हैं) जिस पर प्रतिमा उठायी जाती है। यह खंभे अक्सर सिल्वर बर्च (भोजपत्र) या किसी अन्य पेड़ की बहुत लचीली लकड़ी से बनाए जाते हैं। मुख्य प्रतिमा सोना, चांदी और तांबा धातु के पंक्तिबद्ध मोहरों से बनी होती है। देवता का रथ अधिकांशतया आदमकद होता है और सामान्य तौर पर देवता का प्रतिनिधित्व करता है। त्योहारों के अवसर पर देवता जब रथ के रूप में सामने आता है तो प्रतिमा को कीमती कपडों, आभूषणों और फूलों से सजाया जाता है। अक्सर रथ के ऊपर कपड़े या याक के बालों की छतरी होती है लेकिन मंडी के कुछ देवी-देवता इससे अलग शैली में भी होते हैं और उनके रथ की प्रतिमा गोलाकार होने की बजाय तिकोनी या पिरामिडिकल होती है। प्रतिमा के बीच से गुजरे लकडी के खंभों को देवता के प्रमुख श्रद्धालुओं द्वारा कंधे पर उठाया जाता है। रथ को कंधे पर उठाने वाले को उस देवता के समाज के समूह का पुरूष सदस्य होना जरूरी है। रथ को कंधे पर उठाने वाले अक्सर हाथों में बिना उंगलियों के दस्ताने पहनते हैं क्योंकि जब देवता की आत्मा हलचल करती हुई प्रतिमा को एक ओर से दूसरी ओर को पलटती है, उछालती है तो रथ के साथ चलने वाले सहायक इसका संतुलन साधने की कोशिश करते हैं लेकिन अक्सर इससे रथ उठाने वालों के हाथ छिल जाते हैं। हरेक देवता के अपने वाद्य यंत्र होते हैं। ढोल, नगाड़े और झांझ बजाने वाले हमेशा तो नहीं पर अक्सर निम्न जाति के होते हैं जबकि करनाल, तुरही बजाने वाले हमेशा कनैत या कृषक ब्राह्मण होते हैं।
देवता की आत्मा की जीवशक्ति का संकेत रथ का कंपन और दोलन है। रथ को उठाने वाले इसके प्रभाव में होते हैं और उनकी हल्की सी हरकत रथ को पता लग जाती है और देवता ऊपर-नीचे होकर नाचने लगते हैं दोनों ओर लचकते हुए झूमने लगते हैं और अचानक तेजी से आगे बढ़ते हैं क्योंकि उससे प्रेरणा पाने वाले सेवक अपने ऊपर मजबूत होती आत्मा की ताकत को अनुभव करते हैं। कुछ श्रद्धालु दैवीय प्रेरणा के कारण मानो जड़वत हो जाते हैं और कुछ देवता की प्रेरणा के कारण प्रतिमा के सामने कांपने, उछलने और चीखने लग जाते हैं। जब एक से अधिक देवता मौजूद हों तो एक दूसरे को हमेशा सम्मान देते हैं। ऐसे अवसरों में आत्मा विशेष रूप से तीव्र होती है और दोनों देवता खुशी की भावना में एक दूसरे को नमन करते हैं। गांव के त्योहारों में तथा अन्य अवसरों पर देवता और उनके श्रद्धालु इकट्ठा होकर नृत्य करते हैं। रथ और वाद्य यंत्र बजाने वाले बजंतरी बीच में नृत्य करते हैं जबकि गूर या अन्य रथ उठाने वाले अधिकारी की अगुवाई में समूह के सदस्य उनको घेरकर नृत्य करते हैं। इस नृत्य को पहाड़ी नाटी या नाट कहा जाता है।
भविष्यवाणियां
देवता का मानवीय माध्यम उसका गूर या भविष्यवक्ता होता है और वह देवता की तरफ से बात करता है। गूर असली ताकत का दावा नहीं करता बल्कि वह अपनी शक्ति पूरी तरह से देवता से प्राप्त करता है। जिसके बिना उसकी अपनी प्रेरणा कोई मदद नहीं कर सकती। मंडी में उसका कार्य आमतौर पर वंशानुगत होता है लेकिन कई बार अपवाद भी होते हैं। लेकिन सभी मामलों में देवता ही अपने माध्यम का चुनाव करता है। बेटा तब तक उत्तराधिकारी नहीं बन सकता और जब तक पिता को इस पद से वापिस नहीं बुला लिया जाता और वापिस बुला लेने की इस प्रक्रिया में आमतौर पर कई महीने लग जाते हैं। देवता द्वारा बुलाये जाने की प्रक्रिया में अचानक उस पर आधिपत्य हो जाता है और पहला उद्वेग अक्सर उग्र तरीके का होता है। नया गूर भेड़ या बकरे की बलि देता है और उसका रक्त पीता है जिससे मान्यता के अनुसार वह देवता के नजदीकी संपर्क में जा सके। उसे देवता की देवदार की लकड़ी से बनी चौकी जो बाधा डालने वाले प्रभावों से अवरोधी का कार्य करती है, पर औपचारिक रूप से स्थापित किया जाता है। इस पर बैठकर उसे देवता की जिह्वा से सुंदर वचन कहने की अनुमति मिल जाती है। जहां देवता के गूर का पद वंशानुगत नहीं होता वहां पर देवता द्वारा की जाने वाली भविष्यवाणियों के विभिन्न तरीकों में से किसी तरीके का प्रयोग करके नया गूर चयनित किया जाता है। लेकिन यह कल्पना हमेशा संरक्षित की जाती है कि गूर देवता के द्वारा चुना हुआ वाहक होता है।
अधिकांशतया कनैत ही गूर होते हैं लेकिन ग्रामीण ब्राह्मण भी कई बार इस पद पर चुने जाते हैं और कभी कभार कोली भी चयनित होते हैं। कनैतों के पारिवारिक देवता का गूर कोली होने से देवता की मूल प्रकृति के बारे में निष्कर्ष निकालना न्यायोयित नहीं माना जा सकता। गूर का पद खाली होने के दौरान किसी निम्न जाति के व्यक्ति का अचानक उद्वेग में आना उसकी नियुक्ति के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।
एक वर्ग के रूप में गूर कुछ वर्जनाओं के तहत कार्य करता है। उन्हें पद पर रहने के दौरान अपने बाल नहीं काटने होते हैं। वह चपड़े के जूते नहीं पहन सकते और जमीन पर हल चलाने या खेती-बाड़ी का काम नहीं कर सकते। कुंवारापन या ब्रह्मचर्य सामान्य नियम नहीं है लेकिन देवता से जरूरी परामर्श करने से पहले व्रत और परहेज रखा जाता है। गूर अपनी भविष्यवाणी नंगे सिर देता है और मंडी के कुछ भागों में छाती भी खुली रखी जाती है लेकिन यह रस्में अलग-2 जगह अलग हैं। कुछ गूर भविष्यवाणी करने से पहले अपने आप को लोहे की जंजीरों (सांगल) से पीटते हैं जबकि अन्य लोहे की सलाई को गालों में से गुजारते हैं। भारी जोश और उतेजना के बीच गूर और सामान्य श्रद्धालु आग पर कूदते हैं, मशालें छीन लेते हैं। वह अपने आप को देवता का अस्थाई अवतार समझते हैं और उस समय उन्हें देवता ही माना जाता है।
इस तरह की उत्प्रेरणा अचानक उद्वेग से काफी भिन्न है जो कई बार आलौकिकरण का संकेत देता है लेकिन प्रायः यह अप्रसन्नता या दोष व दुश्मनी को इंगित करता है। भूत के अप्रत्याशित प्रकटन के लिए पीड़ित का ईलाज किया जाता है और अगर यह अनिष्ट करने वाली साबित होती है तो बुरी आत्मा के लिए या तो झाड-फूंक या शांति के लिए प्रयत्न किए जाते हैं।
हिमालय के भविष्यवक्ताओं या गूरों ने शक्ति प्राप्त करने की वह स्थिति हासिल नहीं की है जो उनके कार्यों की प्रकृति को देखते हुए होनी चाहिए। ब्राह्मणों के वर्चस्व से बचाने में पहाड़ी आदमी काफी चालाक और स्वतंत्र हैं और वह अपने ही पुजारियों के हाथ में पड़ना चाहते हैं। गूर का पद लाभकारी नहीं होता और न ही यह अपनी तरह की कठिनाइयों के बगैर होता है। अगर देवता की व्यवस्था प्रजा को संतुष्ट करने में असफल होती है तो इसका दोष देवता को नहीं दिया जा सकता बल्कि यह उसके मानवीय प्रवक्ता का होता है। अगर गूर अपने तौर तरीकों को ठीक नहीं करे तो उसे पद खाली करना होता है। गूर के कपट को जांचने के लिए चालाकी से नियंत्रण रखा जाता है। गूर का कार्य देवता के फैसलों को संप्रेषित करना और संदेश की दैवीय उत्पति सुनिश्चित करना है। जबकि कई बार वह संप्रेषित किए जा रहे फैसले की प्रकृति को नजरअंदाज कर देता है। उदाहरणतया एक आदमी रोग से ग्रस्त हो गया और उसने देवता से इसके कारणों के बारे में परामर्श किया। इस मामले में या तो कोई डायन, चुड़ैल या बुरी आत्मा हो सकती है या फिर किसी देवता की दुश्मनी। इसलिए वह मिट्टी के तीन एकसमान गेंद बनाता है। पहले में वह डायन या चुड़ैल के लिए घास का एक टुकड़ा डालता है। जबकि दूसरे में भूत-प्रेत या बुरी आत्मा के लिए लकड़ी का टुकड़ा और तीसरे में देवता के लिए थोड़ा सा अन्न डाला जाता है। इसके बाद उत्प्रेरण के आवेश में बाहर इंतजार कर रहे गूर को बुलाया जाता है जो अपना हाथ एक गेंद पर रखता है। वह इसके बाद फिर से बाहर चला जाता है और गेंदों को फिर से अलग रूप में पंक्तिबद्ध किया जाता है। अगर एक ही गेंद को तीन बार छुआ जाता है तो इससे मामले की पूरी तरह से पहचान कर ली जाती है। इस तरह की योजनाओं से बहुत निश्चित सीमाएं उस हद तक बांध दी जाती हैं जिससे व्यावसायिक माध्यम अपने यजमानों को धोखा दे सकें। इसके अलावा देवता तक पहुंच बनाने के सीधे तरीके भी हैं। जैसे कि उदाहरणस्वरूप पड़ोसी से विवाद हो जाने के मामले में अपनी नीयत जाहिर करने और इसमें अपने लिए कोई वरदान या कसम इच्छित की जाती है।
इन विवरणों के माध्यम से हम देव परंपरा की विशिष्टताओं के प्रति अपनी समझ सपष्ट कर सकते हैं। पुनश्च यह दोहराना जरूरी है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संदर्भों के परिवर्तन के साथ-साथ देव परंपरा और शिवरात्रि महोत्सव में भी परिवर्तन का पहलू ज्यादा अहम हो चुका है। लेकिन इन परंपराओं में परिवर्तन के पहलू पर अभी भी सिलसिलेवार शोधकार्य नहीं हो पाए हैं। जिसके चलते इनके स्वरूप में आए बदलावों को अभी तक रेखांकित नहीं किया जा सका है। ऐसे में परिवर्तन के पहलू के अंतर्गत ही लोक जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ी इन परंपराओं की निरंतरता के पहलू को समझे जाने की आवश्यकता और कार्यभार अभी शेष है।

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1 comment:

  1. दुर्लभ ज्ञान देने के लिए धन्यवाद

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