Sunday 1 April 2018

अंबेडकर और दलित आंदोलन का पाठ


हाल ही में आनंद तेलतुमड़े की लिखी किताब ‘अंबेडकर और दलित आंदोलन’ पढ़ी। यह किताब बाबा साहब अंबेडकर के जीवन के कुछ विशेष पहलुओं पर प्रकाश डालती है। इस पुस्तक में अंबेडकर के व्यक्तित्व के कुछ पक्षों को सामने रखा गया है जिससे उनके व्यक्तित्व को समझने में पाठक को मदद मिल सके। दलित आंदोलन के विभिन्न पक्षों को समग्रता में देखने का आग्रह पुस्तक का लेखक करता है। बिना समग्रता में देखे परखे अंबेडकर का सही मुल्यांकन संभव नहीं है। वह अंबेडकरवादियों के समक्ष व्याप्त संकटों और दलित आंदोलन की निराशा के कारणों को सपष्ट करते हुए भावी चुनौतियों को भी सामने रखते हैं। आनंद तेलतुमड़े दलित आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में राज्य, संविधान, लोकतंत्र, समाजवाद, लैंगिक समानता, मार्क्स और साम्यवाद, क्रान्ति, बौद्ध धर्म, राणनीति और कार्यनीति के पहलू, एक आदर्श की अवधारणा, दलितों के आंदोलन के लिए ‘अंबेडकर, और क्रान्तिकारी विचारक के रूप में’ अंबेडकर, पर विमर्श करते हुए दलितों के मुक्ति संघर्ष के सही रास्ते की तलाश करते हैं। यह पुस्तक समाज में मौजूद अतर्विरोधों को सर्वाधिक पीड़ित के दृष्टिकोण से देखने और उनके समाधान के लिए काम करने, भारत में एक लोकतांत्रिक क्रान्ति के लिए अंबेडकर के काम में प्रयुक्त मौलिक खाके की प्रासांगिकता और वैधता पर जोर देती है। पुस्तक का अनुवाद कृष्ण सिंह ने किया है जबकि इसे ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली ( फोन- 22025140, 65179059) ने प्रकाशित किया है।
आनंद तेलतुमड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, आलोचक और समसामयिक दलित और वामपंथी आंदोलन के विश्लेषक हैं। उनकी ताजा पुस्तकें हैः हिंदुत्व एंड दलितः पर्सपैक्टिव फॉर अंडरस्टैंडिंग कम्युनल प्रैक्सिस (संपादित) और एंटी इंपीरियलिज्म एंड एनहिलेशन ऑफ कास्ट।

अपनी किताब एंटी-इंपीरियलिज्म एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट् में उन्होंने जातियों के उन्मूलन के लिए एक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था। पहला, उन्होने पाया कि औपनिवेशिक दौर से 1960 के दशक तक पूंजीवादी हमले के तहत कर्मकांडी जातियां बहुत हद तक कमजोर हुई हैं और इसलिए एक शास्त्रीय पदानुक्रम में जातियों के बारे में बात करना निरर्थक है। समकालीन जातियों को दलितों और गैर दलितों तक समेट दिया गया है। दूसरा, जाति का अंतर्विरोध ग्रामीण क्षेत्रों में अमीर किसानों के वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा जो अधिकतर दलितों से ताल्लुक रखते हैं के बीच प्रकट होता है। ये अंतर्विरोध मुख्यतः आर्थिक हितों पर आधारित होते हैं लेकिन वे गैर आर्थिक विरोधों (सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक) अंतर्विरोधों के साथ अधिक सपष्ट होते हैं। अमीर किसान अपनी खुद की जाति के लोगों के साथ अपनी जाति के बंधनों का इस्तेमाल करते हैं जो दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच एक जाति संघर्ष में आसानी से बदल सकते हैं। तीसरा, उत्पीड़न के बढ़ते मामलों का कारण दलितों की आंतरिक कमजोरी है (जिसे अंबेडकर द्वारा बहुत पहले 1936 में चिन्हित किया गया था)। राज्य और उसके उपकरणों का धनी किसानों के साथ गठजोड़ दलितों और गैर दलितों के बीच शक्ति की इस विषमता को बढ़ाता है। यह काफी हद तक प्रभावशाली कारक है। चौथा, आमतौर पर समाज के आगे बढ़ते हुए तबकों को राजनीतिक अर्थव्यवस्था के माध्यम से, न कि सांस्कृतिक या नैतिक तरीके से, जाति की बुराई के खिलाफ लोगों को शिक्षित करने का कार्य हाथ में लेना चाहिए। यह उम्मीद की जाती है कि यह अमीर किसानों और उनकी जाति के लोगों, जो दलितों के खिलाफ उनके सैनिक बनने के लिए उनका आदेश मानते हैं, के साथ गठजोड़ को कमजोर करेगा। पांचवां, इसके बावजूद कुछ ऐसे तत्व होंगे जो इन बातों को नहीं समझते और उत्पीड़न में हिस्सा लेते हैं। उनके साथ शारीरिक रूप से निपटे जाने की जरूरत है। यहां वामपंथ के हस्तक्षेप के लिए एक अवसर और साथ ही साथ एक भूमिका सामने आती है। यदि वे दलितों के साथ अपने दल-बल के साथ शामिल होते हैं, यह आसानी से पूरा किया जा सकता है। इस प्रक्रिया का परिणाम यह होगा कि वामपंथ दलितों का विश्वास हासिल कर लेगा और फलस्वरूप जातियों के उन्मूलन की ताकतें मजबूत होंगी। इतना सा काम करिए, और आप खुद को जातियों के उन्मूलन के करीब पाएंगे।
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