Thursday 19 April 2018

आरक्षणः पक्ष, विपक्ष और तीसरा पक्ष का पाठ




हाल ही में आरक्षण के सवाल पर ‘आरक्षणः पक्ष, विपक्ष और तीसरा पक्ष’ पुस्तिका पढ़ी। पुस्तिका के कुछ अंश आपके साथ सांझा करना चाहता हुं।
- देश का बुर्जुआ सत्ताधारी वर्ग जब नौकरियों या उच्च शिक्षा में आरक्षण का लुकमा फेंकते हैं तो पहले से नौकरियों पर आश्रित, मध्यवर्गीय, सवर्ण जातियों के छात्रों और बेरोज़गार युवाओं को लगता है कि आरक्षण की बैसाखी के सहारे दलित और पिछड़ी जातियाँ उनके रोज़गार के रहे-सहे अवसरों को भी छीन रही है। वे इस ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं देख पाते कि वास्तव में रोज़गार के अवसर ही इतने कम हो गये हैं कि यदि आरक्षण को एकदम समाप्त कर दिया जाये तब भी सवर्ण जाति के सभी बेरोज़गारों को रोज़गार नहीं मिल पायेगा। इसी तरह दलित और पिछड़ी जाति के युवा यह नहीं देख पाते कि यदि आरक्षण के प्रतिशत को कुछ और बढ़ा दिया जाये और यदि वह ईमानदार और प्रभावी तरीके से लागू कर दिया जाये, तब भी दलित और पिछड़ी जातियों के पचास प्रतिशत बेरोज़गार युवाओं को भी रोज़गार नसीब न हो सकेगा। उनके लिए रोज़गार के जो थोड़े से नये अवसर उपलब्ध होंगे, उनका भी लाभ मुख्यतः मध्यवर्गीय बन चुके दलितों और आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पिछड़ी जातियों के लोगों की एक अत्यन्त छोटी सी आबादी के खाते में ही चला जायेगा और गाँवों-शहरों में सर्वहारा-अर्द्धसर्वहार का जीवन बताने वाली बहुसंख्यक आबादी को इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा।
आरक्षण के विरोधियों से
- आरक्षण विरोधियों का चिन्ता भरा तर्क होता है कि आरक्षण से योग्यता नजरअंदाज हो जाती है। लेकिन उनकी यह चिन्ता एन.आर.आई. कोटे के तहत और कैपिटेशन के आधार पर होने वाले प्रवेश को लेकर नहीं होती और न ही वह इस तरह की अयोग्यता का कभी विरोध करते हैं। क्या अनिवासी भारतीयों और दस-दस लाख रूपये तक कैपिटेशन फीस देकर एडमिशन फीस दे सकने लेने वाले धन्ना सेठों की सभी औलादें प्रतिभाशाली ही पैदा होती हैं। इन संस्थानों में दाख़िले के लिए धनिकों की जमात अपने कुलदीपकों की कोचिंग पर लाखों रूपये ख़र्च कर देती हैं। यदि आप इंसाफ़पसंद हैं और योग्यता को लेकर चिन्तित हैं तो फिर आपने कभी सरकार से इस तरह की माँग क्यों नहीं की कि वह या तो ऐसे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों पर रोक लगाकर सभी अभ्यर्थी छात्रों के लिए निःशुल्क या सस्ती कोचिंग की समान व्यवस्था लागू करे या फिर दलितों, अन्य पिछड़ी जातियों और वंचित तबकों के लिए अलग से निःशुल्क कोचिंग का प्रावधान करे ताकि कोई योग्य व्यक्ति महज़ आर्थिक-सामाजिक कारणों से इन संस्थानों से वंचित न रह जाये। शिक्षा मात्र व्यापार या पैसे का खेल होकर रह गयी है। लाख योग्यता हो, पैसे और पहुँच के अभाव में आगे बढ़ पाने की रही-सही सम्भावनाएँ भी लगातार सिकुड़ती जा रही हैं।
- प्रतिवर्ष हज़ारों डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक इस देश की आम जनता के खून-पसीने से अर्जित संसाधनों से डिग्रियाँ हासिल करने के बाद, ज़्यादा से ज़्यादा पैसा पीटने के लिए अमेरिका और यूरोप की राह पकड़ लेते हैं। क्या आपने इस प्रवृति का और इसे बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियों का कभी विरोध किया? जबकि इन्हें डिग्रियाँ दिलाने में अस्सी फीसदी से अधिक ख़र्च सरकारी होता है, जो आम जनता से परोक्ष करों के रूप में वसूली गयी धनराशि से आता है।
आरक्षण के समर्थकों से
- भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की नंगी, क्रूर और वीभत्स सच्चाई के मद्देनज़र, यदि भावुकतापुर्ण ढंग से उद्विग्नचित होकर सोचा जाये तो दलितों और पिछड़ों के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का फार्मूला न्यायसंगत प्रतीत होता है। लेकिन गहराई से देखने पर यह सपष्ट हो जाता है कि दलितों और पिछड़ी जातियों की वास्तिवक सामाजिक-आर्थिक स्थिति में, वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के फ़्रेमवर्क के भीतर, आरक्षण या ऐसे किसी भी प्रावधान से कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है। आरक्षण का मूल मन्तव्य सदियों से वंचित-उत्पीड़ित लोगों के आक्रोश की ज्वाला को भड़क उठने से रोकने के लिए उस पर पानी के छींटे मारना मात्र है। शोषित-उत्पीड़ित दलितों और पिछड़ी जातियों के आक्रोश को व्यवस्था-विरोधी विस्फोट के रूप में फूट पड़ने से रोकने के लिए आरक्षण का हथकण्डा एक सेफ़्टीवॉल्व का काम करता है।
- दलितों के लिए शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में लागू आरक्षण से मात्र इतना फ़र्क़ पड़ा है कि उनके बीचे से एक अत्यन्त छोटा, सुविधाजीवी मध्य वर्ग पैदा हुआ है जो गाँवों और शहरों में निकृत्षटतम कोटि के उजरती गुलामों का जीवन बिताने वाले दलितों से अपने को पूरी तरह काट चुका है। चूँकि उसे भी ऊंची जातियों के हमपेशा लोगों के बीच तरह-तरह से, प्रत्यक्ष-परोक्ष सामाजिक अपमान का सामना करना पड़ता है, इसलिए वह दलितवादी राजनीति के पक्षधर, प्रवक्ता और सिद्धान्तकार की भूमिका बढ़-चढ़कर निभाता है, जिसका चरित्र तमाम गरमागरम बातों के बावजूद, निहायत सुधारवादी है और जो व्यापक दलित आबादी की भावनाओं को भुनाकर मात्र अपना वोट बैंक मज़बूत करने का काम किया करता है। ये पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही सुधार की गुंजाइश के लिए लड़ते हैं, चाहे उनके तेवर जितने भी तीखे हों। नंगी सच्चाई यह है कि भारत में जब तक पूँजीवाद रहेगा, तब तक उजरती गुलामी रहेगी और दलितों का (और पिछड़ों का भी) बहुलांश तब तक इन्हीं उजरती ग़ुलामों की क़तारों में शामिल रहेगा। जातिगत आधार पर क़ायम पार्थक्य और शोषण-उत्पीड़न का आधार पहले सामन्तवाद था और आज पूँजीवाद है। इसे समाप्त करने के लिए पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के अतिरिक्त और कोई भी बुनियादी उपाय नहीं है।
- यदि आरक्षण ही समस्या का समाधान होता तो पंजाब में 37 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 30,000, हरियाणा में 47 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 10,000, हिमाचल प्रदेश में 47 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 6000, बिहार में 50 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 62,500, राजस्थान में 49 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 41,565 और मध्यप्रदेश में 50 प्रतिशत आरक्षित नौकरियों में से 11,500 पद खाली नहीं पड़े रहते। अनुमानतः देश भर में एक लाख ऐसी सरकारी नौकरियाँ हैं जो आरक्षण के तहत ख़ाली हैं। सच्चाई यह है कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों व अन्य पिछड़ी जातियों की बहुसंख्यक आम आबादी की ऐसी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति ही नहीं है कि वह इन नौकरियों के लिए आवेदन कर सके। जो आरक्षित सीटें भरती हैं, वे उनके खाते में ही चली जाती हैं जो पहले से ही मध्य वर्ग में शामिल हो चुके हैं। शैक्षणिक स्थिति में परिवर्तन की रफ़्तार यह है कि आज़ादी के 59 साल बाद भी 79.88 प्रतिशत अनुसूचित जाति के छात्र स्कूली पढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं। उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षित 50 प्रतिशत सीटें खाली रह जाती हैं और आरक्षण के अन्तर्गत दाख़िला लेने वाले 25 प्रतिशत छात्र बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। आरक्षण के समर्थक इन्हीं आँकडों के आधार पर कहेंगे कि इसीलिए आरक्षण को अभी लम्बे समय तक जारी रहना चाहिए और इसके दायरे को भी विस्तारित किया जाना चाहिए। लेकिन हमारा कहना यह है कि इस रफ़्तार से ही यदि आरक्षण का प्रभाव पड़ता रहा तब तो एक शताब्दी बाद भी स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आयेगा। और इससे भी अहम बात यह है कि उदारीकरण-निजीकरण के इस रोज़गारविहीन विकास के दौर में जब सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियाँ लगातार कम होती जा रही हैं तो ऐसी स्थिति में आरक्षित नौकरियों का प्रतिशत यदि कुछ बढ़ भी जाये तो आम दलित और पिछड़ों की जीवन स्थितियों में भला इससे क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है?
हमारा पक्ष
- आरक्षण चाहे लागू हो या न लागू हो, दलितों और पिछड़ी जाति के ग़रीबों की स्थिति में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। जाति-प्रश्न के समाधान की दिशा में यह एक छोटा-सा भी क़दम नहीं हैं। आरक्षण का शिगूफ़ा उछालकर शासक वर्ग बहुसंख्यक शोषित-वंचित-उत्पीड़ित आबादी को जातिगत आधार पर विभाजित कर देता है और उस लड़ाई के संगठित होने की प्रक्रिया को भी बाधित कर देता है, जो हमारे समाज के तमाम बुनियादी प्रश्नों के साथ ही जाति-प्रश्न के समाधान की प्रक्रिया को भी आगे बढ़ायेगी और अंजाम तक पहुँचायेगी। आरक्षण का लक्ष्य राहत या सुधार नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए एक लुकमा फेंककर जनता को जातिगत आधार पर बाँटना है। इसका समर्थन या विरोध करने वाले जाने-अनजाने एक ही साज़िश का शिकार बन जाते हैं।
- इसलिए, हमारा पक्ष यह है कि हम आरक्षण का न तो समर्थन करते हैं, न ही विरोध। हम इस मुद्दे पर जनता के बँट जाने की स्थिति को ही एक कुचक्र मानते हैं और इसका विरोध करते हैं। शिक्षा और नौकरी में किसी प्रकार का आरक्षण नहीं बल्कि छात्र-युवा आन्दोलन की आज एक ही केन्द्रीय माँग हो सकती है- ‘सभी के लिए समान और निःशुल्क शिक्षा तथा काम करने योग्य हर व्यक्ति के लिए रोजगार’। शिक्षा और रोजगार हम सरकार की ज़िम्मेदारी मानते हैं और जिस व्यवस्था में यह सम्भव न हो सके, उसे उखाड़ फेंकना हम आम जनता के बहादुर बेटे-बेटियों का बुनियादी कर्तव्य मानते हैं। निश्चय ही, इस माँग के लिए लड़ते हुए बीच की कुछ मंज़िलें हो सकती हैं, जब तात्कालिक तौर पर सीटें बढ़ाने, फीसें घटाने या बेरोज़गारी भत्ता जैसी किसी माँग के लिए लड़ा जा सकता है, लेकिन इन माँगों की श्रेणी में भी आज आरक्षण को शामिल नहीं किया जा सकता, खासकर तब जबकि विगत आधी सदी का अनुभव हमारे सामने है।
- साथ ही, क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन का यह अनिवार्य दायित्व है कि वह जातिगत भेदभाव, पार्थक्य और दलित उत्पीड़न के विरूद्ध लगातार प्रचार और आन्दोलन की कार्यवाई चलाये। जाति-विरोधी आन्दोलन को सामाजिक-सांस्कृतिक स्तरों पर लगातार चलाते हुए इसे स्त्री मुक्ति के प्रशन से भी जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि जाति-आधारित पार्थक्य व उत्पीड़न, लैंगिक आधार पर क़ायम स्त्रियों के पार्थक्य व उत्पीड़न से जुड़ा हुआ है। स्त्रियों की सामाजिक मुक्ति के साथ ही जाति के भीतर तय करके होने वाले विवाहों की रूढ़ि भी कमज़ोर पड़ेगी, युवा स्त्रियाँ विवाह के मामले में चयन की आज़ादी के लिए संघर्ष करेंगी और ऐसी स्थिति में लाज़िमी तौर पर अन्तरजातीय, अन्तरधार्मिक विवाहों का भी चलन बढ़ेगा। इस रूझान के संकेत पहले भी महानगरीय जीवन में देखने को मिलते थे, जो अब पूँजीवादी विकास के साथ ही आम प्रवृति बनती जा रही है। जाति-विभेद की दीवारों को ढहाने के लिए छात्र-युवा आन्दोलन को एक सामाजिक आन्दोलन के रूप में इस प्रवृति को बढ़ावा देना चाहिए।
- ‘सबके लिए समान एवं निःशुल्क शिक्षा और सबके लिए रोज़गार के समान अवसर’ का नारा जातिगत बँटवारे को समाप्त कर आम जनता के सभी बेटे-बेटियों को एक जुझारू संघर्ष के झण्डे तले एकजुट कर देगा और साथ ही, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन को व्यापक मेहनतकश जनता के साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी संघर्ष की धारा के साथ भी जोड़ देगा। इस एकजुटता के बाद ही इस व्यवस्था का ध्वंस करने और ऐसी नयी व्यवस्था का निर्माण करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्ग काबिज़ हो सकेंगे और फ़ैसले की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में आ सकेगी।
- रियायतखोरी और पैबन्दसाज़ी की मानसिकता से मुक्त होकर दलित-मुक्ति के प्रश्न और समूची जाति समस्या पर इस पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं का अतिक्रमण करके सोचने पर ही इनके निर्णायक और अन्तिम समाधान की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। दलितों के लिए राहत के चन्द टुकड़े जुटाने के बजाय, उनमें से कुछ को सफ़ेदपोश बनाकर शेष को झूठी उम्मीद के सहारे लटकाये रहने के बजाय, ज़रूरत इस बात की है कि दलित-मुक्ति की आमूलगामी परियोजना जनमुक्ति की किसी व्यापक क्रान्तिकारी परियोजना के एक अंग के रूप में ही सम्भव हो सकती है।
- भारत की कुल आबादी के करीब 30 प्रतिशत दलित हैं और इनमें से 90 प्रतिशत ग्रामीण और शहरी सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा की क़तारों में शामिल हैं। इनमें यदि पिछड़ी जाति के ग़रीबों और जनजातियों को भी जोड़ दें तो यह कुल आबादी की आधी से भी अधिक हो जायेगी। भारत में समाजवाद के लिए संघर्ष तभी आगे बढ़ सकता है, जब आबादी का यह हिस्सा सम्पूर्ण जनता की मुक्ति और स्वतन्त्रता-समानता की वास्तविक स्थापना की परियोजना के रूप में उसे अंगीकार करे। दूसरी ओर, समाजवादी क्रान्ति की परियोजना से जुड़े बिना दलित-मुक्ति का प्रश्न और जाति-विभेद का सम्पूर्ण प्रश्न भी असमाधेय बना रहेगा तथा समाजवाद क्रान्ति को जीवन के हर क्षेत्र में दीर्घावधि तक लगातार चलाये बिना समाज को उस मुक़ाम तक पहुँचाया ही नहीं जा सकता जब जाति, धर्म या लिंग के आधार पर किसी भी तरह की असमानता या उत्पीड़न बचा ही नहीं रह जायेगा।
इस पुस्तिका का प्रकाशन राहुल फ़ाउण्डेशन, 69, बाबा का पुरवा, पेपरमिल रोड, निशातगंज, लखनऊ-226006 ने किया है और आह्वान कैम्पस टाइम्स के सम्पादक मण्डल ने सम्पादन किया है।
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