Wednesday 21 October 2015

सामाजिक तिरस्कार और सुविधाओं के अभाव में कुष्ठ रोगियों का जीना हुआ दुश्वार


मंडी। भले ही कुष्ठ रोग के बारे में सरकार ने घोषणा करके इसके अस्पतालों को बंद कर दिया है। लेकिन कुष्ठ रोग की बीमारी से पीडित रोगियों को समाज अभी भी स्वीकार नहीं कर पाया है। ऐसे में कुष्ठ रोगी अस्पताल के पास ही बनी अपनी झोंपडियां में जीवन बसर को मजबूर हैं। मंडी से करीब तीन किलोमीटर दूर रघुनाथ पधर में कुष्ठ रोगियों की पुराने समय से बसी हुए एक बस्ती है। दरअसल इस जगह पर कुष्ठ रोगियों का अस्पताल हुआ करता था। लेकिन कुछ साल पूर्व सरकार ने अधिसूचना जारी करके कुष्ठ रोग समाप्त हो जाने पर अस्पताल को बंद कर दिया है। अस्पताल में उपचाराधीन रहने और समाज में इस रोग के प्रति अश्पृश्यता होने के कारण रोगी अस्पताल की जमीन पर ही झोंपडियां बना कर कई सालों से रह रहे हैं। भले ही कुष्ठ रोगियों की बीमारी समाप्त होने की घोषणा कर दी गई हो लेकिन सामाजिक तानाबान अभी भी इन रोगियों को स्वीकार नहीं करता है। जिसके चलते करीब चालिस रोगियों और उनके परिवार को अपना जीवन इसी बस्ती में बिताना उनकी तकदीर बन गया है। रघुनाथ पधर स्थित कुष्ठ रोगी कलौनी के वाशिंदों से जब उनका हाल जानने के लिए बातचीत की तो उनका दर्द उमड पडा। मंडी जिला के चैलचौक के नजदीक डुगराईं (खयोड) गांव के 79 वर्षीय शिपणु पुत्र हियूंरू बताते हैं कि वह साल 1965 में रोग लग जाने के कारण यहां आ गए थे। अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद वह कुल्लू चले गए थे और वहां से करीब 40 साल बाद गत वर्ष फिर से मंडी आ गए हैं। उन्होने एक बुढिया रोगी झाबटी देवी की मृत्यु हो जाने के बाद उनके पति से करीब 1200 रूपये में एक कमरे की झोंपडी खरीदी थी। लेकिन झोंपडी पर छत न होने के कारण उन्हें तिरपाल लगा कर गुजारा करना पड रहा है। जिससे झोंपडी की छत की लकडियां सडने लगी हैं। झोंपडी पर टीनें डालना उसके बस से बाहर है। जबकि बारिश का मौसम आने वाला है। शिपणु बताते हैं कि उनके समेत करीब आधा दर्जन अन्य लोगों का खाना क्षेत्रीय अस्पताल से आ जाता है जबकि अन्य रोगी अपना खाना स्वयं बनाते हैं। जोगिन्द्रनगर उपमंडल के गदयाडा (द्राहल) गांव निवासी शोभा राम बताते हैं कि जब पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु हुई थी उससे करीब तीन साल पहले वह अपने बचपन में ही रघुनाथ पधर आ गए थे। मां-बाप के मर जाने के कारण उसकी नानी परवरिश करती थी। लेकिन रोग लग जाने के कारण वह मंडी आ गया और तब से यहीं पर है। गोहर उपमंडल के सैंज निवासी भगत राम पुत्र लछमण राम भी यहां पर पिछले करीब 40 सालों से रह रहे हैं। हालांकि उनका परिवार पत्नी और दो बच्चे भी यहीं पर उनके साथ ही रहते हैं। करसोग उपमंडल के चुराग निवासी चेतराम पुत्र मारू भी करीब 35 सालों से यहीं पर रहा है। उसकी पत्नी भीमा भी उनके साथ ही रहती है। उनका कहना है कि हालांकि उनके परिवार के सदस्यों ने अब उन्हे स्वीकार कर लिया है। लेकिन समाज अभी भी उन्हे स्वीकार नहीं कर रहा है। जिसके चलते उन्हे यहां रहना पड रहा है। रोगियों ने बताया कि दी रघुनाथ कुष्ठ रोगी कल्याण समिति उनके लिए बहुत से कार्य कर रही है। जिसके तहत समिति ने करीब चार झोंपडियों पर टीन की छतें डलवा कर उन्हे पक्का करवाया है। उनका कहना है कि शिपणु राम की झोंपडी पर भी टीनें डालकर पक्का किया जाए। रोगी बताते हैं कि उन्हे 600 रूपये प्रतिमाह पेंशन मिलती है। जिसमें गुजारा करना आज के जमाने में बहुत मुश्किल है। हालांकि नजदीक ही सरकारी डिपो है। जहां पर सस्ता राशन मिलता है पर मिट्टी का तेल जहां पहले दस लीटर मिलता था। वहां बाद में उसे पांच लीटर और अब तीन लीटर दिया जा रहा है। लकडी का कोई प्रबंध न होने के कारण इतने तेल से गरीबों का गुजारा कैसे हो सकता है। रोगियों को बीमारी की हालत में क्षेत्रीय अस्पताल की लंबी लाईनों में लगना पडता है। अगर इस कलौनी के पुराने अस्पताल में ही एक डाक्टर व अन्य स्टाफ की व्यवस्था करके इसे शुरू किया जाए तो उन्हे भारी राहत मिलेगी।
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