Sunday 26 February 2017

बजंतरी



बजंतरी

लौट आई है
शहनाई की मचलती
बारिक आवाज
ढोल नगाडों की
दीपचंदी ताल में
उठते कदमों के साथ।
सात दिनों तक
करनाल- नरसिंघे-बाम के
उदघोष से गुंजायमान
जनपद के सभी छोर
इन समवेत स्वर
लहरियों से
अब रहेंगे सरोबार।
बजंतरी उतर आए हैं
देवताओं के आदेश के
संवाहक बन
फिर देवभूमि के
उतंग शिखरों से
परंपरा का निर्वहन करने।
उनके बढते कदम
ब्यास नदी के
खामोश पानी में
हिलोरें उठाते हुए
रच रहे हैं
लोमहर्षक दृश्यों का
कैनवास
जिसके रंग अपनी
छटा बिखराते रहेंगे
जहनों के सुप्त संसार में।
तुम्हारा आना
अहसास दिलाता है
इतिहास के उन
काल खंडों का
जिनमें देवता के
साथ तुम भी रहे
होंगे उनके अंग-संग ही
हंसी-खुशी,
सुख-दुख के साथी बनकर।
प्रतिभाशाली, अनुठे पर
अस्पृश्यता, असमानता और
शोषण के शिकार बजंतरी
घोषित क्यों नहीं होते
लोक कलाकार
सवाल उठाता है तुम्हारा यहां आना।
पहचान को बनाने को
कब तक लडना होगा
गुंजायमान वाद्य यंत्रों से
उभर रही ध्वनियों का
मुल्यांकन कब होगा।
हाशिये में जी रहे
कला धर्मी की आपदाओं में
लुप्त होती लोक कला का
संरक्षण निर्वहन कैसे होगा।
कम होती जा रही हैं
शहनाई पर उंगलियां
कौन सीखेगा इसे,
कौन सिखाएगा इसे।
तब भी तुम लौटे हो
एक बार फिर
बदलते समय की
चुनौतियों में
देव परंपरा का
ताना बाना सुरक्षित रखने,
जनपद को अपने
पवित्र बाजे की
स्वर लहरियों में
स्पंदित और
सम्मोहित करने।
-समीर कश्यप
26-2-2017
पिक्चर साभार- चंदन भाटिया
...sameermandi.blogspot.com

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