Tuesday 30 August 2016

भगत सिंह के लेख ‘भगवान और धर्म’ की रोशनी में ‘प्रार्थनाएँ बंद करो’ का पाठ








भगत सिंह के लेख ‘भगवान और धर्म’ की रोशनी में ‘प्रार्थनाएँ बंद करो’ का पाठ

--समीर कश्यप

करीब तीन दशक पहले पढ़ी ज्ञानेन्द्रपति की कविता ‘प्रार्थनाएँ बंद करो’ को हाल ही में सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था। कविता पर एक साथी का कमेंट था कि इन व्यक्त उद्गारों के पीछे छिपा दर्शन समझ से परे है और स्थापित मूल्यों के विरोध के अतिरिक्त और कुछ भी सिद्ध नहीं करता। यह केवल तोड़ने की पालिसी का द्योतक है सोच की स्वतंत्रता का परिचायक नहीं। क्योंकि यह कमेंट एक उच्च शिक्षित साथी का है इसलिए कविता के दर्शन को समझने और समझाने को अपना दायित्व मान कर कुछ लिखने की कोशीश में हुं। इन्हीं दिनों जब यह कविता पोस्ट की थी तो उसी दौरान भगत सिंह के ‘किरती’ में मई से अगस्त 1928 के दौरान लिखे ‘अराजकतावाद क्या है’ लेखमाला को पढ़ रहा था जो उसी दर्शन की बात कर रहा है जिसके बारे में कविता बात करती है। कविता के दर्शन से अनभिज्ञों को इसके कथ्य को समझने में यह लेख सहायक साबित हो सकता है। इसलिए इस लेखमाला के कुछ अंशों को यहां रखना आवश्यक समझ रहा हुं। ‘भगवान और धर्म’ लेख में भगत सिंह लिखते हैं कि हिन्दुस्तान में भी अब इन दोनों भूतों (भगवान और धर्म) के विरूद्ध आवाज़ उठ रही है, लेकिन यूरोप में तो पिछली सदी से ही इसके विरूद्ध विद्रोह उठ खड़ा हुआ था। पुराने युग में जनता का ज्ञान बहुत ही कम था। उस समय वह प्रत्येक चीज़ से, विशेषकर दैवी शक्तियों से डरते थे। उनमें आत्मविश्वास कतई न था। वे स्वयं को ‘खाक का पुतला’ कहते थे। जबकि धर्म और दैवी शक्तियां अज्ञानता का परिणाम हैं। इसलिए उनके अस्तित्व का भ्रम मिटा देना चाहिए। साथ ही यह भी कि हम छुटपन से बच्चों को यह बताना शुरू कर देते हैं कि सब कुछ भगवान है, मनुष्य तो कुछ भी नहीं। अर्थात मिट्टी का पुतला है। इस तरह के विचार मन में आने से मनुष्य में आत्मविश्वास की भावना मर जाती है। उसे मालूम होने लगता है कि वह बहुत निर्बल है। इस तरह वह भयभीत रहता है। जितने समय यह भय मौजूद रहेगा उतनी देर पूर्ण सुख और शान्ति नहीं हो सकती। भगत सिंह लिखते हैं कि हिन्दुस्तान में महात्मा बुद्ध ने पहले भगवान के अस्तित्व से इन्कार किया था। उनकी ईश्वर में आस्था नहीं थी। अब भी कुछ साधु ऐसे हैं जो भगवान के अस्तित्व को नहीं मानते। बंगाल के सोहमा स्वामी भी उनमें हैं। वैज्ञानिक युग में ईश्वर के अस्तित्व को समाप्त किया जा रहा है जिससे धर्म का भी नामोनिशान मिट जाएगा। अराजकतावादियों के सिरमौर बैकुनिन ने अपनी किताब ‘गॉड एंड स्टेट’ में ईश्वर को अच्छा लताडा है। उन्होने एंजील की कहानी सामने रखी और कहा कि ईश्वर ने दुनिया बनायी और इंसान को अपने जैसा बनाया। बहुत मेहरबानी की। लेकिन साथ ही यह भी कह दिया कि देखो, बुद्धि के पेड़ का फल मत खाना। असल में ईश्वर ने अपने मन बहलाव के लिए मनुष्य और वायु को बना तो दिया मगर वह चाहता था कि वे सदा उसके गुलाम बने रहें और उसके विरूद्ध सर ऊंचा न कर सकें। इसलिए उन्हें विश्व के समस्त फल तो दिये लेकिन अक्ल नहीं दी। यह स्थिति देखकर शैतान आगे बढ़ा। यानी, दुनिया के चिर विद्रोही, प्रथम स्वतन्त्रचेता और दुनिया को स्वतंत्र करने वाले शैतान- आदि आगे बढ़े, आदमी को बग़ावत सिखायी और बुद्धि का फल खिला दिया। बस, फिर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता परमात्मा किसी निम्न दर्जे की कमीनी मानसिकता की भाँति क्रोध में आ गया और स्वनिर्मित दुनिया को स्वयं ही बद्दुआएँ देने लग पड़ा। खूब! प्रश्न उठता है कि ईश्वर ने यह दुखभरी दुनिया क्यों बनायी? क्या तमाशा देखने के लिए? तब तो वह रोम के क्रूर शहंशाह नीरो से भी अधिक ज़ालिम हुआ। क्या यह उसका चमत्कार है? इस चमत्कारी ईश्वर की क्या आवश्यकता है? हमेशा से स्वार्थियों ने, पूँजीपतियों ने धर्म को अपनी-अपनी स्वार्थ- सिद्धि के लिए इस्तेमाल किया है। इतिहास इसका साक्षी है। ‘ धैर्य धारण करो! अपने कर्मों को देखो! ऐसे दर्शन ने जो यातनाएँ दी हैं, वे सबको मालूम ही हैं। लोग कहते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व को अगर नकारा जाये तो क्या होगा? दुनिया में पाप बढ़ जाएगा। अन्धेरगर्दी मच जायेगी। लेकिन अराकतावादी कहते हैं कि उस समय मनुष्य इतना अधिक ऊँचा हो जायेगा कि स्वर्ग का लालच और नरक का भय बताये बिना ही वह बुरे कार्यों से दूर हो जायेगा और नेक काम करने लगेगा। वास्तव में बात यह है कि हिन्दुस्तान में श्रीकृष्ण निष्काम कर्म करने का बहुत उपदेश दे गये हैं। गीता दुनिया की एक प्रमुख पुस्तक मानी जाती है, लेकिन श्रीकृष्ण निष्काम भाव के साथ कर्म की प्रेरणा देते हुए भी अर्जुन को मृत्योपरान्त स्वर्ग और विजय प्राप्त कर राजभोग का लालच देने से पीछे न रहे। लेकिन आज हम अराजकतावादियों के बलिदान देखते हैं तो मन में आता है कि उनके पैर चूम लें। साको और वेंजरी की कहानियाँ हमारे पाठक पढ़ ही चुके हैं। न ईश्वर को प्रसन्न करने का कोई लालच है और न स्वर्ग में जाकर मौज़ मारने का लोभ, न पुनर्जन्म में सुख मिलने की आशा। लेकिन फिर भी हँसते-हँसते लोगों के लिए, सत्य के लिए जीवन न्योछावर कर देना क्या कोई मामूली बात है। अराजकता
वादी तो कहते हैं कि एक बार मनुष्य स्वतन्त्र हुआ तो उसका जीवन बहुत ऊँचा हो जाएगा। इस लेख के दर्शन की रोशनी में अगर ‘प्रार्थनाएँ बंद करो’ कविता को पढा जाए तो शायद कविता का कथ्य अधिक सपष्टता से समझा जा सकता है। खैर, यह बात तो हुई कविता और लेख के बारे में। इस समय हम 21 वीं सदी से गुज़र रहे हैं लेकिन हमारी वैज्ञानिकता कहां है यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है। वह वैज्ञानिकता जिसके लिए भगत सिंह सन 1928 में लिखे अपने लेख में उन्निसवीं सदी के क्रांतीकारियों से प्रेरणा लेते हुए दिखते हैं वह अब कहां है। देश में पूंजीवाद बढ़ा है तो सामंतवाद भी मौजूद है। यहां पूंजीवाद बिना किसी प्रबोधन काल के उपनिवेश के रूप में सामंतवाद को साथ लेकर पनपा है। दुनिया भर के अधिकांश वैज्ञानिकों में जहां नास्तिकता का बाहुल्य देखा जाता है वहीं पर भारत जैसे देश में हास्यास्पद रूप से किसी वैज्ञानिक खोज के शुभारंभ के अवसर पर सबसे पहले ईश्वर पूजा की रस्मअदायगी होती है।

संदर्भ और साभार- भगत सिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़, राहुल फ़ाउण्डेशन, लखनऊ।
। प्रार्थनाएँ बन्द करो।।
--
ज्ञानेन्द्रपति
बन्द करो ये प्रार्थनाएँ
बच्चों के स्कूलों में होने वाली प्राथनाएँ
बच्चों की किताबों में छपने वाली प्रार्थनाएँ
बच्चों को याद करायी जाने वाली प्रार्थनाएँ
बन्द करो
सामन्तों के गढ़े हुए ईश्वर को
पूँजीपतियों के पोसे हुए ईश्वर को
अत्याचारियों के अत्याचारों को ढँकने वाले
ईश्वर को
अत्याचारों के खिलाफ जब जंग हुई है तेज़
इस विप्लव-वेला में भाग रहे ईश्वर को
बच्चों के मस्तिष्क में मत टिकाने दो पैर
बच्चों का मस्तिष्क है हमारी पृथ्वी का सबसे
उर्वर टुकड़ा
बच्चों का मस्तिष्क है हमारी पृथ्वी का भविष्य
बच्चों के मस्तिष्क में इस ईश्वर को मत
आने दो
उसे मत दो छुपने की जगह बच्चों के मस्तिष्क
में
उनकी बुद्धि पर विवेक पर हांफते हुए ईश्वर को
मत बैठने दो
उनके मस्तिष्क के पिछले हिस्से में थके हुए
ईश्वर को मत लेटने दो
उनकी सोचने वाली शिराओं पर काई की
तरह मत फैलाने दो सड़े हुए ईश्वर को
उनके मस्तिष्क में जहां अग्नि का बीज है
वहां मत रखने दो धूर्त ईश्वर को अपना
ठण्ड़ा काइयाँ हाथ
अत्याचार- अन्याय- शोषण- उत्पीड़न को
ढँकने
जुल्मों को ढँकने
उनकी उमर बढ़ाने के लिए
इस संसार में जिस पाखण्डी ईश्वर
ने अत्याचारों के बीच से लिया था जन्म
इस संसार से भाग रहे उस ईश्वर को
बच्चों के मस्तिष्क में मत टिकाने दो
पैर
बच्चों के मस्तिष्क में मत फैलाने दो पैर
बच्चों के मस्तिष्क के किसी एक कोने
में भी मत होने दो उसका प्रवेश
ये प्रार्थनाएँ बन्द करो
बच्चों के स्कूलों में होने वाली प्रार्थनाएँ बन्द
करो
बच्चों से गवायी जाने वाली प्रार्थनाएँ बन्द करो
बच्चों के हाथ मत जुडने दो
बच्चों के हाथ जो उठेंगे उन अत्याचारियों पर
करने अन्तिम चोट
जिनके आगे-आगे
उनकी छाया की तरह भाग रहा है उनका ईश्वर
---sameermandi.blogspot.com



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