Tuesday 10 June 2014

लोक कलाकार ही लोक संस्कृति के सच्चे संरक्षक


 मंडी। हिमाचल प्रदेश के लोक कलाकार ही लोक संस्कृति के सही मायने में संरक्षक हैं। ऐसा अनेक अवसरों पर साबित होता आया है। जहां आधुनिकता चारों ओर तेजी से अपने पैर पसार रही है वहीं इन लोक कलाकारों की वजह से संस्कृति का स्वरूप अभी भी जीवित दिखता है। वक्त ने भले ही लोक त्योहारों और पर्वों की चमक को फीका कर दिया हो। लेकिन लोक कलाकार अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन अपनी सामर्थ्य के अनुसार अभी भी कर रहे हैं। इस बार भी जबकि आज निर्जला एकादशी का पर्व है जो भले ही शहरी क्षेत्रों में आधुनिकता के चलते ज्यादा उत्साह से नहीं मनाया जाता हो। तब भी मंगलाचारी हेशी समुदाय के शहनाई वादक बजंतरी घर-2 में मंगलाचरण करके अपने उतरदायित्वों को पूरा करते देखे जा सकते हैं। छोटी काशी मंडी में निर्जला एकादशी में मंगलाचरण बजाने की अपनी प्राचीन परंपरा का निर्वहन करता टेक चंद मानो इस त्योहार के आगमन का सूचक है। भले ही शहरवासी खासकर युवा पीढी इस पर्व को मनाने की रस्मों और तौर तरीकों को नहीं जानती होगी। लेकिन जिला के बल्ह क्षेत्र में नेरचौक कस्बे के नजदीक स्थित कसारला गांव के लोक कलाकार टेक चंद अपनी शहनाई की मचलती आवाज के मंगलाचरण से इस त्योहार की सूचना देने के अपने सरोकारों को नहीं भूला है। यही नहीं कादसी के अलावा चैत्र में छींज, सौण महिने में सौण, साजे-बेजे और सैर बजाना भी उसके दायित्वों का अहम हिस्सा है। टेकचंद की शहनाई शादी ब्याह के अलावा साल भर देवता के समर्पित रहती है। लोक कलाकार टेक चंद बताते हैं कि वह अपने परिवार में अब अकेला शहनाई वादक है। उनके पिता धनी राम भी शहनाई वादक थे। लेकिन उनका बेटा पढा लिखा होने के कारण और अन्य व्यवसाय करने के कारण शहनाई वादन का काम नहीं करता। उन्होने बताया कि पढ लिख न पाने के कारण और मंगलाचारी (हेशी) समुदाय से होने के कारण अपने परंपरागत कार्य को ही कर रहे हैं। लेकिन उन्हे लोक कलाकार होने के नाते मात्र एक बार ही शिवरात्रि में पडडल में कार्यक्रम करने का मौका मिला है। टेक चंद बताते हैं कि शहनाई वादकों की संख्या अब बहुत कम रह गई है। उनके अलावा बल्ह क्षेत्र के बडसू गांव में शेरू और टिल्लू, देवधार में चमारू, चच्योट में श्यामू, लाल सिंह, परमा और टारना मुहल्ले में मंगलाचारियों का एक परिवार ही इस समय शहनाई वादन का कार्य कर रहा है। मंडी के घरों की परौलों में एक खास अंदाज में बैठकर शहनाई से लोक गीतों घणे-2 जंगला बिज रैंहदी माता मेरिये और सुन कांगडे रेया लोका की जब मधुर आवाज शहनाई की फूंक से गूंजती है तो ऐसा लगता है मानो लोक संस्कृति के अनेकों बंद दरवाजे खुलते चले जा रहे हैं। वहीं पर ऐसा भी आभास होता है कि अगर इन पर्वों-त्योहारों के सूचक यह लोकधर्मी कलाकार संरक्षण के अभाव में लुप्त हो गए तो लोक संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हो सकता है। ऐसे में सरकार को प्राथमिकता मानते हुए लोक कलाकारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए आगे आना चाहिए। जिससे लोक संस्कृति के विद्यमान तत्वों को बचाया जा सके।

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