Wednesday 11 May 2011

छोटी काशी की धरोहरें संकट में, डिभा बावडी का पानी प्रदूषित हुआ


छोटी काशी के नाम से मशहूर मंडी शहर की सांसकृतिक पहचान के रूप में यहां की बावडियों और नौणों का विशेष महत्व है। करीब 500 साल पुराने इस शहर में लगभग 70 प्राकृतिक जल सत्रोत हैं लेकिन प्रशासनिक उदासीनता,सौन्दर्यीकरण के नाम पर इन जलाशयों के अगोरों में अवैज्ञानिक निर्माण कार्य, अतिक्रमण और उचित रखरखाव न होने से इनकी सथिति बदतर होती जा रही है। शहर की पहचान यह जलाशय पुरातात्कि महत्व के तो हैं ही, नगर वासियों के लिए तीन से तीन हजार लीटर पेयजल की आपूर्ती करने वाले प्रमुख जल सत्रोत के रूप में भी उपयोगी रहे हैं। इन जल सत्रोतों में शिवा बावडी, डिभा बावडी, जौंचु नौण, राजे रा नौण और राणी बाईं आदी शामिल हैं। रियासत काल में बने इन जलाशयों की कलात्मकता और शैलीगत सथापत्य बेहद दर्शनीय है। कयोंकि शहर में करीब 70 जलाशय हैं इसलिए इसे बावडियों की नगरी कहा जाए तो कोई अतिशयोकति नहीं होग
लोगों की सदियों से अपने मीठे जल से प्यास बुझाने वाली भगवाहन मुहल्ला में सथित डिभा बावडी का असतित्व इन दिनोंसंकट में है। पिछले करीब एक सप्ताह से इस बावडी से प्रदूषित जल प्रवाहित हो रहा है। जिससे बीमारियां फैलने की आशंका हो गई है। यह माना जा रहा है कि बावडी के अगोर(आस पास के खाली क्षेत्र) में नगर परिषद के सौन्दर्यीकरण के नाम पर निर्माण से हुई छेडछाड के कारण ही यह जल प्रदूषित हुआ है। नगर परिषद ने बावडी को जाने के लिए बनाई गई पुरातन सीढीयों को तोड कर बावडी के अगोर क्षेत्र का बुरी तरह से खनन करके एक विशालकाय डंगा निर्मित कर दिया है। जिससे अब बावडी के ऊपर से बहने वाली नाली और साथ ही बना दिए गए सीवरेज के टैंक का पानी बावडी में मिल कर इस प्रदुषित कर रहा है। सदियों पहले बनी यह बावडी एक ऐतिहासिक धरोहर है। बावडी के ऊपरी भाग में निर्मित गुंबद और मंडप इसके लंबे समय तक उपयोग में रहने का प्रमाण देते हैं। बावडी के तल तक पहुंचने के लिए सीढियां बनाई गई हैं। इन सीढियों पर लगाए गए पत्थर की यह खासियत है कि इसमें काई नहीं जम पाती। जो अदभुत कला का उदाहरण पेश करती है। यह बावडी तीन तरफ से दीवारों से घिरी हुई है। इन दीवारों में आले बने हुए हैं जिनमें खूबसूरत प्रतिमाएं रखी गई हैं। जबकि पूर्व दिशा में प्रवेश दवार है। जहां बाद में लोहे का एक दरवाजा लगा दिया गया है। प्रवेश दवार की देहली पर गणेश की प्रतिमा है। बावडी के भवन के तीन ओर एक परिक्रमा निर्मित है। नगर परिषद में हाल ही में इस ऐतिहासिक धरोहर के ठीक सामने एक छतनुमा निर्माण कर दिया है जिससे इस बावडी का विहंगम दृश्य ही लोप हो गया है।
ऐसा लगता है कि इस पुरातन शहर में सथित ऐतिहासिक धरोहरों की किसी को चिंता नहीं है। कुछ धरोहरें अपने असतित्व के लिए जूझ रही हैं तो कुछ पर लोगों ने अपने सवार्थ के चलते कबजा कर लिया है। शहर के कई सत्रोत पूरी तरह से अतिक्रमण की चपेट में आ चुके हैं तो कुछ इसकी कगार पर हैं। बावडियों के पास रहने वाले लोगों ने कई जगह इन सत्रोतों पर ही मकान खडे कर दिए हैं। घर के गंदे पानी की निकासी के पाइप इन जलाशयों की ओर मोड दिए हैं। शहर की कुछ बावडियों के तो सिर्फ नाम ही रह गए हैं।
जल को बचाने और उसके असीमित दोहन को रोकने के लिए जल प्रबंधन की निती होनी चाहिए। जिसके अनुसार कार्य किया जा सके। साथ ही जल संरक्षण एकट भी बनाया जाना चाहिए। जब, बडे-2 बांध,नहरें आदी नहीं थी तथा आधुनिक ढंग के नलकूप और नल आदी जल सत्रोत नहीं थे तब बावडियां और नौण आदि ही जल के महत्वपूर्ण सत्रोत थे। भूतल पर सुदृढता से निर्मित बावडियां पेयजल, सनान और सिंचाई आदि के लिए काम में आती थी। वर्तमान समय में ये अतयंत उपेक्षित एवं जर्जर अवसथा में पडी हुई हैं। इनका समुचित उपयोग न होने से इनका जल मलिन होता जा रहा है। झाड-झंखाड उग आए हैं। प्रदुषण से जल की गुणवता प्रभावित हो गई है। बावडी जैसे जल सत्रोतों का समय समय पर होने वाले धार्मिक आयोजनों में भी विशेष महत्व होता है। शादी विवाह और ब'चों के जन्म के बाद बावडी पूजन की रसम की जाती है। जल संकट के भीषण दौर में शहर के प्राचीन जलाशय बहुत बडा सहारा बन सकते हैं। इनसे पाइप लाइन जोड कर पेयजल आपूर्ती की जा सकती है। यही नहीं शहर की सांसकृतिक पहचान बनी इन बावडियों और नौणों की मौलिकता को संरक्षित कर शहर के सौन्दर्य को चार चांद लगाए जा सकते हैं। इसलिए वाटर रिर्सोस के लिए अलग से नोडल एजेंसी बननी चाहिए।
इस वर्ष वल्र्ड हेरिटेज डे के लिए वाटर हेरिटेज को सब थीम बनाया गया है। एक तरफ दुनिया भर में पानी के हैरिटेज सत्रोतों को बचाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। वहीं धरोहर नगरी मंडी में पुराने जल सत्रोतों में डिभा बावडी सहित कई सत्रोत अपने असतित्व के लिए जूझ रहे हैं। बुर्जुगों का कहना है कि सथानिय आबोहवा और जल ही वहां के लोगों का निर्धारक तत्व है। उनकी यह सथापना किसी हद तक संसकृति के नृतत्वशासत्रीय अध्ययन से मेल खाती है। इसका तर्क यह है कि अलग अलग भूमि सत्रोतों में विभिन्न प्रकार के तत्वों में से कुछ हमारे अनुकूल नहीं होते। इन सबसे अलावा पाइप लाइन बिछाने वाला यह विकसित दिमागधारी समाज भूल ही गया कि आखिर पाइप लाइन में भी पानी कहां से आएगा। कया उसी व्यास नदी से जिसकी धारा को बांधों में बांध दिया गया है और जिसके बचे हुए जल को दूषित करने में हमने कोई कसर नहीं रखी है। प्रसिध कवि दीनू कश्यप की एक कविता का मर्म कुछ यूं बयां करता है ( ओ आकाश, युध के इस ऊसर मैदान में, तुम वैसे ही नजर आते हो, जैसे घर के छोटे से आंगन से, फर्क तो सिर्फ है इतना, इस मरू प्रदेश में ठंडे पानी की बावडियां नहीं हैं।

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