Wednesday 30 May 2012

दूसरा मौलिक कर्तव्यः स्वतंत्रता के राष्ट्रीय संग्राम के प्रेरित आदर्शों की पालना करना


2 अक्तूबर 1869 को गुजरात राज्य के राजकोट शहर के करमचंद गांधी के घर एक लडका पैदा हुआ। उसका नाम मातापिता ने मोहनदास रखा। बचपन से ही मोहनदास में सच बोलने की आदत थी। वह बहुत सादा जीवन बिताने वाले युवक थे। इंगलैंड में बैरिस्टरी पास करने के बाद उन्होने अंग्रेजों की बेडियों में जकडे अपने देश को आजाद कराने की सोची। उन्होने सोई हुई भारतीय जनता को जगाया। आजादी की लडाई गांधीजी के नेतृत्व में लडी गई। अंत में भारत आजाद हुआ। गांधी जी ने भारतीयों को हमेशा अच्छा नागरिक बनाने की कोशीश की। इसीलिए सब लोग उन्हे प्यार से बापू कहने लगे। काकोरी कांड में फांसी के कुछ घंटे पहले प्रसिद्ध क्रांतीकारी अशफाकउल्ला खां ने जो कविता लिखी, उनसे उनके ह्रदय का साहस झलकता है। उन्होने कहा थाः मौत को जब एक बार आना है तो डरना क्या है हम सदा खेल ही समझा किए, मरना क्या है। अंग्रेज मैजिस्ट्रेट एक बालक से पूछ रहे थे। तुम्हारा नाम क्या है। आजाद। पिता का नाम स्वतंत्र, तुम्हारा घर, जेलखाना। जब मैजिस्ट्रेट को लगा कि इस तरह के जवाब से उनका मजाक उडाया जा रहा है। तो उन्होने उस बालक को 15 बेंत की सजा दे दी। लेकिन हर बेंत की चोट पर वह बालक के मुंह से कराह की बजाय भारत माता की जय ही निकला। यह साहसी बालक चंद्रशेखर आजाद था। मराठा और केसरी में राजनीतिक लेख लिखने पर अंग्रेजों ने बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चला कर उन्हे 6 साल के लिए देश निकाले का दंड दिया गया। 1915 में ब्रिटिश जूरी के सामने तिलक का कहना था कि कोई भी राष्ट्र हिंसा का सहारा तब लेता है जब सरकार कोई अनुचित काम करती है। उन्होने कहा था कि भारत में हिंसा की कारवाई तभी रूक सकती है जब उसे स्वराज्य दिया जाए। स्वराज्य प्रत्येक राष्ट्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। दो नवयुवक नदी में नाव पर सैर कर रहे थे। अचानक एक ने दूसरे से कहा आओ देश के लिए जीवन देने की प्रतिज्ञा करें। दूसरा बोला मैं प्रतिज्ञा करता हुं। पहला युवक यशपाल था और दूसरा था भगत सिंह। पुलिस सुपरिटैंडेंट सांडर्स की लाठी से पंजाब के कांग्रेसी नेता लाला लाजपत राय घायल हुए और उनकी मृत्यु हो गई। भगत सिंह और उनके साथियों ने 17 दिसंबर 1928 को डीएवी कालेज के सामने सांडर्स को गोली मार कर लाला जी की मौत का बदला ले लिया। क्रांतीकारियों ने अंग्रेजों के काले कानूनों का विरोध करने के लिए विधानसभा में बम फैंकने और अपने आप को गिरफतार करा लेने का निर्णय करते हुए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत को चुना। मुकदमा शुरू होने पर शहीदों ने अदालत में ऐसे बयान दिए कि देश में हलचल मच गई। लेकिन अंगरेज सरकार ने 23 मार्च 1931 की शाम को भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सजा दे दी। ऐसे रहे हैं हमारे आदर्श जिनसे हमारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम प्रेरित रहा। हमें इन आदर्शों से प्रेरणा लेनी चाहिए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51A के खण्ड (ख) प्रदान करता है कि भारत के हर नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि हम स्वतंत्रता के राष्ट्रीय संग्राम को प्रेरित आदर्शों का पालन करें। विदेशी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने का उदेश्य था कि भारत के लोग स्वशासन की स्थापना करें। हमारा समाज ऐसा हो जहां आदमी द्वारा आदमी का शोषण, गरीबी, बीमारी और निरक्षरता जैसे अभिशापों के लिए कोई जगह न हो। यह उद्देश्य केवल तभी प्राप्त किये जा सकते हैं जब सभी नागरिकों को उनके व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास के लिए समुचित अवसर हों। व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास के लिए अच्छी शिक्षा की आवश्यकता होती है। इसके लिए व्यवहारिक शिक्षा को नागरिकों में संस्कारित करना होगा। यह तभी संभव हो सकता है जब देश को व्यक्ति से ऊपर रखा जाए। आज हम जिस आजादी का आनंद ले रहे हैं इसे हासिल करने के लिए हमारे हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने लंबे समय तक चली लडाई में अपने जीवन का बलिदान दिया है। देश के लिए शहीद हो गए इन देशभक्तों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए महान आदर्शों को स्थापित किया गया था। यह हमारा मौलिक कर्तव्य हो जाता है कि देश के लिए हमारे पूर्वजों द्वारा किए गए बलिदान को याद किया जाए। न केवल याद ही किया जाए बल्कि इन आदर्शों को आत्मसात करके उनके अद्वितीय संघर्षों के आदर्शों का पालन भी करना चाहिए। आजादी की लडाई मात्र भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष नहीं था। यह दुनिया भर के लोगों के सामाजिक और आर्थिक मुक्ति का संग्राम था। यह आदर्शों सिर्फ एक समाज के लिए नहीं ते। बल्कि स्वतंत्रता, समानता, अहिंसा, भाईचारा और विश्व शांति के एक संयुक्त राष्ट्र के निर्माण के लिए थे. अगर हम, भारत के नागरिकों को इन आदर्शों के प्रति जागरूक और प्रतिबद्ध करते हैं तो हम विभिन्न विखण्डनशील ताकतों की प्रवृत्तियों को स्थापित होने से रोकने में सक्षम हो सकेंगे। जो राजनैतिक दल और नेता राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धर्म, जातिवाद, अलगाववाद, आदि का उपयोग सत्ता पर काबिज होने के लिए करते हैं वह स्पष्ट रूप से संविधान के तहत अपने मौलिक कर्तव्यों का उल्लंघन करते हैं। अपने समापन भाषण में डॉ. बी. आर Amdedkar ने संविधान सभा में कहा था किः " अगर इतिहास को दोहराने कहोगे तो यह सोच मुझे चिंतित करती है। तथ्य यह है कि जातियों और पंथों को कई राजनीतिक दलों द्वारा तवज्जो दी जाती है ये प्रक्रियाएं चिंता को गहराती है। भारतीयों को अपने पंथ से ऊपर उठकर देश को तवज्जो देनी होगी और पंथ की जगह देश से ऊपर नहीं हो सकती। मुझे नहीं मालूम, पर यह निश्चित है कि अगर देश के स्थान पर राजनैतिक पार्टियों पंथ को तवज्जो देंगी तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर से खतरे में पड जाएगी और शायद यह भी हो सकता है कि बलिदानों से हासिल की गई यह आजादी हमेशा के लिए खो जाए। इस स्थिति में हम सब को संकल्प करके इन प्रवृतियों के खिलाफ देश की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए। हमें यह प्रण लेना चाहिए कि हमारे खून की आखिरी बूंद के साथ हम अपनी आजादी की रक्षा करें। भारत के सभी लोगों को धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या अन्य विविधताओं के बावजूद अनेकता में एकता के सुत्र में बंधना चाहिए। महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक व्यवहार को त्यागना चाहिए। सामाजिक मूल्यों और हमारी समृद्ध विरासत के संरक्षण के साथ-2 सद्भाव और भाईचारे की भावना को भी बढ़ावा देना चाहिए। समाज में वैज्ञानिक सोच और मानवतावाद की भावना विकसित करने के लिए प्रयत्नरत रहना चाहिए। मौलिक कर्तव्यों के कार्यान्वयन के लिए इन्हे बच्चों में प्रारंभिक वर्षों की आयु में संस्कारित किए जाने चाहिए। जिससे दैनिक जीवन में जीवन भर अभ्यास में लाए जाएं। इससे यह नागरिक की प्रकृति और चरित्र का अंग बन जाएगा। प्रारंभिक अवधि (6 से 17 साल) ती आयु में जब लड़कों और लड़कियों को स्कूल में यह कर्तव्य संस्कारित किए जाएंगे तो उनकी प्रकृति और चरित्र की मजबूत नींव रखी जा सकती है। इससे उनके व्यक्तित्व को विकसित और ढाला जा सकता है। इसलिए, व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास के लिए शिक्षा के क्षेत्र में हर स्कूल, निजी या सार्वजनिक अथवा हर वर्ग में मौलिक कर्तव्यों को संस्कारित किया जाना चाहिए। क्योंकि आज के छात्र कल के राष्ट्र निर्माता हैं।

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