Wednesday, 22 January 2014

एक कविता



नफ़रतज़दा लगे सब भीतर से

टटोला जब वो प्यार ही निकले,

धोखों की आंधी बही जब भी

टकरा के इनसे पार हो निकले,

दूरियां भुला गई तस्वीर उनकी

मिले तो लगा अपने ही निकले,

क्या फर्क पडता है कोई हो कहीं

यादों के बिल्कुल पास ही निकले,

साजिश ढुंढते रहे वो सादापन में

देखा खुद को शर्मशार हो निकले,

जीवन की धुरी में हैं कई गोलार्ध

अस्तित्व से जुडे-जुडे हुए निकले,

नदी की तरह प्रवाहमान है जीवन

बहाव चीरने के फनकार हो निकले,

गुजर जाएगी घनघोर रात अंधेरी

चिंगारी बनके इंकलाब हो निकले,

समीर कश्यप

22-1-2014

sameermandi@gmail.com  

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