Thursday, 15 September 2011

मातृ भाषा



सपने में देखा कि मां
कहीं खो गई है
ढुंढने से भी नहीं मिल रही
आखिर कहां चली गई है

घर भी वहीं है और घर के भीतर
सहेजी मां की सता भी वहीं है
लेकिन मां नहीं है।
इधर-उधर खोज बीन करता हुं
आगे से पीछे, दाएं से बाएं टटोलता हुं
लेकिन नजरों से नदारद कहीं नहीं दिखती।
मां पहले तो कभी गुम नहीं होती थी
शायद कहीं पडोस में चली गई हो
लेकिन पास पडोस भी खाली

मुझे विश्वास है कि
मां कभी खो नहीं सकती
वह गुम नहीं हो सकती
वह जननी है
प्रथम गुरू भी वही है
उसी ने बतियाना सिखाया
जीवन पथ पर चलना सिखाया
लेकिन अब मुझे उसकी चिंता होने लगी है

इसी चिंता में
सपना टुटा तो पाया कि
मां तो घर में ही है
सब कुछ सहेजती
लेकिन इसके बावजूद
बच्चों की उपेक्षा का दंश झेलती
पहली बार अपना आत्मलोचन किया तो
यह स्मरण हुआ कि
इतिहास का पन्ना बना भुला दी गई मां को
सपने में ही सही
लेकिन कई दिनों के बाद
याद कर पाया हुं मैं

नींद से उठकर टेबिल पर पडे अखबारों
पर नजर दौडाई तो
मेरी मातृ-भाषा के
दर्द के बारे में
हिंदी दिवस पर इनमें
कोई व्कतव्य नहीं छपा था।

----समीर कश्यप
33-9 भगवान मुहल्ला, मंडी, हि.प्र.
98161-55600
sameermandi@gmail.com
14-9-2011



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