जब भी प्रेमिका को देखा है मैंने
हर बार मार्क्सवाद याद आया है
चेहरा पुंजीपती लगा है उसका
सर्वहारा खुद में उगता पाया है
उसका अहसास है चमक दमक का
अंधेरों में खुद को पाया है
है वह प्रतीक शोषण भंगिमाओं का
तो लोगों को विद्रोही होना भाया है
दिखावा, छलावा, श्रृंगार हैं उसके
जिनसे सबको भरमाया है
जवानी की दहलीज उतर कर
चीर सौंदर्य झीजता देख कर
मानो आखरी हथियार चलाया है
तोड सीमाएं अपनी हदों की
अतिक्रमण का चेहरा दिखाया है
खत्म समझो सम्मोहन उसका
संघर्षों ने अब लोगों को दीवार ढहाना सीखाया है
अंधेरों में चलना सीखाया है,
रोशनी ढुंढना सीखाया है
समीर कश्यप 13-7-2013 sameermandi@gmail.com
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